नई दिल्ली: यूक्रेन के मेडिकल कॉलेजों में पढ़ रहे हजारों भारतीय छात्र भले ही वहां से अपने देश वापस आ गए हैं, लेकिन उनका भविष्य अधर में अटक गया है. उनके लिए यहां अपने देश में अपनी मेडिकल की पढ़ाई जारी रखने के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं, यही वजह है कि वे पहले ही पढ़ने के लिए विदेश चले गए थे.
भारत में 2018 से 2021 तक औसतन, 7.8 लाख छात्रों ने मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) पास की. हालांकि, इन 7 लाख से अधिक छात्रों के लिए देशभर में सरकारी और निजी संस्थानों में केवल 80,000 मेडिकल कॉलेज सीटें ही उपलब्ध रही हैं.
फिर कहां जाते हैं ये अभ्यर्थी? अगर उनके पास जाने का साधन होता है और वह इसे वहन कर सकते हैं, तो अपनी मेडिकल डिग्री हासिल करने के लिए भारत छोड़ देते हैं.
शिक्षा मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, लगभग 23,000 भारतीय छात्र चीन में मेडिकल शिक्षा के लिए नामांकित हैं, वहीं, यूक्रेन में इनकी संख्या 18,000, रूस में 16,000 से अधिक और फिलीपींस में 15,000 है.
बड़ी संख्या में छात्रों के बाहर जाने की एक वजह मेडिकल सीटों के लिए मांग और आपूर्ति का बेमेल होना है, जो भारत में डॉक्टरों की कमी—हर 1,511 लोगों पर सिर्फ एक डाक्टर—को देखते हुए एक विडंबना ही है.
इंजीनियरिंग डिग्री—जो एक अन्य सबसे पसंदीदा कोर्स है—के उम्मीदवारों के विपरीत मेडिकल छात्रों के पास विकल्पों का एक अत्यंत सीमित पूल है. इसके प्रमुख कारण हैं, सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के तौर पर कम स्वास्थ्य खर्च, मेडिकल कॉलेजों की संख्या बहुत धीमी गति से बढ़ना, फी स्ट्रक्चर में बेतरतीब भिन्नता और देशभर में स्थित संस्थानों का असमान वितरण.
यह भी पढ़ें : वर्षों की बेरोजगारी, सरकारी नौकरी की आस, बिहार के युवाओं के संघर्ष और निराशा की कहानी
प्रवेश को स्वीकृति दर 5%, सरकारी कॉलेज में सीटों के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा
नेशनल मेडिकल काउंसिल (एनएमसी, जो पहले मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया थी) के मुताबिक, भारत में केवल 562 मेडिकल कॉलेज हैं, जहां इस समय 86,649 सीटें उपलब्ध होती हैं.
2014 में नीट के अस्तित्व में आने के बाद से मेडिकल कॉलेजों ने एमबीबीएस (बैचलर ऑफ मेडिसिन, बैचलर ऑफ सर्जरी) कोर्स के लिए औसतन लगभग 50,000-80,000 सीटों की पेशकश की जाती है.
अब इसकी तुलना देशभर में आवेदकों की कुल संख्या से करें. नीट की एक प्रेस रिलीज दर्शाती है कि 2018 से 2021 तक हर साल औसतन 14 लाख छात्रों ने परीक्षा दी हैं. इससे पता चलता है कि 80,000 उपलब्ध सीटों के लिहाज से एडमिशन के लिए स्वीकृति दर केवल 5 प्रतिशत है. तुलनात्मक तौर पर देखे तो कॉलेज आवेदनों पर कैलिफोर्निया स्थित एक परामर्श एजेंसी, एक्सेप्टेड के मुताबिक, अमेरिका में शीर्ष 100 मेडिकल स्कूलों (यूएस न्यूज रैंकिंग के मुताबिक) में यह स्वीकृति दर 6.3 प्रतिशत से अधिक है.
जब खर्च की बात आती है तो भी भारत में प्रतिस्पर्धा और कड़ी नजर आती है. मध्यम वर्ग के हजारों होनहार उम्मीदवारों के लिए असली लड़ाई सरकारी कॉलेजों में सीट पाने की होती है, जो कि 2020 में केवल 42,000 थीं.
वजह, सरकारी कॉलेजों में वार्षिक फीस अपेक्षाकृत सस्ती होती है—उदाहरण के तौर पर प्रतिष्ठित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) प्रति वर्ष केवल 5,000 रुपये का शुल्क लेता है, जबकि सबसे महंगे में संस्थानों में से एक पणजी स्थित गोवा मेडिकल कॉलेज की फीस महज एक लाख रुपये प्रति वर्ष है.
हालांकि, निजी संस्थान आमतौर पर बहुत अधिक फीस वसूलते हैं जिसमें से कुछ की फीस तो प्रति वर्ष 25 लाख रुपये तक है.
वैसे, भारत में अच्छे सरकारी कॉलेजों के लिए कट-ऑफ 720 में से 700 अंक तक जाता है, और 500 से कम अंक हासिल करने वालों के लिए कोई मौका नहीं होता है.
राम मनोहर लोहिया (आरएमएल) अस्पताल के पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआईएमईआर) में डीन डॉ. रवि सूद कहते हैं, ‘सरकारी कॉलेजों में उपलब्ध लगभग 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित वर्ग के छात्रों को मिलती हैं. बाकी छात्रों के पास सिर्फ दो विकल्प बचते हैं—या तो अगले साल फिर परीक्षा दें और उच्च अंक हासिल करें या पढ़ने के लिए रूस, यूक्रेन और चीन जैसे देशों में चले जाएं.’
डॉ. सूद ने कहा, ‘ऐसा नहीं है कि सिर्फ वही विदेश जाने का विकल्प चुनते हैं जो नीट में 200-300 स्कोर करते हैं. बल्कि नीट में 90 पर्सेंटाइल हासिल करने वाले भी विदेशी डिग्री का विकल्प चुन रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी पसंद के कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल पा रहा है.’
भारत सरकार अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.35 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती है. सूद के मुताबिक, भारत में मेडिकल शिक्षा को लेकर सारी समस्याएं यहीं से शुरू होती हैं.
सूद ने कहा, ‘जब भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है, तो अधिक कॉलेज कैसे खुलेंगे? समस्या दूर करने के लिए सबसे पहले तो वहां ध्यान देना होगा—हमें स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करना शुरू करना होगा.’
यद्यपि पिछले एक दशक में भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन इसके पहले एक लंबे अरसे तक यह वृद्धि काफी धीमी रही है. इसके अलावा देशभर में भौगोलिक स्थिति के लिहाज से संस्थानों का आनुपातिक वितरण न होना भी इस समस्या को बढ़ाता है.
यह भी पढ़ें : अध्यापन में लेटरल एंट्री? UGC कर रही है PhD या NET योग्यता के बिना एक्सपर्ट्स को लाने की तैयारी
10 साल में दोगुने हुए मेडिकल कॉलेज, लेकिन मांग के हिसाब से पर्याप्त नहीं
2011 से 2021 के बीच, भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 335 से लगभग दोगुनी बढ़कर 562 हो गई है.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि इस वृद्धि में सरकारी कॉलेजों की संख्या बढ़ने का प्रमुख योगदान रहा है.
2011 में भारत के 335 मेडिकल कॉलेजों में से 154 सरकारी और 181 निजी थे. हालांकि, 2019-2020 तक निजी मेडिकल कॉलेजों की तुलना में सरकारी अधिक हो गए, इनकी संख्या क्रमशः 279 और 260 (कुल 539) पर पहुंच गई. 2021 में 562 मेडिकल कॉलेजों में से 286 सार्वजनिक और 276 निजी थे.
पिछले एक दशक में भारत में मेडिकल कॉलेजों की समग्र विकास दर को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, खासकर जब इसे ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाए.
1972 में देश में केवल 98 मेडिकल कॉलेज हो थे, जो 1981 तक बढ़कर मात्र 109 हुए थे. उसके बाद के दशक में केवल 19 नए मेडिकल कॉलेज खुले और यह आंकड़ा 128 तक पहुंचा. इसके बाद इस दिशा में थोड़ी तेजी आई, 2001 तक 189 मेडिकल कॉलेज और 2011 तक 314 मेडिकल कॉलेज हो गए.
औसत वार्षिक वृद्धि दर की बात करें तो मेडिकल कॉलेजों में 1972 से 1980 तक प्रति वर्ष 1.3 प्रतिशत, 1981 से 1990 तक 1.8 प्रतिशत, 1991 से 2000 तक 4.43 प्रतिशत और 2001 से 2010 तक 5.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसके बाद 2011 से मेडिकल कॉलेजों की औसत वार्षिक वृद्धि 6.68 प्रतिशत रही—जो पिछले पांच दशकों में सबसे अधिक है.
हालांकि, सीटों से ज्यादा उम्मीदवार हैं. ऊपर से राज्य डोमिसाइल कोटे का मतलब है कि छात्र अक्सर अपने भूगोल के कारण लाभ या हानि की स्थिति में रहते हैं.
कई राज्य अपनी सीटों का 80 से 85 प्रतिशत मूल निवासियों के लिए आरक्षित करते हैं. यह उन राज्यों में छात्रों के लिए तो फायदेमंद होता है जहां अधिक मेडिकल कॉलेज हैं.
दक्षिण भारत—जिसमें आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु और पुडुचेरी शामिल हैं—में देश की करीब 20 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन देश की कुल एमबीबीएस सीटों में 41 प्रतिशत (242 कॉलेजों में 33,000 सीटें) यहीं हैं.
देश के दो सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार—जहां करीब एक चौथाई आबादी बसती है—में केवल 71 मेडिकल कॉलेज हैं और इनमें 9,168 एमबीबीएस सीटें उपलब्ध हैं (कुल सीटों का लगभग 11 प्रतिशत).
डॉ. राजीव सूद के मुताबिक, भारत में मेडिकल कॉलेजों की ‘भारी कमी’ अधिक संस्थान स्थापित करने की दिशा में सरकार की देरी से उपजी है.
उन्होंने कहा, ‘काफी लंबे अरसे तक, सरकार ने मेडिकल कॉलेजों की संख्या नहीं बढ़ाई…वह तो केवल निजी क्षेत्र था, और वह भी दक्षिण भारत में, जो थोड़े-बहुत मेडिकल कॉलेज खोलता रहा.’
दक्षिण के फायदे
देश के मेडिकल कॉलेज की कुल क्षमता में सरकारी और निजी क्षेत्र की भागीदारी लगभग आधी-आधी है. हालांकि, दक्षिण भारत की तरफ रुझान की एक बड़ी वजह यह है कि देश के इस हिस्से में निजी कॉलेजों की संख्या तेजी से बढ़ी है.
पीयर-रिव्यू ओपन सोर्स जर्नल बीएमसी पब्लिक हेल्थ में 2020 के प्रकाशित एक पेपर के मुताबिक, 2009 से 2019 के बीच भारत के सभी निजी मेडिकल कॉलेजों में से 60.6 प्रतिशत महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में थे.
पेपर में कहा गया है कि यह विषमता इसलिए हो सकती है क्योंकि निजी क्षेत्र के खिलाड़ी इन राज्यों में ‘समुदाय की खर्च उठाने की क्षमता’ के साथ-साथ ‘संभावित छात्रों की पर्याप्त संख्या उपलब्धता’ के कारण इन राज्यों में मेडिकल कॉलेज स्थापित करने के लिए प्रेरित होते हैं.
दरअसल, इन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय औसत शुद्ध राष्ट्रीय आय (प्रति व्यक्ति) से अधिक है. भारतीय अर्थव्यवस्था पर आरबीआई की हैंडबुक के मुताबिक, 2019-20 में इन राज्यों में औसत प्रति व्यक्ति शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद (आय) 2.1 लाख रुपये था जबकि अखिल भारतीय औसत 1.34 लाख रुपये था.
इसके अलावा, मुंबई स्थित इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च द्वारा उच्च शिक्षा पर प्रति परिवार किए जाने खर्च संबंधी एक अध्ययन के मुताबिक, दक्षिण भारतीयों ने औसतन उच्च शिक्षा पर राष्ट्रीय औसत से अधिक खर्च किया. अध्ययन में यह भी कहा गया है, इसके अलावा ‘दक्षिणी राज्यों में रहने वाले लोगों के उत्तरी राज्यों के लोगों की तुलना में इंजीनियरिंग या मेडिकल डिग्री हासिल करने की संभावना अधिक होती है.’
यह भी पढ़ें : पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले भारतीय छात्रों के लिए केवल जगह बदलती है, मूल समस्या नहीं
इंजीनियरिंग बनाम मेडिकल कॉलेज
इंजीनियरिंग और मेडिकल भारत में पढ़ाई के दो सबसे पसंदीदा क्षेत्र हैं. हालांकि, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के आंकड़ों के मुताबिक, जहां इंजीनियरिंग कॉलेजों और इनकी सीटों की संख्या में अच्छी-खासी वृद्धि—2012-13 के बाद से 20 लाख से अधिक—हुई है. वही मेडिकल संस्थानों के मामले में ऐसा नहीं हुआ है.
विशेषज्ञों का कहना है कि इसका मुख्य कारण मेडिकल कॉलेज खोलने के नियम-कानून कड़े होने के साथ-साथ धन और बुनियादी ढांचे दोनों के स्तर पर व्यापक संसाधनों की जरूरत होना भी है, यही नहीं हाल तक निर्धारित भूखंड की आवश्यकता भी एक बड़ी वजह थी.
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘नया मेडिकल कॉलेज शुरू करने के लिए बड़े पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है, जिसे बहुत कम लोग वहन कर सकते हैं.’
उनके मुताबिक, एक नए मेडिकल कॉलेज की स्थापना में कम से कम 200 करोड़ रुपये की लागत आती है क्योंकि इसके लिए एक अस्पताल, रोगी के लिए जांच सुविधाएं, लैब और अन्य उपकरणों की आवश्यकता होती है. हालांकि, एक नया इंजीनियरिंग कॉलेज 15 करोड़ रुपये की शुरुआती लागत से स्थापित किया जा सकता है.
अधिकारी ने कहा, ‘पहले सरकार को मेडिकल कॉलेज के लिए कम से कम 10 एकड़ जमीन की जरूरत होती थी लेकिन नए नियमों में ये प्रावधान खत्म कर दिया गया है. हालांकि, अन्य आवश्यकताएं, जैसे 300-बेड वाला अस्पताल—जो दो साल से अधिक समय से चालू हो—जैसी शर्त कई लोगों के लिए मुश्किल बनी हुई हैं.’
एनएमसी के मुताबिक, किसी मेडिकल कॉलेज की स्थापना राज्य सरकार/केंद्र शासित प्रदेश के साथ-साथ किसी यूनिवर्सिटी, केंद्र और राज्य सरकार समर्थित किसी स्वायत्त निकाय, या चिकित्सा शिक्षा के उद्देश्य के लिए किसी कानून के तहत, सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 (1860 का 21) के तहत पंजीकृत सोसाइटी, या राज्यों में संबंधित अधिनियम, या ट्रस्ट अधिनियम के तहत पंजीकृत किसी सार्वजनिक धार्मिक या धर्मार्थ ट्रस्ट द्वारा जा सकती है.
2008 तक, 25 लाख या उससे अधिक की आबादी वाले शहरी क्षेत्रों को छोड़कर—जिसके लिए कम से कम 10 एकड़ भूमि की आवश्यकता थी, 25 एकड़ भूमि की आवश्यकता होती थी.
एनएमसी ने 2021-22 के बाद से न्यूनतम भूमि की अर्हता को खत्म कर दिया है, लेकिन मेडिकल कॉलेज स्थापना विनियम (संशोधन) 2020 नियमों में यह प्रावधान है कि किसी मेडिकल कॉलेज को कम से कम 300 बेड के साथ पूरी तरह चालू अस्पताल से जोड़ा जाना चाहिए (पूर्वोत्तर राज्य और पहाड़ी इलाकों को छोड़कर जहां 250 बेड होने चाहिए). शिक्षण संस्थान की शुरुआत करने से पहले ऐसे अस्पताल कम से कम दो साल से चल रहे होने चाहिए.
नियम यह भी कहते हैं कि छात्रों को शिक्षा देने वाला अस्पताल और आवासीय क्षेत्र एक ही परिसर में होना चाहिए. इसमें कहा गया है कि ‘यदि परिसर एक से अधिक भूखंडों में स्थित है, तो इन भूखंडों में से प्रत्येक के बीच की दूरी 10 किमी से कम या यात्रा में लगने वाला समय 30 मिनट से कम—इनमें से जो भी कम हो—होना चाहिए.’
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अधिकारी ने कहा कि इंजीनियरिंग संस्थानों की तुलना में मेडिकल कॉलेज के लिए स्टाफ रखना अधिक कठिन है, क्योंकि उन्हें उच्च वेतन देना होता है.
उन्होंने कहा, ‘मेडिकल कॉलेज फैकल्टी में सहायक प्रोफेसर के स्तर पर शामिल होने वाले का प्रारंभिक वेतन एक लाख रुपये होता है. इंजीनियरिंग कॉलेजों में इतने वेतनमान इतना ज्यादा नहीं हैं. कुछ कॉलेजों में फैकल्टी मेंबर 30,000 रुपये प्रति माह से भी शुरू करते हैं.’
नाम न जाहिर करने की शर्त पर स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अन्य अधिकारी ने कहा कि यदि मेडिकल कॉलेजों में बड़े बैच की अनुमति दी जाए तो कम से कम कुछ समस्याओं को तो दूर किया जा सकता है.
उन्होंने कहा, ‘हमें मेडिकल कॉलेजों में प्रति बैच सीटों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है. मौजूदा समय में किसी भी कॉलेज को एक क्लास में 250 से अधिक छात्रों को प्रवेश देने की अनुमति नहीं है. चीन जैसे देशों में एक बैच में 500 छात्र होते हैं…क्या उनके डॉक्टर कम गुणवत्ता वाले हैं? ऐसा तो नहीं हैं! हमें उस मॉडल को अपनाने की भी जरूरत है.’
इस अधिकारी के मुताबिक, एनएमसी की तरफ से एमबीबीएस के अंतिम वर्ष छात्रों के लिए एक नई योग्यता परीक्षा शुरू की जा रही है—जो 2023 से होने की उम्मीद है—और यह संभावित गुणवत्ता संबंधी समस्याएं दूर कर सकती है.
उन्होंने कहा, ‘अब जब हमने भारतीय कॉलेजों से क्वालीफाई करने वाले मेडिकल छात्रों के लिए एक्जिट परीक्षा शुरू कर दी है, तो हम और छात्रों को प्रवेश क्यों नहीं दे सकते? उनकी गुणवत्ता परीक्षा के माध्यम से आंकी जा सकती है.’
एनएमसी के अधिकारियों के अनुसार, एग्जिट परीक्षा का औचित्य यह सुनिश्चित करना है कि डॉक्टर नवीनतम प्रक्रियाओं के बारे में अपने ज्ञान को बेहतर बनाएं और प्रैक्टिस शुरू करने के लिए अच्छी तरह से तैयार हों.
हालांकि, कुछ चिकित्सा विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सीटें बढ़ा भी दी जाती हैं, तो योग्य शिक्षकों की कमी से काम में रुकावट आ सकती है.
योग्य शिक्षकों की कमी
पीजीआईएमईआर-आरएमएल के डीन डॉ. राजीव सूद का कहना है कि चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में एक प्रमुख मुद्दा योग्य शिक्षकों की कमी का है, जिसके बिना सीटें और ज्यादा बढ़ाना निर्रथक होगा.
एनएमसी के दिशानिर्देशों में कहा गया है कि प्रति 100 एमबीबीएस छात्रों पर 90 फैकल्टी सदस्य होने चाहिए. यदि कोई संस्थान इस क्षमता पर पूर्णकालिक फैकल्टी प्रदान करने में ‘असमर्थ’ है तो दिशानिर्देश कहते हैं, इस कमी को गेस्ट फैकल्टी से पूरा किया जा सकता है. दिशानिर्देशों में कहा गया है, ‘विजिटिंग फैकल्टी की नियुक्ति सालाना होने वाली एमबीबीएस छात्रों की भर्ती के लिए निर्धारित फैकल्टी की कम से कम 20 फीसदी होनी चाहिए.’
हालांकि, जमीनी हकीकत यह है कि यह सिर्फ कहने में आसान है, करने में नहीं.
डॉ. सूद ने कहा, ‘अभी, मेडिसिन, सर्जरी और प्रसूति-स्त्री रोग की फैकल्टी में 80 प्रतिशत से अधिक रिक्तियां हैं. जब तक हमारे पास योग्य फैकल्टी मेंबर नहीं होंगे, हम मेडिकल शिक्षा में और सीटें कैसे बढ़ा सकते हैं.’
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल और प्रोफेसर प्रो. शाहिद अली सिद्दीकी ने भी इस बात से सहमति जताई.
डॉ. सिद्दीकी ने कहा, ‘भारत में अधिकांश मेडिकल कॉलेजों में रिक्तियां हैं और इससे सीधे तौर पर छात्रों की भर्ती प्रभावित होती है. एनएमसी के दिशानिर्देशों के मुताबिक, प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या फैकल्टी मेंबर की संख्या पर निर्भर करेगी, इसलिए फैकल्टी में जितनी कमी होगी, उसी हिसाब से सीटें कम हो जाएंगी.’
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें : पहले चीन, अब यूक्रेन- कोविड और जंग के दोहरे झटके ने तमाम भारतीय छात्रों का डॉक्टर बनने का सपना धूमिल कर दिया