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Friday, 29 March, 2024
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मुश्किल में भारत के ‘ऑफसेट’ रक्षा करार, सुधार की ज़रूरत है

अब तक जिन 57 ‘ऑफसेट’ करारों पर दस्तखत किए गए हैं उनमें जुर्माना ही भरना पड़ा है और इसमें और बढ़ोतरी होनी की ही उम्मीद है

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राज्यमंत्री अजय भट्ट ने ‘ऑफसेट’ रक्षा करारों के बारे में पिछले महीने संसद में जो जवाब दिया उसने अंदाजा दे दिया कि ये करार किन बुरी स्थितियों में हैं जबकि भारत में रक्षा उत्पादन की क्षमताओं को आधुनिक प्रौद्योगिकी का लाभ दिलाकर मजबूती देने की जरूरत है. मंत्री ने बताया कि 21 ऑफसेट करारों में पिछले पांच वर्षों में वेंडरों ने 31 दिसंबर 2021 तक 2.24 अरब डॉलर के बराबर की देनदारी देने में चूक की है. उन्होंने यह भी बताया कि 16 मामलों में डिफ़ाल्टरों/ निष्क्रिय वेंडरों पर 431.4 लाख डॉलर का जुर्माना ठोका गया है. भट्ट ने यह भी बताया कि पिछले पांच साल में 31 दिसंबर 2021 तक 47 करारों में 2.64 अरब डॉलर के ऑफसेट दावे दाखिल किए गए हैं.

मंत्री का यह जवाब झटका देने वाला है क्योंकि इसका अर्थ यह है कि 57 ऑफसेट करारों की बड़ी रकम जुर्माने में बदल गई है, और रक्षा तथा सुरक्षा व्यवस्था के सूत्रों के अनुसार इसकी संख्या और बढ़ने वाली है.

यही नहीं, बड़ी रक्षा कंपनियों पर जुर्माना ठोका गया है. सूत्र बताते हैं कि इनमें लॉकहीड मार्टिन भी शामिल है जिस पर सी-130जे हरकुलस विमान से जुड़े काम के मामले में जुर्माना किया गया था, साफ़्रान (फ्रांस) है जो मीराज विमान के आधुनिकीकरण और राफेल विमान के अधिग्रहण के मामले में शामिल थी, थेल्स (फ्रांस) है जो मीराज के आधुनिकीकरण तथा ‘एचएएल’ के साथ रॉकेट से जुड़े प्रयासों में शामिल थी, यूरोपीय संघ ‘एमबीडीए’ है जो मीरज-2000एच के लिए ‘माइका’ मिसाइलें बनाने के काम में तथा राफेल के अधिग्रहण के मामले में शामिल थी, रोसोबोरोनएक्सपोर्ट (रूस) है जो कामोव का-28 हेलिकॉप्टरों, मिग-29 विमानों और एमआई-17 हेलिकॉप्टरों के सुधार के कामों में शामिल थी. इजराएल की एरोस्पेस इंडस्ट्रीज को हारोप तथा हेरोन ड्रोनों से जुड़े करारों के लिए जुर्माना का सामना करना पड़ा है.

2005 में, भारत ने आयातों के जरिए 300 करोड़ रुपये से ज्यादा की पूंजीगत खरीद के लिए डिफेंस ऑफसेट पॉलिसी अपनाई. विदेशी वेंडरों को खरीद की कीमत के कम-से-कम 30 प्रतिशत के बराबर का निवेश करने की शर्त राखी गई. पहला ऑफसेट करार 2007 में किया गया और उसके बाद से 57 करारों पर दस्तखत हो चुके हैं. 13.52 अरब डॉलर मूली के कुल 57 करार किए गए हैं जिन्हें 2033 तक पूरा किया जाना है.


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आगे कठिन दौर है

विशेषज्ञ लोग निजी बातचीत में कहते हैं कि अगले पांच साल में जुर्माने के मामलों में भारी वृद्धि होगी, हालांकि नए ऑफसेट करार नहीं किए जा सकते हैं. भारत उन चंद देशों में शामिल है जो प्रतिस्पर्द्धी टेंडरों की बोली के मूल्यांकन में ऑफसेट पैकेज की गुणवत्ता को आकलन की कसौटी नहीं बनाते.

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दिल्ली की ‘इनसाइटीओन कंसल्टिंग’ ने हाल के एक ‘वारगेम’ में पाया कि 1 अगस्त 2012 को जारी ऑफसेट दिशा-निर्देशों से पहले हुए करारों में जुर्माना करार की अवधि से तय होता था इसलिए गतिरोध तय था क्योंकि दोनों पक्ष लंबे समय तक निष्क्रिय रहते थे. यह भी पाया गया कि 57 करारों में से 50 से ज्यादा करार अभी भी खुले हैं.

इस प्रथा की सीएजी ने 2020 में काफी निंदा की थी और कहा था कि विदेशी वेंडर ठेके हासिल करने के लिए प्रायः ऑफसेट वादे कर लेते हैं और फिर टालमटोल करने लगते हैं. सीएजी ने रफाल सौदे में दासाल्ट एविएशन और एमबीडीए से मिले एक प्रस्ताव का उदाहरण दिया था. उसने कहा था कि 2005 से लेकर मार्च 2018 तक विदेशी वेंडरों के साथ कुल 66,427 करोड़ रु. के 46 ऑफसेट करार किए गए थे. ऑडिटर के मुताबिक, दिसंबर 2018 तक वेंडरों को 19,223 करोड़ रु. के ऑफसेट अदा किए जाने चाहिए थे लेकिन इसके केवल 59 प्रतिशत के बराबर के 11,396 करोड़ के दावे पूरे किए गए.

सीएजी ने कहा, ‘इसके अलावा, वेंडरों ने इन ऑफसेट दावों के केवल 48 फीसदी (5,457 करोड़ रु.) को जो पूरा किया उसे मंत्रालय ने स्वीकार किया. बाकी को खारिज कर दिया क्योंकि वे करारों की शर्तों और रक्षा विभाग की उगाही प्रक्रिया के अनुरूप नहीं थे.’

रफाल सौदे में ऑफसेट का होना फ्रांस वालों को भी अचंभित कर दिया. उन्होंने कहा कि यह सरकारों के बीच का सौदा था और इससे पहले ऐसे सौदों पर लागू नहीं था. लड़ाकू विमानों के लिए मूल टेंडर में 50 फीसदी के ऑफसेट की शर्त थी इसलिए भारत सरकार ने सीधी खरीद के लिए इसी शर्त पर ज़ोर दिया.


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विवाद निबटारे की संस्था बने

मोदी सरकार ने 2016 में किए गए रफाल सौदे की तरह, सरकारों के बीच के भावी सौदों ऑफसेट को गैर-जरूरी बना दिया था. अब और ज्यादा कदम उठाने की जरूरत है ताकि मौजूदा करारों को रक्षा मंत्रालय समेत सभी पक्षों की पसंद के मुताबिक पूरा किया जा सके.

आगामी वर्षों में अधूरी देनदारियों में वृद्धि होने वाली है इसलिए ऐसे मामलों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. ‘इंसाइटियोन कनसल्टिंग’ के संस्थापक राजीव चिब ने कहा कि विरासत में जो गतिरोध की स्थिति मिली है उसमें रक्षा मंत्रालय सप्लायरों को अपनी देनदारियां पूरी करने का एक और मौका देना चाहिए. यह भी सिफ़ारिश की गई कि यह दूसरा मौका नये नियमन/व्यापक नीति रूपरेखा के तहत मिलना चाहिए, जिसमें ‘ओरिजनल इक्विपमेंट मैनुफैक्चरर्स’ (ओईएम) को ऑफसेट देनदारियां पूरी करने करने की इजाजत हो. यह इजाजत उन प्रावधानों के तहत दी जाए जिनका संकेत रक्षा विभाग द्वारा खरीद की अब तक प्रकाशित किसी प्रक्रिया में दर्ज ऑफसेट प्रक्रियाओं में किया गया है. और इसके लिए रक्षा मंत्रालय विवाद निबटारे की अधिकार संपन्न समिति (ईडीआरबी) का गठन कर सकता है, जिसका नेतृत्व कोई वरिष्ठ नौकरशाह या उद्योग जगत का कोई पेशेवर कर सकता है और इसमें सेना तथा उद्योग जगत के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे.
ईडीआरबी का लक्ष्य सभी मौजूदा गतिरोध की स्थितियों को ऐसे समाप्त करना है कि उससे सबसे बेहतर परिणाम हासिल हो. इसमें नये प्रस्ताव की मांग करना और उसे रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत ‘डिफेंस एक्विजीशन काउंसिल’ के जरिए मंजूरी दिलाना शामिल हो.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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