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Sunday, 3 November, 2024
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‘गांधी, नेहरू’ से फोकस हटा, मोदी सरकार के राज में यूनिवर्सिटी के नाम बदलने का चलन कैसे बदला

आरएसएस के पूर्व प्रमुख से लेकर 19वीं सदी की मराठी कवयित्री तक, भाजपा शासित तीन राज्यों के विश्वविद्यालयों के नाम बदलकर कम जाने-पहचाने लोगों के नाम पर रखे गए हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि इसका मकसद स्थानीय लोगों के साथ जुड़ना है.

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नई दिल्ली: पिछले महीने नरेंद्र मोदी सरकार ने आधिकारिक तौर पर दिल्ली के ऐतिहासिक राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ कर दिया. इस बदले हुए नाम को व्यापक रूप से गुलामी की हर चीज से मुक्त होने के तौर पर देखा जा रहा है. लेकिन यह नामों में बदलाव किए जाने वाली पहले से चली आ रही कवायद का एक हिस्सा है.

और ऐसा सिर्फ सड़कों और शहरों के साथ नहीं है जिनका पिछले आठ सालों में फिर से नामकरण किया गया हो. भारतीय जनता पार्टी शासित महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में कुछ कम जाने-पहचाने वाले लोगों और स्थानीय नायकों के नाम पर कम से कम तीन राज्य विश्वविद्यालयों के नामों को भी बदला गया है.

उत्तर महाराष्ट्र विद्यापीठ को अब कवयित्री बहिणाबाई चौधरी उत्तर महाराष्ट्र विद्यापीठ के रूप में जाना जाता है. तो वहीं छिंदवाड़ा यूनिवर्सिटी को अब राजा शंकर शाह यूनिवर्सिटी के नाम से जानते हैं. इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय अब प्रो राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) विश्वविद्यालय हो गया है.

शिक्षाविद इसे भाजपा सरकारों के न सिर्फ गांधी और नेहरू जैसे व्यक्तित्वों के नाम पर सड़क, संस्थानों आदि के नाम देने की परंपरा से दूर जाने के प्रयास के रूप में देखते हैं, बल्कि स्थानीय आबादी से जुड़ने की एक कोशिश भी मानते हैं.

आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्री चारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘मोदी सरकार का नाम बदलने की होड़ एक तरह से गांधी और नेहरू के नाम पर सब कुछ रखने की प्रतिक्रिया है. यह एक राजनीतिक कदम है’ वह आगे कहते हैं ‘लेकिन वे दीन दयाल उपाध्याय और (पूर्व पीएम) अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर तो सबका नाम नहीं रख सकते हैं. इसलिए स्थानीय नायकों के नाम पर संस्थानों का नाम बदलना ज्यादा समझ में आता है.’

लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के पूर्व अध्यक्ष सुखादेव थोराट का कहना है कि नामकरण काफी सोच-विचार करने के बाद और सिर्फ उन व्यक्तित्वों के नाम पर किया जाना चाहिए जिन्होंने समाज में योगदान दिया हो.

थोराट ने कहा, ‘जब आप किसी संस्थान का नाम बदल रहे हैं, तो आपको उससे जुड़े मूल्य के बारे में सोचना चाहिए. इसलिए, जिस व्यक्तित्व के नाम पर एक संस्था का नाम बदला जा रहा है, उसे बहुत सावधानी से चुना जाना चाहिए. छात्रों को नाम से प्रेरणा मिलनी चाहिए. लेकिन दुख की बात है कि ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता है.’ उनके मुताबिक यह एक राजनीतिक कदम है जिसका आमतौर पर शिक्षाविदों से कोई लेना-देना नहीं होता है.


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नाम में क्या रखा है?

जनवरी में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने छिंदवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलकर राजा शंकर शाह विश्वविद्यालय कर दिया. शाह गोंडवाना क्षेत्र के तत्कालीन शासक थे. यह क्षेत्र मौजूदा समय में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में शामिल हैं. उन्होंने 1857 में अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी. उन्हें इस क्षेत्र के आदिवासियों के बीच एक नायक के रूप में याद किया जाता है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्वविद्यालय की स्थापना 2019 में कमलनाथ सरकार के तहत हुई थी. छिंदवाड़ा कांग्रेस के दिग्गज नेता और एमपी के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ का गढ़ है.

मार्च 2019 मे उत्तर प्रदेश सरकार ने आधिकारिक तौर पर इलाहाबाद स्टेट यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर प्रोफेसर राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) यूनिवर्सिटी कर दिया. विश्वविद्यालय की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार, रज्जू भैया भौतिक विज्ञानी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे, जिन्हें 1994 में संघ सरसंघचालक (प्रमुख) भी बनाया गया था.

अगस्त 2018 में, जलगांव में उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय का नाम बदलकर कवयित्री बहिणाबाई चौधरी उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय कर दिया गया. बहिणाबाई ने दो बोलियों – खांडेसी और वरहदी के मिश्रण में कविताओं की रचना की थी. 19वीं सदी की मराठी कवयित्री कृषि और कृषि जीवन से काफी प्रेरित थीं.

अन्य उदाहरणों में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर यूनिवर्सिटी का नाम सितंबर 2018 में अटल बिहारी वाजपेयी युनिवर्सिटी और दिसंबर 2021 में गंगटोक में सिक्किम यूनिवर्सिटी को खांग्चेनदजोंगा स्टेट यूनिवर्सिटी में बदलना शामिल है.

जिस समय नाम बदला गया, तब छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार थी. सिक्किम में 2019 से सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा और भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार है.

लेकिन नाम बदलना न तो शिक्षण संस्थानों के लिए कोई नई घटना है और न ही ये सिर्फ भाजपा सरकारों तक ही सीमित हैं. 90 के दशक में भारत के पांचवें प्रधानमंत्री के नाम पर मेरठ विश्वविद्यालय का नाम बदलकर चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय कर दिया गया था.

2014 में पृथ्वीराज चव्हाण के नेतृत्व में महाराष्ट्र सरकार ने समाज सुधारक सावित्रीबाई फुले के सम्मान में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय कर दिया.

अन्य महत्वपूर्ण उदाहरणों में विजयवाड़ा का आंध्र प्रदेश यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेज हैं, जिसका नाम बदलकर डॉ. एन.टी.आर. यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेज कर दिया गया. यह आंध्र के पूर्व मुख्यमंत्री और तेलुगु सुपरस्टार एन.टी. रामा राव के नाम पर रखा गया. पश्चिम बंगाल में पुरबा मेदिनीपुर विश्वविद्यालय जिसका नाम बदलकर महात्मा गांधी विश्वविद्यालय कर दिया गया और उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में हिमालयन गढ़वाल यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर महाराजा अग्रसेन हिमालयन गढ़वाल यूनिवर्सिटी कर दिया गया.

2014 में राजस्थान के सीकर में शेखावाटी विश्वविद्यालय का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय शेखावाटी विश्वविद्यालय कर दिया गया. 2015 में लखनऊ के उत्तर प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम टेक्निकल यूनिवर्सिटी और पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर आई.के. गुजराल पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी कर दिया गया.

अंतर बस इतना है कि पिछले समय में नाम प्रसिद्ध व्यक्तित्वों के नाम पर रखे गए थे और अब कम जाने-पहचाने वाले शख्सियतों के नाम के साथ ये बदलाव किए जा रहे हैं.

चारी का कहना है कि किसी संस्थान का नाम कम जाने-पहचाने व्यक्तित्वों के नाम पर करने से उनके योगदान पर ध्यान दिया जाएगा. उन्होंने बताया, ‘जब विश्वविद्यालय की बात आती है तो नाम बदलना एक बुरा विचार नहीं है. दुनिया भर में और भारत में ज्यादातर विश्वविद्यालयों को उन शहरों के नाम से जाना जाता है जिनमें वे स्थित हैं. यह शहर के लिए एक निश्चित प्रतिष्ठा लेकर आता है. कम जाने-पहचाने शहरों के लिए के लिए तो और भी ज्यादा’. वह आगे कहते हैं, ‘इसी तरह, अगर किसी संस्था का नाम किसी ऐसे व्यक्तित्व के नाम पर रखा जाता है जो कम जाना जाता है, तो यह उस व्यक्तित्व की पहचान को लोगों के बीच लेकर आएगा.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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