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Monday, 2 December, 2024
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‘वीज़ा संकट, कम छात्रवृति और विरोध’, कैसे साउथ एशियन यूनिवर्सिटी मनमोहन सिंह के सपने से दूर जा रहा है

2010 में अपनी स्थापना के बाद से साउथ एशियन यूनिवर्सिटी कई विवादों में रहा है. सबसे हालिया विवादों में छात्रों द्वारा यूनिवर्सिटी प्रशासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और संकाय का निलंबन शामिल है.

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नई दिल्ली: स्थापना के तेरह साल बाद आज साउथ एशियन यूनिवर्सिटी (SAU) में अंतरराष्ट्रीय छात्रों के नामांकन की संख्या में गिरावट देखी जा रही है. इस यूनवर्सिटी की कल्पना पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन के सदस्य देशों से आने वाले छात्रों को उन्नत बनाने के लिए एक प्रगतिशील क्षेत्रीय मंच के रूप में की थी. 

नवंबर 2005 में ढाका में 13वें SAARC शिखर सम्मेलन के दौरान इसकी घोषणा की गई थी जबकि इसकी स्थापना 2010 आठ सदस्य देशों- अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका की सहमति से की गई थी. SAU अर्थशास्त्र, कंप्यूटर विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी, गणित, समाजशास्त्र, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, कानून तथा अन्य विषयों में स्नातकोत्तर और डॉक्टरेट कार्यक्रम प्रदान करता है. 

यूनिवर्सिटी की लोकप्रिया में गिरावट का प्रमाण इस तरह माना जाता है कि साल 2024 में इस यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए जारी की गई मेरिट सूची में गिरावट देखी गई. छह स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों- जैव प्रौद्योगिकी, कानूनी अध्ययन, गणित, समाजशास्त्र, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और अर्थशास्त्र में प्रवेश के लिए जारी दूसरे राउंड में लिस्ट में सिर्फ भारतीय छात्रों के नाम आते हैं. एकमात्र अपवाद समाजशास्त्र में पीएचडी है, जिसमें एक छात्र नेपाल से और दूसरा बांग्लादेश से मेरिट लिस्ट में शामिल था. 

नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट से बात करते हुए, SAU से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर रहे भूटान के एक 29 वर्षीय छात्र ने कहा कि उनके दो बैचमेट पिछले साल छात्रों के विरोध प्रदर्शन करने के दौरान बाहर हो गए थे.

उन्होंने कहा, “यहां आने वाले सभी अंतर्राष्ट्रीय छात्र अपने देशों के टॉपर्स हैं. हमें लगता है यहां क्षेत्रीय सहयोग की भावना से यहां हमारे साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाएगा. अब, मैं कम छात्रवृति और प्रशासन के खराब रवैये को देखते हुए अपने देश के किसी भी छात्र को यहां आवेदन करने की सलाह नहीं देता हूं.”

यह आशंका पिछले साल SAU में हुए छात्रों के विरोध प्रदर्शन के बाद से उपजी है. इस प्रदर्शन के बाद मामला प्रशासन द्वारा पुलिस बुलाने तथा छात्रों और संकाय सदस्यों को निलंबित करने के बाद और बढ़ गया था. छात्र अन्य बातों के अलावा छात्रवृति और निवारण समितियों में उचित प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे थे.

छात्रों के विरोध प्रदर्शन को कथित तौर पर उकसाने के आरोप में पिछले सप्ताह SAU के चार प्रोफेसरों को निलंबित कर दिया गया था.

Students protesting at the South Asian University | Soniya Agrawal | ThePrint
यूनिवर्सिटी में विरोध प्रदर्शन पर बैठे छात्र | फोटो: सोनिया अग्रवाल | दिप्रिंट

हालांकि, यूनिवर्सिटी के लिए यह पहला मामला नहीं था. अपनी स्थापना के बाद से, SAU कई विवादों में उलझा रहा है. इसमें परिसर के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण और संकाय सदस्यों की नियुक्ति से लेकर पर्याप्त धन हासिल करना आदि है. साथ ही सदस्य देशों के बीच राजनयिक संबंधों को नेविगेट करना भी विवाद में शामिल है.

यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट से बात करते हुए कहा, “SAU की स्थापना उसी समय की गई थी जब अशोका यूनिवर्सिटी और ओ.पी. जिंदल यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई थी. हालांकि, बहुत बड़ी फंडिंग, आसान क्षेत्रीय पहुंच और शानदार वेतन के बावजूद, SAU खुद को दूसरी यूनिवर्सिटी के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए एक प्रतिष्ठित संस्थान नहीं बना पाया है.”

उन्होंने कहा, “देश भर में कोई अंतरराष्ट्रीय सेमिनार (SAU द्वारा आयोजित) आयोजित नहीं किया जा रहा है. वास्तव में, एक दशक से अधिक समय से जैव प्रौद्योगिकी विभाग होने के बावजूद यूनिवर्सिटी को अभी तक पेटेंट नहीं मिला है. यह यहां हो रहे शोध के बारे में बहुत कुछ बताता है.”

दिप्रिंट इस बात पर नज़र डाल रहा है कि यूनिवर्सिटी ने पिछले कुछ सालों में कैसा प्रदर्शन किया है और शुरुआत से ही कई बड़ी चुनौतियों ने यूनिवर्सिटी के स्तर में गिरावट में कैसे योगदान दिया है.

‘शुरुआती मुद्दे’

अपनी स्थापना के समय, भारत ने दिल्ली में SAU के स्थायी परिसर के निर्माण का पूरा खर्च वहन करने की प्रतिबद्धता जताई थी. आठ सदस्य देशों के बीच समझौता यह था कि वे संस्था को चलाने में जो खर्च आएगा सिर्फ उसका वहन करेंगे.

2009 में, भारत सरकार ने कथित तौर पर यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए अपने खजाने से 239.93 मिलियन डॉलर- कुल लागत का लगभग 79 प्रतिशत- की मंजूरी दे दी. हालांकि, इसे 2010 में चालू कर दिया गया था, लेकिन शुरुआत में इसे चाणक्यपुरी स्थित अकबर भवन से चलाया जा रहा था. स्थायी परिसर का निर्माण अभी पूरा हुआ है और इसे दिसंबर 2022 में चालू किया गया है.

दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) द्वारा यूनिवर्सिटी के लिए आवंटित किए गए मैदान गढ़ी में 100 एकड़ भूखंड के कुछ हिस्सों पर तीन अलग-अलग मुकदमों के चलते देरी हुई, जिसके परिणामस्वरूप दिल्ली उच्च न्यायालय से स्थगन आदेश आया.

यूनिवर्सिटी का पहला दीक्षांत समारोह 2016 में आयोजित किया गया था. यह यूनिवर्सिटी की कक्षाएं शुरू होने के छह साल बाद हुआ था.

मीडिया ने वीज़ा मुद्दों पर अंतर्राष्ट्रीय छात्रों द्वारा उठाई गई चिंताओं पर पहले भी रिपोर्ट की थी. SAU के लिए SAARC समझौते में एक विशेष वीज़ा की शर्तें शामिल थीं जो SAU छात्रों के पहले कुछ बैचों को जारी की जानी थीं. हालांकि, 2016 के बाद से, छात्रों को नियमित स्टूडेंट वीज़ा जारी किया जा रहा है. इसे हर साल रिन्यू करवाना होता है जोकि एक बोझिल क्रिया है. इसके अलावा, बिगड़ते द्विपक्षीय संबंधों के कारण पाकिस्तानी छात्रों को लगातार वीजा देने से इनकार किया जा रहा है और 2021 में तालिबान के अधिग्रहण के बाद से अफगानिस्तान में भारतीय राजनयिक मिशन नहीं होने के कारण अफगान छात्र SAU नहीं आ पाए हैं.

मई 2004 और अगस्त 2008 के बीच प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार और मुख्य प्रवक्ता संजय बारू ने दिप्रिंट को बताया कि यूनिवर्सिटी की स्थापना “शानदार विचार” था जो शुरुआत से ही सही नहीं चल पाया.

उन्होंने कहा, “स्थापना के बाद से ही इस बात को लेकर भ्रम था कि यह किसके अंतर्गत काम करेगा- विदेश मंत्रालय या शिक्षा मंत्रालय. यूनिवर्सिटी ने जो चमत्कार किया होगा और उसे क्षेत्रीय मान्यता प्राप्त करने में मदद की होगी. इसके अलावा SAARC के सदस्य देशों के प्रतिष्ठित विद्वान को इसके गवर्निंग हेड के रूप में नियुक्त करना होगा जिन्हें कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले हो. साथ ही, परिसर की भूमि भी विवादित थी. इतने सारे शुरुआती मुद्दों के साथ, जिस तरह से यह हुआ उससे पीएम मनमोहन सिंह भी काफी नाखुश थे.”


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शासन से जुड़े मुद्दे

साउथ एशियन यूनिवर्सिटी अधिनियम 2008, जिसके अनुसार SAU चलाया जाता है, यूनिवर्सिटी में प्रत्येक राष्ट्र के दो सदस्यों के साथ एक शासी निकाय होता है जो बारी-बारी से एक अध्यक्ष का चयन करता है. पिछले 13 वर्षों में यूनिवर्सिटी के दो अध्यक्ष रहे हैं- प्रोफेसर गोपाल कृष्ण चड्ढा (2011-2014) और डॉ. कविता ए. शर्मा (2014-2019). दोनों भारतीय हैं. शर्मा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद से यूनिवर्सिटी शासी निकाय द्वारा अनुमोदित अध्यक्ष के बिना है.

यूनिवर्सिटी से जुड़े वरिष्ठ प्रोफेसरों और शिक्षाविदों ने दिप्रिंट को बताया कि सरकारी अधिकारियों की मौजूदगी के कारण गवर्निंग बॉडी को राजनीतिक बना दिया गया है. उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए शिक्षाविदों को निकाय में शामिल होने की सख्त जरूरत है कि शैक्षिक हित को महत्व दिया जाए.

यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद से इससे जुड़े एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, “चूंकि भारत के पहले से ही दो अध्यक्ष रह चुके हैं, इसलिए अब मालदीव की बारी है कि वह अपना प्रतिनिधि भेजे. यदि यूनिवर्सिटी अपनी क्षेत्रीय विविधतापूर्ण प्रकृति को बरकरार रखना चाहता है, तो उसे अन्य सदस्य देशों को कार्यभार संभालने का उचित मौका देना होगा.”

उरी हमले के एक साल बाद 2017 से यूनिवर्सिटी की गवर्निंग बॉडी की कोई बैठक नहीं हुई है.

नियुक्तियां करने वाली संस्था के अभाव में, यूनिवर्सिटी पिछले पांच वर्षों से एक अस्थायी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और रजिस्ट्रार के साथ काम कर रहा है. SAU के एक प्रोफेसर के अनुसार, इसके कारण यूनिवर्सिटी में जवाबदेही और पहल की कमी हुई है.

यूनिवर्सिटी ने एक बयान में नवंबर में दिप्रिंट को बताया था कि बैठक “साजो-सामान संबंधी मुद्दों के कारण” आयोजित नहीं की गई थी, साथ ही यह भी कहा था कि “प्रशासन निर्णयों के लिए गवर्निंग काउंसिल के अध्यक्ष के संपर्क में है”.

दिप्रिंट ने SAU के कार्यकारी अध्यक्ष प्रोफेसर आर.के. से संपर्क किया, लेकिन उनकी ओर से कोई जवाब नहीं मिला. प्रतिक्रिया मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा. 

जिन चार प्रोफेसरों को पिछले साल छात्रों के विरोध प्रदर्शन को उकसाने के आरोप में पिछले सप्ताह निलंबित कर दिया गया था, वे निश्चित नहीं हैं कि उनके मामलों की सुनवाई भारतीय न्यायिक प्रणाली द्वारा की जाएगी या नहीं.

SAU के एक वरिष्ठ प्रोफेसर ने दिप्रिंट को बताया, “SAU के पास अपने स्वयं के प्रशासनिक नियम हैं. यूनिवर्सिटी की अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति को देखते हुए, यूनिवर्सिटी में जो कुछ भी होता है उस पर कोई भी सरकार अधिकार क्षेत्र नहीं ले सकती. SAU का अपना न्यायाधिकरण है जो महत्वपूर्ण निर्णय लेता है और तब तक प्रशासन के पास कानूनी छूट है और वह जो उचित समझे वह कर सकता है.”

आर्थिक दिक्कत

यूनिवर्सिटी को हर ओर से आर्थिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है. सदस्य राष्ट्र समय पर अपने हिस्से का धन नहीं चुकाते हैं. इसके अलावा यूनवर्सिटी में कई आंतरिक वित्तीय कुप्रबंधन भी मौजूद है.

डेक्कन हेराल्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक सदस्य देशों के बीच साइन किए गए समझौते के अनुसार, भारत को परिचालन लागत का 57.49 प्रतिशत वहन करना था. पाकिस्तान और बांग्लादेश को क्रमशः 12.98 प्रतिशत और 8.20 प्रतिशत धन देना है. अफगानिस्तान, भूटान और मालदीव प्रत्येक 3.83 प्रतिशत का भुगतान करना है. जबकि श्रीलंका और नेपाल, को 4.92 प्रतिशत भुगतान करना है.

SAU के एक प्रोफेसर के अनुसार, यूनिवर्सिटी को सदस्य देशों से पहले दौर की फंडिंग प्राप्त हुई लेकिन दूसरा दौर की फंडिग का अभी आना बाकी है. हालांकि, श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल की खराब वित्तीय स्थिति और अफगानिस्तान में सरकार में बदलाव को देखते हुए यूनिवर्सिटी प्रशासन को लगता है कि SAU को चालू रखना अब आसान नहीं है. उनका मानना है कि यूनिवर्सिटी अब पैसे की भारी दिक्कत से जूझ रहा है. इसके परिणामस्वरूप छात्रों के छात्रवृति में कटौती हुई, जिसके कारण छात्र विरोध प्रदर्शन करने लगे.

इसके अलावा, दिप्रिंट को पिछले पांच वर्षों में यूनिवर्सिटी में वित्तीय कुप्रबंधन के कम से कम दो उदाहरण भी मिले.

नवंबर 2019 में SAU के कार्यवाहक अध्यक्ष की भूमिका निभाने वाले विदेश मंत्रालय के संपर्क अधिकारी डॉ. रमेश चंद्र को उनके खिलाफ वित्तीय आचरण के आरोप सामने आने के बाद मंत्रालय में अपने पद पर लौटने के लिए कहा गया था.

दिप्रिंट द्वारा देखे गए दस्तावेज़ों के अनुसार, 2020 में डॉ. चंद्रा को विदेश मंत्रालय द्वारा SAU के अध्यक्ष के रूप में लिए गए 32 लाख रुपये के वेतन और भत्ते वापस करने का निर्देश दिया गया था, क्योंकि वह इस राशि का दावा करने के हकदार नहीं थे.

विदेश मंत्रालय ने यह भी कहा था कि साउथ एशियन यूनिवर्सिटी के तत्कालीन रजिस्ट्रार डॉ. ए.के. मलिक से 9,99,656 रुपये की राशि वसूल की जानी चाहिए. मंत्रालय का मानना था कि यह भुगतान “अस्वीकार्य, अनियमित और गैरकानूनी” था.

SAU के नियमों के अनुसार, यूनिवर्सिटी के किसी कर्मचारी या प्रोफेसर को ही अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है. यूनिवर्सिटी के अधिकारियों के अनुसार, डॉ. चंद्रा की नियुक्ति का कारण विदेश मंत्रालय में उनकी जानपहचान थी. उन्होंने कहा, “हालांकि उनकी नियुक्ति नियमों के अनुसार नहीं थी, लेकिन यूनिवर्सिटी के संचालन को वित्त पोषित करना जारी रखने के लिए विदेश मंत्रालय को मनाने के लिए किसी को रखने की आवश्यकता थी.”

दिप्रिंट ने टिप्पणी के लिए ईमेल के ज़रिए डॉ. चंद्रा से संपर्क किया. लेकिन इस रिपोर्ट के प्रकाशन तक उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. प्रतिक्रिया मिलने पर यह लेख अपडेट कर दिया जाएगा.

2022 में, छात्रों ने कथित तौर पर कार्यवाहक अध्यक्ष प्रोफेसर मोहंती द्वारा धन के वित्तीय प्रबंधन पर चिंता जताई थी.

उन्होंने आरोप लगाया कि वर्तमान कार्यवाहक अध्यक्ष प्रोफेसर मोहंती ने यात्रा खर्च के रूप में 19 लाख रुपये निकाले. उन्होंने यह भी कहा कि निदेशक और उप निदेशक (वित्त) का पद एक ही अधिकारी – केशव दत्त के पास था.

दिप्रिंट द्वारा यह पूछे जाने पर कि उसकी वार्षिक वित्तीय रिपोर्ट क्यों जारी नहीं की गईं, SAU ने कहा कि ये दस्तावेज़ केवल वित्त समिति और कार्यकारी समिति की सिफारिश और उसके बाद गवर्निंग बोर्ड की मंजूरी के बाद ही जारी किए जाते हैं.

कुप्रबंधन के आरोपों को भी खारिज करते हुए SAU ने इसे “बदनाम करने” का प्रयास बताया.

SAU ने दिप्रिंट को एक ईमेल में कहा,“अध्यक्ष ने अध्यक्ष पद पर लागू नियमों के तहत परिवहन भत्ता वापस लिया है. हालांकि, अध्यक्ष की छवि को बदनाम करने के लिए 19 लाख का आंकड़ा गलत तरीके से बताया गया है और बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है.”

आगे का रास्ता

शिक्षाविदों और अधिकारियों का मानना ​​है कि अब जिम्मेदारी भारत सरकार पर है कि वह पहला कदम उठाए और SAARC सदस्यों के साथ त्रिपक्षीय या उप-क्षेत्रीय संबंध बनाए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यूनिवर्सिटी अपना अस्तित्व बनाए रखे.

चीन, मलेशिया और श्रीलंका में भारत के पूर्व राजदूत और चीनी अध्ययन संस्थान के निदेशक, अशोक के. कांथा ने कहा कि SAU के लिए आगे का रास्ता यह होगा कि भारत एक उप-क्षेत्रीय साझेदारी शुरू करने में अग्रणी भूमिका निभाए.

उन्होंने कहा, “SAARC अब काफी हद तक निष्क्रिय हो चुका है और 2016 के बाद से भारत सरकार की ओर से सदस्य देशों के बीच संबंधों को फिर से मजबूत करने की कोई इच्छा नहीं रही है. हालांकि, SAARC के बदले भारत बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान जैसे अन्य देशों के साथ सहयोग करने के लिए एक प्राथमिक क्षेत्रीय मंच के रूप में SAU का उपयोग कर सकता है, जिनके साथ देश के अच्छे संबंध अभी भी हैं.”

उन्होंने आगे कहा, “भारतीय उपमहाद्वीप संभवतः दुनिया का सबसे कम एकीकृत क्षेत्र है. यदि इसमें परिवर्तन किया जाता है तो क्षेत्र को उम्मीद है कि भारत राष्ट्रों के बीच बढ़ते आर्थिक और सामाजिक आदान-प्रदान का स्वामित्व लेगा.”

SAU की पूर्व अध्यक्ष डॉ. कविता शर्मा इससे सहमत हैं. उन्होंने कहा, “देशों को एक साथ आने और पीढ़ीगत बोझ को दूर करने की जरूरत है. उन्हें नई पीढ़ियों को, जो अतीत के अत्याचारों से प्रभावित नहीं हुई हैं, सहयोग करने और क्षेत्र में प्रगति लाने का मौका देने की ज़रूरत है.”

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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