नई दिल्ली: पिछले दस साल में असहमति, उदारवादी सोच, मुक्त कलात्मक अभिव्यक्ति और संघवाद के लिए जगह कम होती जा रही है, इस बारे में बहुत चर्चा हुई है, लेकिन डॉक्यूमेंट्री फिल्म इंडस्ट्री को अक्सर अनदेखा किया जाता है.
इतिहासकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्म फिल्ममेकर उमा चक्रवर्ती ने दिल्ली में राजनीतिक डॉक्यूमेंट्री पर हुए एक कार्यक्रम में कहा, “हमारा स्पेस पहले देश भर के विश्वविद्यालय हुआ करते थे. बीते दस साल में उन पर कब्जा कर लिया गया है.” उन्होंने कहा कि अब उनके पास अपने काम के लिए कोई स्क्रीनिंग स्पेस नहीं है.
इंडिया हैबिटेट सेंटर का गुलमोहर हॉल शुक्रवार को उस समय उत्साह से सराबोर हो गया, जब इसमें फिल्म मेकिंग के स्टूडेंट्स, वालंटियर और महिला समूह सहेली की सीनियर एक्टिविस्ट ‘फिल्म्स एंड मूवमेंट जर्नीज’ के पहले दिन के प्रोग्राम में शामिल हुए. यह प्रोग्राम कृति फिल्म क्लब की 25वीं वर्षगांठ के मौके पर आयोजित तीन दिवसीय प्रोग्राम था. वक्ताओं के पैनल में सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय, महिला अधिकार कार्यकर्ता दीप्ता भोग और फिल्म निर्माता अरबाब अहमद, वाणी सुब्रमण्यम और उमा चक्रवर्ती शामिल थे.
स्ट्रीट सेंसरशिप, फंडिंग की कमी और प्रमुख फिल्म समारोहों से समर्थन की कमी ने भारत में राजनीतिक डॉक्यूमेंट्री के लिए संकट खड़ा कर दिया है. चक्रवर्ती के अनुसार, स्टूडेंट्स के साथ सामूहिक स्थान जनांदोलनों और डॉक्यूमेंट्री स्क्रीनिंग दोनों के लिए महत्वपूर्ण हैं.
“वो जगहें घट रही हैं. हमें उन्हें वापस पाने के लिए संघर्ष करना होगा.”
कोई स्क्रीनिंग नहीं, कोई चर्चा नहीं
चार प्रायोजित फिल्में बनाने के बाद, चक्रवर्ती को नई प्रोजेक्टस के लिए फंड जुटाने के लिए मुश्किलें आ रही हैं. इसलिए उन्होंने अपनी बाकी डॉक्यूमेंट्रियों को खुद ही फंडिंग करने का फैसला किया और उन्हें मज़ाकिया अंदाज़ में “पेंशन पिक्चर्स” कहा.
उन्होंने कहा, “मैंने दिल्ली में इनमें से कुछ फिल्मों की स्क्रीनिंग नहीं की है. ये ऐसी फिल्में हैं जो बहुत आलोचनात्मक हैं और अगर स्क्रीनिंग के लिए कोई जगह नहीं है, तो उनके बारे में कोई चर्चा भी नहीं होती. कोई डायलॉग, कोई बहस नहीं है.”
चक्रवर्ती ने इसे राजनीतिक डॉक्यूमेंट्री मेकर्स के लिए “संकट का पल” बताया. उन्होंने अमेरिका में किसानों के विरोध प्रदर्शन पर एक फिल्म का ज़िक्र किया, जिसके आयोजन स्थल पर “शहर के हर वामपंथी लोकतांत्रिक बंदे” की भीड़ थी.
वे इस प्रतिक्रिया से खुश थीं, लेकिन इस बात से भी दुखी थीं कि महिला आंदोलनों पर उनकी डॉक्यूमेंट्री को बिल्कुल भी तवज्जो नहीं मिली. उन्होंने कहा, “इससे उन मुद्दों पर भी असर पड़ा जिन्हें मैं उठा रही थी.”
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डॉक्यूमेंट्री ने की RTI आंदोलन में मदद
अरुणा रॉय ने सूचना के अधिकार आंदोलन में डॉक्यूमेंट्री की भूमिका पर जोर देते हुए बातचीत की शुरुआत की. उन्होंने 1994 में राजस्थान में आयोजित पहली आरटीआई जन सुनवाई के “अविश्वसनीय रंगमंच और नाटक” को याद किया. यह एक पंचायत द्वारा आधिकारिक तौर पर अपने कागज़ी काम में एक इमारत को पूरा घोषित करने के मुद्दे पर केंद्रित था. हालांकि, वास्तविकता उन लोगों को दिखाई दे रही थी जो मौके पर मौजूद थे — एक डगमगाता हुआ, अधूरा ढांचा जिसमें कोई दरवाजे और खिड़कियां नहीं थीं.
इस बड़ी विडंबना को बतौर फिल्म कैप्चर किया जाना था. इसलिए डॉक्यूमेंट्री मेकर अनुराग सिंह ने आंदोलन में विरोध प्रदर्शनों, भजन मंडलियों और सुनवाई को कैप्चर किया. रॉय ने सिंह के काम के बारे में कहा, “आज यह न केवल महत्वपूर्ण (अभिलेखीय) कंटेंट है, बल्कि यह बहुत शक्तिशाली विजुअल कंटेंट है.”
इसलिए, डॉक्यूमेंट्री न केवल सबूत थी, बल्कि संचार का एक जरिया भी थी, जिसने “अपरिवर्तित दर्शकों” तक पहुंचकर आंदोलन को मजबूत किया, जैसा कि सूत्रधार (संचालक) आंचल कपूर ने उन्हें कहा था.
हालांकि, अरबाब अहमद ने कहा कि वे आंदोलन को अलग तरह से देखते हैं. उनकी डॉक्यूमेंट्री इनसाइड्स एंड आउटसाइड्स ने शाहीन बाग विरोध प्रदर्शनों की सहयोगी सामाजिक भावना को दर्शाया है और कैसे इसने कोविड-19 लॉकडाउन के दमनकारी अलगाव को जन्म दिया. अपनी फिल्म के संदर्भ में बोलते हुए, उन्होंने कहा कि वे ‘आंदोलन’ को उस पलायन के रूप में देखते हैं जो मुसलमानों को ऐतिहासिक रूप से हिंसा से बचने के लिए मजबूर किया जाता था, जिसने उन्हें छोटे-छोटे इलाकों में धकेल दिया.
अहमद के लिए विरोध का मतलब था, जबरन आंदोलन के सामने अपनी ज़मीन पर खड़े रहना. इनसाइड्स एंड आउटसाइड्स में एक मार्मिक सीन में उन्हें एक बंद कमरे में दिखाया गया है — भीड़ द्वारा मारे गए मुस्लिम व्यक्तियों के नाम पढ़ते हुए और उनके लिए दुआ पढ़ते हुए. जब वे दुआ पढ़ रहे थे, तो उनकी मां ने उनके दरवाज़े पर दस्तक देना शुरू कर दिया और उनका नाम तेज़ी से पुकारना शुरू कर दिया. व्यक्तिगत, सचमुच, राजनीतिक पर हावी हो गया था.
‘डॉक्यूमेंट्री बनाना मुश्किल और दर्दनाक’
इनसाइड्स एंड आउटसाइड्स बनाना अहमद के लिए एक अलग अनुभव था. यह डॉक्यूमेंट्री “मिटाने के युद्धपथ” पर चल रहे राज्य तंत्र के खिलाफ अपनी पहचान को मानवीय बनाने की उनकी कोशिश थी. उन्होंने अन्य मुस्लिम फिल्म मेकर्स से मुलाकात की, जिनका भी ऐसा ही अनुभव रहा था. अहमद ने कहा, “अलगाव में हर कोई समझ गया कि उनकी कहानियां मायने रखती हैं.”
फिल्म मेकर वाणी सुब्रमण्यम इस बात से सहमत थीं कि डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकिंग (मुझे लगता है कि डॉक्यूमेंट्री बनाना सही नहीं है) एक मुश्किल प्रक्रिया है. उन्होंने फिल्म मेकर्स द्वारा राजनीतिक डॉक्यूमेंट्री में संबोधित मुद्दों का ज़िक्र करते हुए कहा, “यह एक बहुत ही दर्दनाक अनुभव है.”
उन्होंने यह भी कहा कि वे कभी भी डॉक्यूमेंट्री को वस्तुनिष्ठ रूप से नहीं देखती हैं. असमानताओं को दिखाते हुए वे हमेशा कुछ आवाज़ों को बढ़ाती हैं और एक निश्चित दृष्टिकोण पर रुकती हैं. “फिल्म केवल (एक पल) को डॉक्यूमेंट करने का माध्यम नहीं है, बल्कि प्रतिबिंब, विश्लेषण — खुद को फिर से देखने का दस्तावेज़ीकरण भी है.”
सुब्रमण्यम ने यह भी उल्लेख किया कि “पल” — समय, स्थान और सेटिंग — जिसमें दर्शक फिल्म को देखते हैं, उसे एक नया अर्थ दे सकता है. लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद अयोध्या पर बनी मौजूदा डॉक्यूमेंट्रीज़, जैसे कि उनकी 2007 की फिल्म अयोध्या गाथा, को अलग तरह से देखा जाएगा.
चुनाव के फैसले के ज़िक्र पर दर्शकों ने तालियां बजाईं. क्या उन्होंने भविष्य को लेकर अपनी उत्सुकता साझा की? सुब्रमण्यम ने शांत भाव से टिप्पणी की कि लड़ाई अभी शुरू हुई है.
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