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Monday, 1 September, 2025
होमफीचरमुंबई के बाद, अब दिल्ली के सोशल सर्कल्स में बढ़ा महजोंग का क्रेज़, पोकर हुआ बोरिंग

मुंबई के बाद, अब दिल्ली के सोशल सर्कल्स में बढ़ा महजोंग का क्रेज़, पोकर हुआ बोरिंग

महजोंग सीखने की मांग आसमान छू रही है, शिक्षक दस सत्रों के लिए 12,000 रुपये से ज़्यादा की फ़ीस ले रहे हैं। यह टाइल गेम शहरी ईलीट वर्ग का नया जुनून बन गया है.

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नई दिल्ली: “मैं जीत गई”, “किसके पास ड्रैगन है?” और “कौन है ईस्ट विंड?” जैसी खुशियों भरी आवाज़ें दिल्ली के धौला कुआं इलाके के एक छोटे से कमरे में टाइलों की खटपट और खनक के बीच गूंजती हैं. डिफेंस सर्विसेज ऑफिसर्स इंस्टीट्यूट में 50 साल की उम्र वाली आर्मी वाइव्स का एक समूह तेज़ी से प्लास्टिक टाइल्स उठाता और रखता है, जब तक कि कोई “महजोंग!” चिल्ला न दे. और फिर खेल दोबारा शुरू हो जाता है.

यह 19वीं सदी का चीनी खेल अब शतरंज, कैरम, जिन रम्मी और पोकर जैसे पारंपरिक खेलों को दिल्ली और मुंबई के सामाजिक समूहों में पीछे छोड़ रहा है. जो खेल कभी आर्मी वाइव्स का पसंदीदा था, अब भारत के बड़े ईलीट वर्ग तक पहुंच गया है.

“पिछले एक साल में यह खेल बहुत तेज़ी से फैला है. हर कोई इसे खेल रहा है,” दिल्ली की महजोंग टीचर 66 वर्षीय विनीता सहनी ने कहा.

सहनी ने आठ साल पहले महजोंग इंडिया फेसबुक ग्रुप शुरू किया था और अब अक्सर आर्मी वाइव्स उनसे खेल सीखने के लिए संपर्क करती हैं. यह खेल किस्मत और कौशल का अनोखा मेल है. पेरिस के पार्लर्स से लेकर न्यूयॉर्क के लॉफ्ट तक महजोंग एक लोकप्रिय खेल रहा है, भले ही 1949 की कम्युनिस्ट क्रांति के बाद चीन में इसे 40 साल तक बैन कर दिया गया था क्योंकि इसे “पूंजीवादी भ्रष्टाचार” का प्रतीक माना जाता था. और अब, यह भारत में भी अपनी जगह बना चुका है.

कंट्री क्लब इंटरक्लब टूर्नामेंट करा रहे हैं, रेस्टोरेंट सोशल इवेंट्स आयोजित कर रहे हैं और अनुभवी खिलाड़ी टीचर बनकर इंस्टाग्राम और फेसबुक पर क्लासेज का विज्ञापन कर रहे हैं.

Mahjong army wives
विनीता साहनी (दाएं) पुणे के आरएसआई माहजोंग रूम में. कभी सिर्फ़ सैनिकों की पत्नियों तक सीमित यह खेल अब मुख्यधारा में आ गया है | फोटो: उदित हिंदुजा | दिप्रिंट

“बड़े लोग जानते हैं कि उन्हें अपनी मेमोरी बेहतर करनी है, इसलिए यह खेल उन्हें आकर्षित करता है,” सहनी ने कहा. कुछ लोगों के लिए यह मानसिक क्षमता और मोटर स्किल्स का अभ्यास है, तो कुछ घंटों तक खेलते हुए दोस्तों से मिलने का बहाना.

खासकर महिलाएं, जो पहले कम खेलती थीं, अब इस तेज़-तर्रार टाइल गेम को अपना रही हैं. दिल्ली के गुलमोहर पार्क और मुंबई के कफ परेड की ऊंची इमारतों में वे इस खेल की ओर बढ़ रही हैं.

यहां तक कि 30 साल की युवा महिलाएं भी, जो सिर्फ खाने-पीने पर मिलने से थक चुकी थीं, अब महजोंग ग्रुप बना रही हैं.

“मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं इतनी ज़्यादा इसकी आदी हो जाऊंगी,” मुंबई की 30 वर्षीय ब्रांड कंसल्टेंट मलिका पुनवानी ने कहा, जो अपनी पांच दोस्तों के साथ यह खेल सीख रही हैं. “हमारे बहुत से दोस्त पोकर खेलते हैं, लेकिन कार्ड बोरिंग हो सकते हैं. महजोंग में अलग-अलग राउंड होते हैं, इसलिए इसमें वैराइटी है.”

महजोंग फैल रहा है: विदेश में आर्मी वाइव्स से लेकर घर के सर्कल तक

दिल्ली के पॉश इलाकों में महजोंग अब रेज़िडेंट वेलफेयर एसोसिएशन (आरडब्ल्यूए) ग्रुप्स तक पहुंच रहा है और मुंह-ज़ुबानी से तेज़ी से फैल रहा है.

“मैंने ‘महजोंग’ नाम तक नहीं सुना था. लेकिन जब पता चला कि इसमें टाइल्स होती हैं, तो मुझे जिज्ञासा हुई,” रिटायर्ड प्रोफेसर दिव्या रस्तोगी ने कहा, जिन्होंने गुलमोहर पार्क में मॉर्निंग वॉक के दौरान एक दोस्त से इसके बारे में जाना.

“यह बहुत मुश्किल लगा, इसलिए मैंने इसे आज़माना चाहा.”

एक पारंपरिक महजोंग सेट में 144 टाइल्स होती हैं, जिन्हें सूट्स, विंड्स, ड्रैगन्स और बोनस टाइल्स में बांटा जाता है. चार खिलाड़ी टेबल पर बैठकर टाइल्स उठाते और छोड़ते हैं ताकि 14 टाइल्स का विजयी हाथ पूरा हो सके. लेकिन इन 14 टाइल्स का कॉम्बिनेशन ही खेल को जटिल बनाता है, जिसमें अलग-अलग स्कोरिंग, बोनस और शैली के हिसाब से बदलाव शामिल हैं.

बोर्ड या कार्ड गेम्स से अलग, महजोंग को सीखना कठिन है और इसमें नए खिलाड़ियों को किसी अनुभवी खिलाड़ी की मदद ज़रूरी होती है, जैसे शतरंज में.

शालिनी भार्गव पिछले 30 साल से महजोंग खेल रही हैं और अब इस खेल की बढ़ती लोकप्रियता का मज़ा ले रही हैं. गुलमोहर पार्क स्थित अपने घर में वे तीन नए खिलाड़ियों, जिनमें रस्तोगी भी शामिल हैं, को धैर्य के साथ सिखाती हैं.

ग्रीन टी और मखानों के साथ, भार्गव अपनी “स्टूडेंट्स” के साथ दो घंटे का खेल खेलती हैं. वह उन्हें अलग-अलग हाथों की याद दिलाती हैं, कब किस टाइल को उठाना है, या कोई भूला हुआ नियम समझाती हैं.

“शुरुआत में जब मैंने खेलना शुरू किया तो इतनी जानकारी पचाना मुश्किल था,” नीना मैनी ने कहा, यह जोड़ते हुए कि 64 विजयी हाथों के कॉम्बिनेशन याद रखने होते हैं. “लेकिन आखिरकार यह एक शानदार सामाजिक अनुभव है.”

टाइल्स की खटपट, जोरदार हंसी और ग्रीन टी की चुस्कियों के बीच, भार्गव ने याद किया कि उन्होंने पहली बार कानपुर में एक टी पार्टी में यह खेल सीखा था. एक आर्मी वाइफ ने उन्हें सिखाया था, लेकिन उन्होंने इसे हाल ही में कोविड-19 महामारी के दौरान फिर से उठाया. वह मानती हैं कि भारत में यह खेल आर्मी पर्सनेल के विदेश यात्रा से आया.

“ऐतिहासिक सबूत हैं कि यह आर्मी वाइव्स से आया, जो अपने पतियों के साथ इंग्लैंड, बर्मा और दक्षिण-पूर्व एशिया गईं और यह खेल सीखा,” भार्गव ने कहा.

यह खेल सीमावर्ती शहरों जैसे धुलाबाड़ी (पश्चिम बंगाल), दीमापुर (नागालैंड) और शिलॉन्ग (मेघालय) में भी लोकप्रिय हुआ. यहां महजोंग स्थानीय बाज़ारों में भी पहुंचा.

लेकिन चाहे यह भारत में जैसे भी आया हो, एक बात साफ है: आर्मी पर्सनेल की पत्नियां इसके फैलाव में अहम रहीं. खेल की आधुनिक लोकप्रियता पर सहनी का मानना है कि सोशल मीडिया पर “अपनी मेमोरी सुधारें” जैसे विज्ञापनों ने इसमें योगदान दिया है.

“उस उम्र के लोग इतने सजग नहीं रहते और वे यह समझते हैं, इसलिए यह खेल उन्हें आकर्षित करता है,” उन्होंने कहा. डीसओआई क्लब में उनकी शिष्याएं एक खास कमरे में इकट्ठा होती हैं, जहां वे अपने परिवार के सदस्यों को खेलते देखने की यादें साझा करती हैं.

“हमारी सासें साथ बैठकर खेलती थीं, लेकिन अब हम इसे सीख रहे हैं और उन्हीं के सेट का इस्तेमाल कर रहे हैं,” 54 वर्षीय चांदनी सिंघल ने कहा, जो अपने दो दोस्तों के साथ शुरुआती टेबल पर बैठी थीं. “रिटायरमेंट के बाद हमें चाय पीने और गपशप करने से आगे कुछ चाहिए था.”

शालिनी भार्गव (दाएं) नई दिल्ली के गुलमोहर पार्क स्थित अपने घर पर महिलाओं के एक समूह को पढ़ाती हुईं | फोटो: उदित हिंदुजा | दिप्रिंट

कमरे में मौजूद सातों महिलाएं या तो आर्मी ऑफिसर की पत्नियां हैं या रिटायर्ड ऑफिसर्स की. और गुलमोहर पार्क की तरह यहां भी एक अनुभवी टीचर हैं — 57 वर्षीय अनुपमा नागपाल. वह तीन अन्य अनुभवी खिलाड़ियों के साथ टेबल संभालती हैं, जो 2016 से साथ खेल रही हैं.

दूसरे टेबल पर तीन शुरुआती खिलाड़ी बैठे हैं. “चौथे खिलाड़ी को कैंसिल करना पड़ा, जिससे हम बहुत दुखी हैं,” उनमें से एक महिला ने कहा. सभी हाथ में हस्तलिखित नोट्स पकड़े हुए हैं. ये नोट्स चीट शीट की तरह हैं, जिनमें विजयी हाथों के लिए जरूरी टाइल्स के सेट समझाए गए हैं, जैसे ‘हिटलर ब्लंडर’, ‘मिक्स्ड नूडल्स’ और ‘चाइनीज ड्रैगन’.

“शायद क्योंकि हम न्यूक्लियर फैमिलीज हैं और जब अलग-अलग जगह पोस्टिंग होती है तो कोई सपोर्ट सिस्टम नहीं होता,” नागपाल ने कहा, यह समझाते हुए कि कैसे यह खेल आर्मी वाइव्स के बीच लोकप्रिय हुआ. “महजोंग किसी तरह हमारे लिए वही सपोर्ट सिस्टम बन गया.”

नागपाल और उनकी ग्रुप ने यह खेल अलग-अलग कैंटोनमेंट टाउन्स — पठानकोट, जयपुर, जोधपुर — में सीखा, जहां उनके पति पोस्टेड थे. अब भले ही वे सभी दिल्ली-एनसीआर में रहती हैं, लेकिन वे देशभर में अपने दोस्तों से मिलने नियमित रूप से यात्रा करती हैं — कसौली (हिमाचल प्रदेश), जयपुर (राजस्थान) और दीमापुर (नागालैंड) — सिर्फ महजोंग खेलने के लिए.

शुरुआती खिलाड़ी 64 विजयी संयोजनों को याद रखने के लिए चीट शीट का इस्तेमाल करते हैं — जिनमें मिक्स्ड नूडल्स और हिटलर्स ब्लंडर शीर्षक वाले संयोजन भी शामिल हैं | फोटो: उदित हिंदुजा | दिप्रिंट

“हम सब सोशल मीडिया, टीवी चैनल्स और फोन स्क्रॉल करने तक सीमित थे,” 54 वर्षीय ऋतु मान ने कहा, जो इस ग्रुप की नई सदस्य हैं और तीन हफ्ते पहले खेल सीखना शुरू किया है. “इस तरह हम एक-दूसरे से बातचीत कर रहे हैं और बिल्कुल भी सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर रहे.”

प्राचीन सेट्स और प्राइवेट मेंबर्स क्लब्स

अपने घर पर, भार्गव सावधानी से अपने पास मौजूद प्राचीन सेट्स खोलती हैं: लकड़ी के डिब्बे जिनमें गाय की हड्डी और बांस से बनी टाइल्स हैं. हर टाइल हाथ से बनाई, तराशी और रंगी गई हैं. वह एक मैग्नीफाइंग ग्लास लेकर चीनी अक्षरों, फूलों और प्रतीकों के जटिल पैटर्न दिखाती हैं.

“इस खेल से बहुत सारा प्रतीकवाद जुड़ा है,” भार्गव ने कहा, यह साफ करते हुए कि वह इनमें से किसी प्राचीन सेट का सक्रिय रूप से इस्तेमाल नहीं करतीं. “कुछ सेट्स में इतनी खूबसूरत टाइल डिज़ाइन होती हैं कि जब आप टाइल्स को साथ रखते हैं, तो वे एक गार्डन या चीन की ग्रेट वॉल बना देते हैं.”

भारत में महजोंग सेट खरीदना भी मुश्किल है, जहां उच्च-गुणवत्ता वाले सेट्स की कीमत 20,000 रुपये से अधिक है, जबकि सिंगापुर में यह 5,000-6,000 रुपये में मिल जाते हैं. बड़ी उम्र की महिलाओं के पास पीढ़ियों से चले आ रहे सेट्स हैं या फिर उन्हें खरीदने के साधन हैं. नागपाल के पास पांच सेट्स हैं, जिनमें से ज्यादातर उन्होंने विदेश से खरीदे हैं.

“यह आभूषण की तरह है; मुझे इन्हें इकट्ठा करने में मज़ा आता है,” उन्होंने कहा.

पुनवानी ने एक सेट विदेश से मंगवाने में सफलता पाई, लेकिन वह अब भी खेलने के लिए दोस्तों या शिक्षकों पर निर्भर हैं. लेकिन खेल की बढ़ती लोकप्रियता के साथ, नागपाल का कहना है कि जल्द ही अच्छे सेट्स भारत में भी सस्ते दामों पर उपलब्ध हो जाएंगे.

भार्गव खुद को इस खेल की शुद्धतावादी मानती हैं — वह केवल पारंपरिक चीनी महजोंग सिखाती हैं और भारत में अब लोकप्रिय हो रहे “जोकर्स” और अन्य बदलाव वाले वर्ज़न को सख्ती से नापसंद करती हैं.

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