मेलघाट (महाराष्ट्र): इस साल सितंबर में चिखलदरा तहसील के कुलांगना गांव की अंजलि कासडेकर ने अपने जुड़वा बच्चों में से एक को जन्म के 14 दिन के भीतर खो दिया. उसका वजन सिर्फ 1.4 किलो था.
पास के जामली आर गांव में, किरण कासडेकर ने अपनी तीन महीने की बेटी कावेरी को इस साल अप्रैल में सेप्सिस और गंभीर डिहाइड्रेशन की वजह से खो दिया.
चिखलदरा की पहाड़ियों के भीतर स्थित गिरगुटी गांव में प्रमिला बेलसरे के चार साल के बेटे आतिश की इस साल जून में गंभीर कुपोषण के कारण पेट फूलने की समस्या से मौत हो गई.
सतपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाओं के दूसरी तरफ, धारणी तहसील के चौराकुंड गांव की तारा सावरकर ने सितंबर में अपने एक महीने के बच्चे को निमोनिया और हाइपोग्लाइसीमिया की वजह से खो दिया.
यह मेलघाट की माताओं की कहानी है. यह इलाका विदर्भ के अमरावती जिले में मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है और 2,768 वर्ग किलोमीटर के सुरक्षित टाइगर रिजर्व का घर है.
चिखलदरा और धारणी तहसीलों में फैला यह इलाका ऊंची पहाड़ियों, गड्ढों वाली घुमावदार सड़कों, गहरी घाटियों, अनियमित बिजली और बहुत कमजोर मोबाइल नेटवर्क के लिए जाना जाता है. यहां अप्रैल से अब तक छह साल तक की उम्र के कम से कम 94 बच्चों की मौत हुई है और 46 बच्चे कुपोषित हुए हैं.

चिखलदरा के आंकड़े तहसील स्वास्थ्य अधिकारी के कार्यालय से हैं और तहसील में दर्ज सभी बच्चों की मौत शामिल करते हैं. धारणी के आंकड़े उसके उप-जिला अस्पताल से हैं और PHC तथा सब-सेंटर में दर्ज मौतें इसमें शामिल नहीं हैं.
इलाके में काम कर रहे डॉक्टरों का कहना है कि संस्थागत प्रसव बढ़ने के बावजूद बच्चों की मौतों की संख्या चौंकाने वाली है.
चिखलदरा के तहसील स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. चंदन पिंपरकर, जो आठ साल से मेलघाट की पहाड़ियों में काम कर रहे हैं, कहते हैं, “समस्या यह है कि अगर कुआं ही खाली है तो पानी कैसे निकालोगे. माताएं खुद खराब स्वास्थ्य में हैं और इसी कारण उनके बच्चे भी कमजोर हैं.”
इन माताओं में ज्यादातर कोरकू जनजाति की हैं, जो मेलघाट की 80 प्रतिशत आबादी का हिस्सा है. अधिकांश महिलाएं गंभीर रूप से एनीमिक हैं. डॉक्टरों के अनुसार, मेलघाट की महिलाओं का औसत हीमोग्लोबिन स्तर 7-8 ग्राम/डीएल है, जबकि सामान्य वयस्क महिलाओं के लिए यह 12-15 ग्राम/डीएल माना जाता है. गर्भवती महिलाओं में यह स्तर और भी गिरकर 5-6 ग्राम/डीएल हो जाता है.
यहां बाल विवाह आम है, और कई युवा माताएं बहुत जल्दी-जल्दी गर्भवती हो जाती हैं, अक्सर दो गर्भों के बीच कुछ ही महीनों का अंतर होता है. गर्भ से लेकर स्तनपान तक, महिलाएं अपने परिवारों के साथ महाराष्ट्र के दूर-दराज इलाकों में ईंट भट्टों पर आधे साल से भी ज्यादा समय तक काम करती हैं, जिससे उनके पोषण पर भारी असर पड़ता है.
कुलानगना गांव की 2018 से ASHA कार्यकर्ता अविता बेलसरे कहती हैं, “कई बार गर्भ की जानकारी देर से मिलती है क्योंकि महिलाएं हर साल पलायन करती हैं. सोनोग्राफी देर से होती है और महिलाएं आराम या पोषण नहीं ले पातीं.”
इस स्थिति को और खराब बनाता है यहां का बेहद कमजोर चिकित्सा ढांचा, डॉक्टरों की बड़ी कमी, और जनजातीय समुदाय समेत सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों के बीच भाषा, संस्कृति और जीवनशैली का बड़ा अंतर.

पिछले कई दशकों में मेलघाट में बच्चों की अधिक मौतों को लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट में कई जनहित याचिकाएं दायर हुई हैं, और कई पीठों ने इस पर सुनवाई की है. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि मौतों की संख्या कम तो हुई है, लेकिन स्थिति अब भी चिंताजनक है.
इस महीने, न्यायमूर्तियों रेवती मोहिते डेरे और संदीश पाटिल की पीठ ने राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई, उसके रवैये को “बेहद लापरवाह” बताया और मौतों को “भयावह” कहा.
अब अदालत ने स्वास्थ्य सचिव निपुण विनायक, आदिवासी विकास सचिव विजय वाघमारे और महिला एवं बाल विकास सचिव अनूप कुमार यादव सहित वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के दल को 5 दिसंबर को मेलघाट का दौरा करने और 18 दिसंबर तक रिपोर्ट देने का निर्देश दिया है.
मेलघाट के पास स्थित NGO ‘खोज’ चलाने वाले याचिकाकर्ता बीएस ने कहा, “मामला पहली बार 1993 में अदालत गया था और 1997 में आदेश जारी हुआ था. तब से अधिकारी और नेता कई बार घूमने आए हैं. कई रिपोर्टें बनाई गईं. लेकिन हम बच्चों की मौतें रोक नहीं पाए.”
उनका कहना है कि समस्या को हल करने के लिए सभी विभागों को मिलकर जमीन पर शारीरिक, सामाजिक और चिकित्सा ढांचे में सुधार करना होगा.
उन्होंने कहा, “चूंकि ज्यादातर मौतें कोरकू समुदाय में हो रही हैं, इसलिए उनकी भाषा, संस्कृति और सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखकर एक लक्षित योजना बनाना जरूरी है.”
पलायन का असर
अविता बेलसरे, जिन्हें लोग प्यार से “आशा ताई” कहते हैं, गांव की हर महिला के मासिक चक्र का रजिस्टर रखती हैं. वह अनुमानित तारीख के आसपास हर महिला को फोन करती हैं. अगर माहवारी शुरू हो जाए तो तारीख नोट करती हैं, नहीं हुई तो महिला को परीक्षण कराने की सलाह देती हैं.
इसी तरह बेलसरे को पता चला कि 22 साल की अंजलि कासडेकर दूसरी बार गर्भवती है, जबकि उसका पहला बच्चा सिर्फ 19 महीने का था.
“वह अपने बेटे को लेकर ईंट भट्ठे पर काम करने गई थी. मैंने पूछा कि क्या माहवारी आई. उसने ‘नहीं’ कहा. डेढ़ महीने हो चुके थे,” बेलसरे ने कहा.

उन्होंने अंजलि को लगातार फोन कर दो महीने तक समझाया. आखिरकार अंजलि कुलांगना लौटी, PHC में पंजीकरण कराया और शुरुआती जांचें कराईं. वह जुड़वा बच्चों को गर्भ में लिए थी.
अगले ही दिन वह फिर ईंट भट्ठे चली गई और चौथे महीने के बाद ही लौटी. सातवें महीने के आसपास उसे तेज खांसी-जुकाम हुआ और उसने समय से पहले डिलीवरी कर दी.
कम वजन के ये समयपूर्व जन्मे बच्चे अमरावती जिले के अचलपुर में नवजात शिशु देखभाल केंद्र ले जाए गए, लेकिन उनमें से एक, जिसे अंजलि प्यार से ‘बल्या’ कहती थी, बच नहीं सका.
घटना के तीन महीने के भीतर ही अंजलि फिर अपने पति और 2.5 महीने के समयपूर्व जन्मे बच्चे के साथ ईंट भट्ठे पर काम कर रही है.
मेलघाट में कृषि प्रमुख आजीविका है. यहां 324 गांव और 3.24 लाख आबादी है. बारिश अच्छी होती है. छोटे किसान बारिश में सोयाबीन या मक्का की एक फसल लेते हैं, जो साल भर का खर्च नहीं चला पाती. इसलिए मानसून खत्म होते ही परिवार काम की तलाश में पलायन करते हैं.
खोज की सामाजिक कार्यकर्ता उषा बेलसरे कहती हैं, “ईंट भट्ठों पर जीवन बेहद कठिन होता है. महिलाएं गर्भावस्था और प्रसवोत्तर में भी कठिन श्रम करती हैं. ऐसे में भोजन, पोषण और स्वास्थ्य सबसे पीछे रह जाते हैं.”
2021 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने नागपुर में तैनात तत्कालीन विशेष पुलिस महानिरीक्षक डॉ. छेरिंग डोरजी को मेलघाट जाकर रिपोर्ट देने को कहा. उन्होंने सात दिन वहां रहकर 36 पन्नों की विस्तृत रिपोर्ट दी, जिसमें पलायन को मुख्य कारणों में गिना.

उनके सुझावों में यह शामिल था कि ऐसी व्यवस्था हो जिससे पलायन करने वाली गर्भवती महिलाएं नजदीकी किसी भी आंगनवाड़ी केंद्र से पोषण लाभ ले सकें.
‘अमृत आहार’ योजना के तहत सरकार हर गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिला के लिए आंगनवाड़ी से पूरा भोजन देने के लिए 45 रुपये तय करती है. बच्चों को भी आंगनवाड़ी में पूरक पोषण मिलता है.
डोरजी की रिपोर्ट पर मिशन मेलघाट समिति—जो 2019 में बनी—ने चर्चा की, लेकिन ज्यादातर सुझाव जमीन पर लागू नहीं हुए.
फरवरी 2022 में समिति ने हर महिला को ‘माइग्रेशन कार्ड’ देने का फैसला किया ताकि उसके पलायन और स्वास्थ्य की निगरानी हो सके, लेकिन यह भी लागू नहीं हुआ.
एक मेडिकल अधिकारी का कहना है, “पलायन के दौरान गर्भवती महिलाओं को पोषण और विटामिन मिल रहे हैं या नहीं, इसका कोई तंत्र नहीं है.”
उन्होंने कहा, “केंद्र सरकार का ‘पोषण ट्रैकर’ ऐप यहां प्रभावी नहीं हो पाया है और यह पब्लिक हेल्थ सिस्टम से जुड़ा नहीं है. हमें यह पता नहीं चल पाता कि महिला कहां गई, बच्चों को साथ ले गई या नहीं, और क्या उन्हें वहां किसी आंगनवाड़ी में निगरानी मिल रही है.”

मिशन मेलघाट समिति की अब तक 16 बैठकें हो चुकी हैं. इसके अलावा 2013 में बनी ‘गाभा समिति’ की भी 31 बैठकें हो चुकी हैं, जो महाराष्ट्र के आदिवासी इलाकों में बच्चों की मौतों की समीक्षा करती है.
स्थानीय रोजगार के अवसरों की कमी
मार्च 2021 में, चिखलदरा तालुका के गर्गुटी गांव की प्रमिला बेलसारे ने स्थानीय टेम्ब्रुसोंडा पीएचसी में 2.8 किलोग्राम के स्वस्थ बेटे को जन्म दिया था. अगले चार साल तक वह हर साल अपने पति और बेटे आतिश के साथ अमरावती शहर के पास ईंट भट्ठे में काम करने के लिए माइग्रेट करती रहीं.
प्रमिला और उनके बेटे का पोषण बिगड़ गया और जो आतिश एक स्वस्थ शिशु था, धीरे-धीरे कुपोषित बच्चा बन गया.
चार साल तीन महीने की उम्र में उसका वजन सिर्फ 9.7 किलोग्राम था, जबकि उसकी उम्र के लड़कों का औसत वजन 16.7 किलोग्राम होता है. इस साल जून में, आतिश की मौत पेट में सूजन की वजह से हो गई. “हमें नहीं पता वह उसे क्या खिलाती थी या वह खुद क्या खाती थी,” प्रमिला के देवर हरीचंद बेलसारे ने कहा.
मेलघाट में परिवार फसल के मौसम से पहले कर्ज लेते हैं और उन्हें चुकाना होता है. ईंट भट्ठे अच्छी कमाई देते हैं.
“औसतन, जो लोग माइग्रेट करते हैं और ईंट भट्ठों में काम करते हैं, वे 6-7 महीनों में लगभग 40,000 से 60,000 रुपये लेकर लौटते हैं. कुछ परिवार, जिनके अधिक सदस्य काम करते हैं, 1 लाख रुपये तक भी कमा लेते हैं,” हरीचंद ने कहा.
डोरजी ने 2021 की अपनी रिपोर्ट में मेलघाट में रोजगार के अवसर बनाने की जरूरत पर जोर दिया था ताकि स्थानीय आबादी को काम के लिए माइग्रेट न करना पड़े.
रिपोर्ट के अनुसार, “इन क्षेत्रों में विभिन्न सरकारी योजनाएं हैं, ग्राम पंचायत, वन विभाग, कृषि, बागवानी आदि से जुड़े काम हैं जहां लोगों को जीविका कमाने के लिए पर्याप्त काम दिया जा सकता है. इन कमजोर समूहों को रोजगार देने से न केवल उन्हें आर्थिक लाभ मिलेगा बल्कि गर्भावस्था के दौरान स्वास्थ्य सेवाएं और आंगनवाड़ी में मुफ्त पोषण सप्लीमेंट भी मिलेंगे.”

स्थानीय लोगों का कहना है कि अब मनरेगा के तहत काम उपलब्ध है और 312 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी भी ठीक है. लेकिन अक्सर भुगतान में देरी होती है, इसलिए अधिकांश ग्रामीण यह काम नहीं लेते.
राज्य के सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग की ‘बुदित मजूरी योजना’ भी है, जो एससी, एसटी और बीपीएल की गर्भवती महिलाओं को काम के नुकसान की भरपाई के लिए बनाई गई है.
इस योजना के तहत पात्र महिलाओं को गर्भावस्था के सातवें महीने से प्रति माह 2,000 रुपये मिल सकते हैं. लेकिन मैदान पर इस योजना की जागरूकता बहुत कम है और यह शुरुआती महीनों में भारी मेहनत और पोषण की कमी की समस्या को हल नहीं करती.
“इसके अलावा, कई मामलों में ईंट भट्ठों में काम करना बंधुआ मजदूरी जैसा हो गया है. लोग भट्ठा मालिकों से कम ब्याज पर कर्ज लेते हैं और कर्ज चुकाने के लिए वहां वापस काम पर जाना पड़ता है,” खोज संस्था के साने ने कहा.
उन्होंने कहा कि मेलघाट टाइगर रिजर्व के आसपास पर्यटन के विकास से भी स्थानीय लोगों को रोजगार और आर्थिक अवसरों के रूप में बहुत फायदा नहीं हुआ है. “कुछ होम-स्टे और जनजातीय गांव अनुभव जैसी चीजें बनी हैं, लेकिन बस वहीं तक.”
गरीब मेलघाट में, वे गर्भवती महिलाएं भी कुपोषित रहती हैं जो माइग्रेट नहीं करतीं. स्थानीय तंबाकू और शराब की लत बहुत आम है. आंगनवाड़ी का पोषण सप्लीमेंट घर ले जाने वाला राशन होता है, जो अक्सर परिवार में बांट दिया जाता है. डोरजी रिपोर्ट ने भी इन दोनों बातों को नोट किया था.
पिछले हफ्ते गुरुवार को, डॉ. पिंपलकर अपने क्षेत्र के एक गांव के दौरे से लौटे थे. उन्होंने एक गर्भवती महिला को खेत में काम करते और तंबाकू चबाते देखा.
“उसने कहा कि उसे हमेशा भूख लगती है. तंबाकू से, उसने कहा, उसकी भूख दब जाती है. जब मैंने उससे सप्लीमेंटरी न्यूट्रिशन के बारे में पूछा, तो उसने कहा ‘वह उसे अपने पति के साथ बांटती है’. उसका पति उससे पहले खाता है और फिर वह बचा हुआ खाती है,” डॉ. पिंपलकर ने कहा.
सांस्कृतिक दूरी, अविश्वास और टल सकने वाली मौतें
इस साल अप्रैल से, धारणी जिले के हरिसाल गांव के पीएचसी—जो भारत के पहले डिजिटल गांवों में से एक था, लेकिन जहां अब लगभग सभी डिजिटल सेवाएं, जिसमें हेवलेट पैकार्ड की टेलीमेडिसिन सेवा भी शामिल है, खराब हो चुकी हैं—ने छह साल से कम उम्र के आठ बच्चों की मौत दर्ज की है.
धारणी और चिखलदरा के तालुका स्वास्थ्य अधिकारी अपने क्षेत्रों में बाल मृत्यु के कारणों की समीक्षा करते हैं और भविष्य के लिए सुझाव देते हैं.
हिरिसाल की इन मौतों पर दर्ज टिप्पणियों के अनुसार, इनमें से तीन मौतें “सही काउंसलिंग” से रोकी जा सकती थीं. एक मामले में माता-पिता ने इलाज से इनकार कर दिया था. अन्य मामलों में एनॉमली स्कैन और समय पर रेफरल की कमी देखी गई.

कुर्कू जनजाति के लोगों और मेलघाट में बाहर से आए पब्लिक हेल्थ स्टाफ के बीच सांस्कृतिक और भाषाई अंतर बहुत ज्यादा है. अगर किसी परिवार के एक बच्चे की अस्पताल में जन्म के दौरान मौत हो जाती है, तो वे अगली बार वहां जाने से हिचकते हैं.
उदाहरण के लिए, कुलंगना गांव की अंजलि के मामले में, एक रात उसके पति ने अविता बेलसारे के घर आकर दरवाजा खटखटाया.
“वह मुझ पर चिल्लाया और मुझे ही उसकी मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया, कहता था कि अगर मैं अंजलि को मुख्य अस्पताल अचलपुर न ले जाती, तो उसका बेटा जिंदा होता,” अविता ने कहा.
कुर्कू समुदाय ‘भूमका’ पर विश्वास करता है, जो जनजाति के ऐसे सदस्य होते हैं जो खुद को स्वास्थ्य कर्मी बताते हैं, लेकिन तांत्रिक तरीकों पर भरोसा करते हैं.
“अगर मामूली खांसी, जुकाम या बुखार है, तो ग्रामीण स्थानीय डॉक्टर के पास चले जाते हैं. लेकिन अगर समस्या थोड़ी गंभीर है, जैसे बच्चे को तेज खांसी के दौरे आ रहे हों या झटके लग रहे हों, तो वे मानते हैं कि यह कुछ और है और भूमका के पास जाते हैं, जो अक्सर कहते हैं कि बच्चे पर किसी आत्मा का साया है,” हरिसाल पीएचसी की मेडिकल ऑफिसर डॉ. वैश्णवी हरने ने कहा.
स्थानीय पब्लिक हेल्थ सिस्टम ने पहले भूमका को पूरी तरह खारिज किया था, लेकिन अब धीरे-धीरे उनकी सांस्कृतिक भूमिका को समझना शुरू किया है. डॉक्टर और आशा कार्यकर्ता अभी भी मरीजों को अस्पताल जाने के लिए मनाते हैं, लेकिन वे भूमका के समूहों के लिए कार्यशालाएं भी आयोजित करने लगे हैं ताकि उन्हें बुनियादी चिकित्सा प्रथाओं और रेफरल के महत्व के बारे में बताया जा सके.

डॉक्टरों का कहना है कि इन कार्यशालाओं से अभी तक ठोस परिणाम नहीं निकले हैं, लेकिन यह दूरी कम करने की दिशा में एक कदम है.
कुछ डॉक्टर, जैसे कि पास के बुलढाणा जिले से आए डॉ. पिंपलकर, ने जनजाति की भाषा भी सीख ली है. लेकिन फिर भी कई बातें अनुवाद में खो जाती हैं और अविश्वास रह जाता है. सरल मामलों में भी दुर्भाग्यपूर्ण मौतें हो जाती हैं.
पिछले हफ्ते गुरुवार को, धारणी के चौराकुंड गांव की तारा जवर्कर ने बड़ी झिझक के साथ बताया कि उन्होंने 12 अगस्त को पैदा हुई 2.5 किलोग्राम की अपनी बेटी को 20 दिनों के भीतर कैसे खो दिया.
आशा ताई और स्थानीय सब-सेंटर की एएनएम की सलाह पर जवर्कर ने गर्भावस्था में फॉलिक एसिड और कैल्शियम की गोलियां लीं, सोनोग्राफी करवाई और धारणी के सब-डिस्ट्रिक्ट अस्पताल में संस्थागत प्रसव कराया. फिर वे अपनी मां के गांव चली गईं.
“हर बार जब मैं स्तनपान कराने की कोशिश करती, बच्ची मेरे निप्पल को जोर से काटती. वह चार-पांच दिनों तक शौच नहीं करती थी. मुझे मालूम था कि कुछ गड़बड़ है,” जवर्कर ने कहा. उन्होंने डॉक्टर को भी दिखाया था. फिर एक दिन, भूमका के पास जाते हुए उनकी बेटी की मौत हो गई.
डॉक्टरों ने न्यूमोनिया को आधिकारिक कारण बताया, लेकिन स्थानीय कुर्कू समुदाय से आई एएनएम इंदु बिलावलकर ने कहा कि डॉक्टरों ने बताया था कि बच्ची हाइपोग्लाइसीमिक थी और उसे पर्याप्त ग्लूकोज़ नहीं मिल रहा था क्योंकि स्तनपान में दिक्कत थी.
जवर्कर का मामला उन तीन मामलों में से था जिनमें हरिसाल पीएचसी ने “सही काउंसलिंग” की जरूरत बताई थी.
पिछले कुछ वर्षों से, मेलघाट के डॉक्टर ‘मिशन 28’ योजना का पालन कर रहे हैं, जिसमें लक्ष्य है कि प्रसव से पहले 28 दिनों तक रोज़ गर्भवती महिला की जांच की जाए और प्रसव के बाद 28 दिनों तक भी. इसका उद्देश्य ऐसी मौतों को रोकना और संस्थागत प्रसव बढ़ाना है.
डॉ. हरने को विश्वास है कि यदि जवर्कर प्रसव के बाद चौराकुंड में होतीं, तो उन्हें समय पर मदद मिल जाती. “वह दूसरे गांव चली गई थीं इसलिए हमारी आशा कार्यकर्ता उन तक पहुंच नहीं पाईं,” उन्होंने कहा.
‘मिशन 28’ ने एक और दुखद कारण—दूध से दम घुटने—से होने वाली मौतों को कम करने में भी मदद की है.
“पिछले साल जब मैंने जॉइन किया, एक मामला आया जहां एक महिला ने अपने बच्चे को दूध पिलाकर चारपाई पर झूले जैसी जगह पर सुला दिया. उसके पास मदद नहीं थी और वह घर के कामों में लग गई. बच्चा दूध में दम घुटने से मर गया. तब से मैंने हर आशा ताई को कहा है कि हर मरीज को ठीक से काउंसल करें कि बच्चे को दूध पिलाने के बाद सीधा पकड़कर डकार दिलाना कितना जरूरी है,” डॉ. हरने ने कहा. उन्होंने बताया कि इस साल उनके इलाके में दूध से दम घुटने की एक भी मौत नहीं हुई है.
लेकिन कुल मिलाकर मेलघाट में यह समस्या बनी हुई है.
चिखलदरा तालुका में, अप्रैल से अब तक छह साल से कम उम्र के 59 बच्चों की मौत में से 5 मौतें दूध से दम घुटने के कारण हुईं. धारणी के आंकड़े तुरंत उपलब्ध नहीं थे.
एक घाटे वाली ‘पनिशमेंट पोस्टिंग’
यह खुला राज है कि डॉक्टर मेलघाट को एक तरह की पनिशमेंट पोस्टिंग (सज़ा में मिली पोस्टिंग) मानते हैं. इसके पीछे कारण सिर्फ इतना नहीं है कि उन्हें घने जंगल वाले आदिवासी इलाके की बुनियादी मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं. घरों और स्वास्थ्य केंद्रों में सांप और बिच्छू आम हैं, ऊबड़-खाबड़ सड़कें, खराब बिजली और मोबाइल नेटवर्क से जूझना रोज़मर्रा की बात है. लेकिन इन सबके अलावा, कम बजट और देर से मिलने वाले भुगतान डॉक्टरों के लिए काम करना और मुश्किल बना देते हैं.
पिछले गुरुवार सुबह करीब 9 बजे, चिखलदरा के सीमादोह पीएचसी में एक महिला बड़े बर्तन में चावल और दाल मिलाकर खिचड़ी बना रही थी. आधे घंटे पहले ही उसने 50 से ज़्यादा छोटे कप चाय बनाई थी, जो वहां मौजूद मरीजों और उनके परिजनों को कागज़ के छोटे कपों में दी जा रही थी. पीएचसी में “परिवार नियोजन” शिविर लगा था, जहां आसपास के गांवों की आदिवासी महिलाओं को नसबंदी या ट्यूबल लिगेशन कराने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था.
नाम न छापने की शर्त पर पीएचसी की एक सहायक ने कहा, “सरकार की तरफ से खाने के लिए प्रति मरीज प्रति दिन बजट मंजूर है, लेकिन हमें फंड नहीं मिला है. यह चाय और खिचड़ी इसलिए बनी है क्योंकि यहां के स्टाफ ने अपने पैसे मिलाए हैं,”
स्टाफ ने मरीजों के परिजनों के लिए गद्दे और कंबल की व्यवस्था भी अपने पैसों से की है.
सरकार हर मरीज के लिए रोज़ 200 रुपये देती है, लेकिन पीएचसी स्टाफ के मुताबिक यह रकम मरीजों और उनके परिजनों के आने-जाने, खाने और ठहरने के खर्च के लिए बहुत कम है.
“परिवार नियोजन शिविर के लिए हमें तीन बार बाहर से सर्जन बुलाना पड़ा. सरकार ने सर्जन को लाने-ले जाने के लिए 200-300 रुपये की मंजूरी दी है. यह दर कई साल पहले तय हुई थी और तब से ईंधन की कीमतें बहुत बढ़ चुकी हैं. मेलघाट की दूरियां और खराब सड़कें सर्जन को लाने में खर्च बढ़ा देती हैं. हमने तीनों बार प्रति यात्रा 1,600 रुपये खर्च किए. कुल 4,800 रुपये हमारी जेब से गए,” एक स्टाफ सदस्य ने बताया.

अचानक बिजली चली गई और जनरेटर चालू करना पड़ा, जिसके लिए ईंधन भी स्टाफ ने खुद खरीदा. वे ऑपरेशन थियेटर में बिजली जाने का जोखिम नहीं उठा सकते.
पीएचसी के मेडिकल ऑफिसर, डॉ. महेंद्र नाडे, जो आठ महीने से मेलघाट में हैं, अब तक अपनी जेब से 37,000 रुपये खर्च कर चुके हैं. “सरकार बजट जारी करेगी तो कुछ रकम वापस मिलेगी, लेकिन मेलघाट में काम कर चुके हर डॉक्टर को कुछ न कुछ पैसा अपनी तरफ से ही छोड़ना पड़ता है,” उन्होंने कहा.
इन कठिन परिस्थितियों की वजह से कोई डॉक्टर मेलघाट में नौकरी नहीं करना चाहता. काम का बोझ भारी है और हर समय बड़ी संख्या में पद खाली रहते हैं.
उदाहरण के लिए, सीमादोह पीएचसी के तहत सात सबसेंटर होने चाहिए, जिनमें से एक काम नहीं कर रहा. बाकी छह में से तीन में समुदाय स्वास्थ्य अधिकारी का पद खाली है.
हरिसाल पीएचसी में भी यही हाल है. वहां 10 सबसेंटर हैं, जिनमें से पांच में समुदाय स्वास्थ्य अधिकारी नहीं हैं.
धरनी का 50-बेड वाला उपजिला अस्पताल किसी भी समय 150-200 मरीजों को संभालता है. कभी-कभी डॉक्टरों को नए मरीजों के लिए जगह बनाने के लिए मरीजों को समय से पहले छुट्टी देनी पड़ती है.
“2021-22 में पास के प्लॉट पर दूसरा 50-बेड वाला अस्पताल मंजूर हुआ था. कागज़ों में जमीन भी मिली है, लेकिन वहां पशु चिकित्सालय है, जिसे पहले हटाना होगा. उसके लिए बजट मंजूर नहीं हुआ है,” अस्पताल के मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉ. डी.बी. जवर्कर ने बताया.
नवंबर के पहले 15 दिनों में ही धरनी उपजिला अस्पताल में दो नवजात और एक गर्भवती महिला की मौत दर्ज हुई है. हर घटना के लिए मेडिकल कारण दर्ज हैं, लेकिन डॉ. जवर्कर इन मौतों को लेकर व्यथित हैं.
“कभी-कभी चिकित्सा में ऐसी दुखद, अनजानी मौतें हो जाती हैं. लेकिन ऐसा बार-बार नहीं होना चाहिए,” उन्होंने कहा.
उधर, मेलघाट की पहाड़ियों में माताओं का दुख इतना आम और लगातार है कि जैसे उसका दर्द सुन्न पड़ गया हो.
पिछले बुधवार, जमली आर गांव में मीना पटवे, जो स्थानीय आशा ताई हैं, किरन कसडेकर के घर पहुंचीं. पटवे को उनकी तीन महीने की बच्ची, कावेरी की मौत से जुड़े कुछ विवरण दर्ज करने थे. “तेरा ही बच्चा मरा न?” पटवे ने दरवाज़े के बाहर से पूछा.
किरन अपने तीन साल के बेटे को लेकर धीमे से मुस्कुराते हुए बाहर आईं और हां में सिर हिला दिया.
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