नई दिल्ली: दिप्रिंट को जानकारी मिली है कि अशोका यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र डिपार्टमेंट ने बुधवार को प्रोफेसर सब्यसाची दास के इस्तीफे को ‘जल्दबाजी में स्वीकार किए जाने’ की जांच करने के लिए संस्थान के शासी निकाय को एक खुला पत्र लिखा था.
दास ने विवादास्पद पेपर ‘डेमोक्रेटिक बैकस्लाइडिंग इन द वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी’ लिखा था और उनका इस्तीफा इस महीने की शुरुआत में शोध के उस हंगामे के बाद आया है जिसमें कहा गया था कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 2019 के लोकसभा चुनाव में करीबी मुकाबले वाली सीटों पर “अनुपातहीन” तरीके से जीत हासिल की थी, विशेषकर उन राज्यों में जहां वो सत्ता में थी.
दिप्रिंट को जानकारी मिली है कि उनके इस्तीफे के बाद विभाग के सीनियर फैकल्टी सदस्य प्रोफेसर पुलाप्रे बालाकृष्णन ने भी अपना इस्तीफा दे दिया है. दिप्रिंट ने प्रोफेसर बालाकृष्णन से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने टिप्पणी करने से इनकार कर दिया. हालांकि, जानकार प्रोफेसरों ने उनके पद छोड़ने की पुष्टि की है.
दिप्रिंट ने ईमेल के ज़रिए यूनिवर्सिटी तक भी पहुंचने की संपर्क करने की कोशिश की. जवाब मिलने के बाद इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.
इस बीच, गवर्निंग बॉडी को लिखे अपने 16 अगस्त के पत्र में, जिसकी एक प्रति दिप्रिंट के पास है, अर्थशास्त्र डिपार्टमेंट ने मांग की है कि दास को उनका पद वापस दिया जाए और यह पुष्टि मांगी जाए कि गवर्निंग बॉडी “फैकल्टी रिसर्च के मूल्यांकन में कोई भूमिका नहीं निभाएगी”. इसमें दावा किया गया है कि यदि 23 अगस्त तक कार्रवाई नहीं की गई तो फैकल्टी के सदस्य “अपने शिक्षण दायित्वों को आगे बढ़ाने” में असमर्थ होंगे.
यह पत्र यूनिवर्सिटी के कुलपति सोमक रायचौधरी द्वारा सोमवार देर रात इसकी वेबसाइट पर जारी एक बयान में कहा गया है, “अशोका पुष्टि करता है कि अर्थशास्त्र डिपार्टमेंट में सहायक प्रोफेसर डॉ. सब्यसाची दास ने अपना इस्तीफा सौंप दिया है. डॉ. दास फिलहाल अशोका से छुट्टी पर हैं और पुणे में गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स (डीम्ड यूनिवर्सिटी) में विजिटिंग फैकल्टी के रूप में कार्यरत हैं. उन्हें मनाने के व्यापक प्रयास करने के बाद, यूनिवर्सिटी ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया है.”
दास के पेपर की अभी तक समीक्षा नहीं की गई है और माना जाता है कि एक संस्थान में इसे प्रस्तुत करने के बाद यह प्रचलन में आया है. इसे एक शिक्षाविद ने 31 जुलाई को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर शेयर किया था, जिसके बाद विवाद खड़ा हो गया.
The BJP won the 2019 parliamentary elections in India: but was it ALL fair and square?
This astonishing new working paper by @sabya_economist provides scientific evidence that suggests vote(r) manipulation by BJP.
And no, this is NOT about EVMs.https://t.co/H99CGJPhTV
Thread🧵 pic.twitter.com/YU1idLcqXw— M.R. Sharan (@sharanidli) July 31, 2023
दिप्रिंट ने ईमेल के जरिए दास तक पहुंचने की कोशिश की, लेकिन संपर्क नहीं हो पाया. जवाब आने के बाद इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
अशोका यूनिवर्सिटी ने यह कहते हुए खुद को रिसर्च पेपस से दूर कर लिया कि शोध ने अभी तक एक महत्वपूर्ण समीक्षा प्रक्रिया पूरी नहीं की है और किसी अकादमिक जर्नल में प्रकाशित नहीं किया गया है.
वीसी के बयान में यूनिवर्सिटी ने फिर से इस बात पर जोर दिया कि कैसे उसके प्रोफेसरों को दी गई “शैक्षणिक स्वतंत्रता” उनके विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करती है. इसमें कहा गया, “डॉ. भारतीय चुनावों पर दास का पेपर हाल ही में सोशल मीडिया पर साझा किए जाने के बाद व्यापक विवाद का विषय था, जहां कई लोगों ने इसे यूनिवर्सिटी के विचारों को प्रतिबिंबित करने वाला माना था.”
इसमें आगे कहा गया, “अशोका यूनिवर्सिटी में फैकल्टी के सदस्यों को अपने चुने हुए क्षेत्रों में पढ़ाने और रिसर्च करने की स्वतंत्रता है – यूनिवर्सिटी अपने फैकल्टी और स्टूडेंट्स को देश में उच्च शिक्षा संस्थान में शैक्षणिक स्वतंत्रता के लिए सबसे सक्षम वातावरण प्रदान करता है. यूनिवर्सिटी अपने फैकल्टी और स्टूडेंट्स द्वारा किए गए शोध को निर्देशित या मॉडरेट नहीं करता है. यह शैक्षणिक स्वतंत्रता डॉ. दास पर भी लागू होती है.”
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क्या था विवाद
शिक्षा जगत के सदस्य दास के पेपर पर बंटे हुए हैं, जबकि कुछ ने नियोजित तरीकों की मजबूती और अकादमिक कठोरता की पुष्टि की, अन्य निष्कर्षों से असहमत थे.
बीजेपी नेताओं ने सबूतों की कमी बताई है तो विपक्षी नेताओं ने सत्तारूढ़ सरकार पर सवाल उठाए हैं.
एक्स पर एक पोस्ट में बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने शोध को “अधकचरा” करार दिया. उन्होंने कहा, “आधे-अधूरे शोध के नाम पर कोई भारत की जीवंत मतदान प्रक्रिया को कैसे बदनाम कर सकता है? कोई भी यूनिवर्सिटी इसकी अनुमति कैसे दे सकती है?”
इस बीच, कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने एक्स पर पोस्ट किया कि अगर “चुनाव आयोग और/या भारत सरकार के पास इन तर्कों का खंडन करने के लिए उत्तर उपलब्ध हैं, तो उन्हें उन्हें विस्तार से प्रदान करना चाहिए”.
उन्होंने कहा, “प्रस्तुत किए गए साक्ष्य किसी गंभीर विद्वान पर राजनीतिक हमलों के लिए उपयुक्त नहीं हैं. जैसे वोटों की संख्या में विसंगति को स्पष्ट करने की ज़रूरत है, क्योंकि इसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है.”
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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