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Monday, 18 November, 2024
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हवाई हमले का कमजोर पड़ना, एक ‘लोकतांत्रिक क्रांति’: रूस-यूक्रेन युद्ध से भारतीय वायुसेना के लिए सबक

यूक्रेन में रूसी वायु सेना की हार भारतीय वायुसेना के लिए मुश्किल सवाल खड़े करती है. तीन भाग की सीरीज के पहले भाग में, दिप्रिंट भारतीय वायुसेना के उपकरणों और सिद्धांत के लिए यूक्रेन युद्ध से मिले सबक की पड़ताल कर रहा है.

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नई दिल्ली: थ्री-पीस सूट पहने, क्रैवेट और सोने की पॉकेट-घड़ी के साथ रेलवे मैग्नेट और बैंकर जान बलोच युद्ध के भविष्य पर लंदन के रॉयल यूनाइटेड सर्विसेज इंस्टीट्यूशन में सैन्य विशेषज्ञों को व्याख्यान दे रहे थे. बलोच ने तर्क दिया, ‘यह महज दिखावटी युद्धाभ्यास है. वास्तविक युद्ध से इसका कोई लेना-देना नहीं है.’ उन्होंने चेतावनी दी थी कि मशीन गन जैसी तकनीक ‘होने वाली मौतों को इतने भयानक स्तर पर बढ़ा देंगी कि सैनिकों को आगे बढ़ाना असंभव हो जाएगा’.

लड़ाकू तकनीकों के प्रभावों पर जनरलों ने नौसिखिये सिद्धांतकार की 1901 की बात को नजरअंदाज कर दिया. स्पेनिश रणनीतिकार मैनुअल फर्नांडीज सिल्वेस्ट्रे ने 1914-1918 के विख्यात युद्ध की पूर्व संध्या पर जोर देते हुए कहा था, ‘यूरोप में भविष्य के संघर्षों को ‘एक दिन की मुश्किल लड़ाई’ में सुलझा लिया जाएगा.

यूक्रेन में युद्ध के आठ महीने बाद, रूस की सैन्य विफलता दुनिया भर के रणनीतिकारों को सबसे अधिक खोजे जाने वाले प्रश्न पूछने के लिए मजबूर कर रही है क्योंकि हीराम मैक्सिम की मशीन-गन ने 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में घोड़ों से चलने वाली सेनाओं की उम्र को पूरी तरह से खत्म कर दिया था.

सैन्य सबक पर इस सीरीज के पहले भाग में नई दिल्ली को युद्ध से क्या सीखना चाहिए पर दिप्रिंट पड़ताल कर है कि भारतीय वायु सेना (आईएएफ) के लिए इसका क्या मायने हैं.

रूसी एयर पावर क्यों खो गई

दो पीढ़ियों से नई दिल्ली के रणनीतिक सोच ने इस विश्वास के इर्द-गिर्द काम किया है कि भारतीय वायु सेना भविष्य के युद्धों में अपनी पकड़ बनाने में सक्षम होगी. एयर मार्शल वी.के. भाटिया ने लिखा है कि IAF को न सिर्फ पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एयर फोर्स का मुकाबला करने का काम सौंपा गया है, बल्कि ‘संख्यात्मक रूप से अधिक मजबूत चीनी सैन्य बलों से बचने’ के लिए क्लोज-एयर सपोर्ट भी प्रदान करना है. 2012 में जारी भारतीय वायु सेना का मूल सिद्धांत था– ‘हवा में नियंत्रण को प्राथमिकता देना, ताकि दुश्मन की वायु सेना की अपनी सतह बल कार्रवाई में हस्तक्षेप करने की क्षमता कुंद हो जाए’.

रूसी वायु सेना – जिसका 2015 में नाम बदलकर वोज्दुश्नो-कोस्मिच्स्की सिली (वीकेएस), यानी एयर एंड स्पेस फोर्स कर दिया गया था – रूस के यूक्रेन अभियान का नेतृत्व करने के लिए थी. इसकी विफलता ने भारतीय वायुसेना के लिए एक मुश्किल सवाल खड़ा कर दिया है. सिर्फ इसलिए नहीं कि यह रूस में निर्मित अपने एक बेड़े में शामिल उपकरणों का संचालन करती है, बल्कि हवाई युद्ध की बदलती प्रकृति के साथ मूलभूत मुद्दों के कारण भी उसके सामने सवाल खड़े हुए हैं.

फरवरी में लड़ाकू विमानों की संख्या को देखते हुए – जब रूस ने यूक्रेनी वायु सेना या पोविट्रीनी सिली उक्रेयनी (पीएसयू) को जमीन पर नष्ट करने के लिए बड़े पैमाने पर हमले शुरू किए और उनके एअर डिफेंस के साथ-साथ कमांड सेंटरों को भी नष्ट कर दिया – जीत अपरिहार्य लग रही थी. वीकेएस द्वारा संचालित 772 लड़ाकू विमानों की तुलना में पीएसयू के पास 69 लड़ाकू विमान थे.

दोनों देशों की ओर से ऑपरेट किए जा रहे अटैक हेलीकाप्टरों की संख्या में अंतर 544 और 34 था. जबकि जमीनी हमले वाले करने वाले विमान, 739 और 29 थे. इसके अलावा, दोनों देशों ने एक जैसे उपकरण संचालित किए थे.

ग्यारह सौ मिसाइलें – जिसमें VKS बेड़े में सबसे भारी टीयू -95 ‘बियर’ और टीयू -160 ‘ब्लैकजैक’ बॉम्बर समेत क्रूज मिसाइलें शामिल हैं- ने युद्ध के पहले 10 दिनों में यूक्रेन को काफी चोट पहुंचाई थी. एक विशेषज्ञ के अनुमान के अनुसार, यूक्रेन में दागी गई क्रूज और कम दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलों की संख्या अगस्त तक तीन गुना से अधिक बढ़कर 3,650 हो गई – जो भारत के पूरे आर्सेनल के आकार का आठ गुना है.

मिसाइल और सटीक-युद्धपोत अपने लक्ष्यों का अनुमानित 90 प्रतिशत पर निशाना बनाने में कामयाब रहे थे. लेकिन वे यूक्रेनी एअर डिफेंस या कमांड सेंटरों को कमतर करने के लिए कुछ भी नहीं कर पाए. लक्षित रनवे कुछ ही घंटों के भीतर फिर से ऑपरेट करने के लिए तैयार खड़े थे. कीव ने रूसी सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी. पूर्वी डोनबास में लड़ाई – पूर्वी यूक्रेन में – एक रॉकेट-और-आर्टिलरी स्लॉगिंग मैच में बदल गई, जो सैनिकों के लिए अपरिचित नहीं होती.

VKS योजना के अनुसार चीजें नहीं होने के कारण साफ रहे हैं. एक, यूक्रेन की रूसी निर्मित और सप्लाई की गई लंबी दूरी की S-300 सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली, मध्यम दूरी की SA-11 Gadfly (Buk-M1) और छोटी दूरी की SA-8 गेको प्रणाली VKS एअर मिशन के लिए एक महत्वपूर्ण निवारक साबित हुई.

रूस-यूक्रेन युद्ध ने दिखा दिया कि हवाई युद्ध नजदीकी काईनेटिक एक्शन से बियोंड-विजुअल-रेंज में बदल गया है, जो इलेक्ट्रॉनिक युद्ध क्षमताओं के अलावा दुश्मन के राडार को जाम कर सकती है और आने वाली मिसाइलों को खराब कर सकती है, सेंसर, उन्नत एक्टिव इलेक्ट्रॉनिकली स्कैन एरे (AESA) रडार और लंबी दूरी की मिसाइलें काम आ रही हैं.

रूसी सेना पर नजर रखने वाले एक सैन्य विमानन विशेषज्ञ गाइ प्लॉप्स्की ने बताया कि वीकेएस सटीक-हमले और अन्य मिशन के लिए एयरबोर्न अर्ली वार्निंग एंड कंट्रोल (AEW&C), इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर (EW) और इंटेलिजेंस, सर्विलांस एंड टोही (ISR) एयरक्राफ्ट जैसे मानवयुक्त कॉम्बैट सपोर्ट प्लेटफॉर्म के अपेक्षाकृत एक छोटे बेड़े को ऑपरेट करता है.

उन्होंने रेखांकित किया कि VKS और अग्रणी पश्चिमी वायु सेनाओं के बीच C4ISR (कमांड, नियंत्रण, संचार, कंप्यूटर, खुफिया, निगरानी और टोही), इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर, लक्ष्य प्राप्ति और लक्ष्यीकरण, स्टील्थ, प्रिसिजन-गाइडेड वेपेंस और अन्य प्रासंगिक क्षेत्रों में एक बड़ा क्षमता अंतर है.

जब रूस ने अपना मिसाइल ब्लिट्जक्रेग लॉन्च किया, तो वह पश्चिमी वायु सेना के सिद्धांत का पालन कर रहा था, जो कि सबसे पहले इतालवी जनरल गिउलिओ डौहेट, यू.एस. आर्मी एयर कॉर्प्स के ब्रिगेडियर जनरल बिली मिशेल और रॉयल एयर फोर्स के एयर मार्शल ह्यूग ट्रेंचर्ड द्वारा निर्धारित मार्ग था.

मैक्सिमिलियन के. ब्रेमर, अमेरिकी वायु सेना के एयर मोबिलिटी कमांड में विशेष कार्यक्रम प्रभाग के निदेशक और अटलांटिक काउंसिल के स्किक्राफ्ट सेंटर फॉर स्ट्रैटेजी एंड सिक्योरिटी में न्यू अमेरिकन इंगेजमेंट इनिशिएटिव के एक रेजिडेंट फैलो केली ए ग्रिको ने नोट किया कि वायु शक्ति सिद्धांत के इन संस्थापक नेताओं ने ‘कमांड ऑफ एअर’, या आज के सिद्धांत में ‘वायु वर्चस्व’ को जीतने और बनाए रखने का समर्थन किया था.

डौहेट ने सुझाव दिया ‘हवा पर नियंत्रण रखने का मतलब है, खुद को उड़ान भरने की क्षमता को प्रभावित करे बिना दुश्मन को उड़ान भरने से रोकने की स्थिति में होना.’

लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने वायु नियंत्रण या वायु वर्चस्व के इस पश्चिमी सिद्धांत के खिलाफ सवाल खड़े कर दिए हैं, जिसका अनुसरण भारतीय वायुसेना भी करती है.

सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज, नई दिल्ली के महानिदेशक एयर मार्शल अनिल चोपड़ा (रिटायर्ड) ने दिप्रिंट को यह समझाते हुए कि ‘एअर डिनायल’ अब युद्ध का मुख्य फोकस हो सकता है, बताया, ‘सवाल यह है कि क्या हवाई प्रभुत्व जरूरी है या उसकी क्षमता को कम करना. अगर हम चीन के साथ भविष्य का युद्ध करते हैं, तो भारत और चीन दोनों ही एक बेहद चुनौतीपूर्ण जगह पर खड़े दिखाई देंगे और दोनों में से कोई भी एक-दूसरे के एअर स्पेस पर पूरी तरह से नियंत्रण करने में सक्षम नहीं होगा.’

ब्रेमर ने उल्लेख किया कि यह सोचना मूर्खता होगी कि वायु क्षेत्र और वायु शक्ति भविष्य के युद्धों के लिए कम प्रासंगिक हैं या यह कि रूसी अयोग्यता वायु शक्ति की भूमिका के बारे में अनुपयोगी सबक प्रदान करती है.

उन्होंने तर्क दिया कि अप्रासंगिक से बहुत दूर हवाई क्षेत्र का नियंत्रण युद्ध का महत्वपूर्ण बिंदु है.

एक एअर डिनायल की रणनीति को अपनाकर – अर्थात एअर डिफेंस को रूस के मानवयुक्त विमानों और खतरे से बाहर रखना – कीव ने न सिर्फ यूक्रेनी सेना की ताकत का पता लगाने की रूस की क्षमता को असफल किया है बल्कि कभी-कभार होने वाली घटनाओं का तेजी से जवाब देने की उसकी क्षमता को भी विफल कर दिया. साफ है कि पलटवार कहां हो रहा है. यह आसानी से इस बात का विश्लेषण करता है कि, एअर डिनायल– जोकि हवाई श्रेष्ठता की पारंपरिक अवधारणा नहीं – यूक्रेन की युद्धक्षेत्र की सफलता की एक शर्त है.

भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान के सूत्रों ने कहा कि भविष्य के युद्ध न सिर्फ उस पक्ष से जीते जाएंगे जो पहले दुश्मन पर फायर करता है, बल्कि वह भी जो पहले दुश्मन को देखता है.

और यहीं पर रूसी वायु सेना, जो बड़े पैमाने पर आक्रामक अभियानों को अंजाम देने में सक्षम होने के बजाय एक रक्षात्मक बल के रूप में अधिक उन्मुख थी, को चुनौती मिली.

S-300 वायु रक्षा प्रणाली, भले ही मौजूदा समय की S-500 से दो पीढ़ी पीछे हो, रूसी लड़ाकू विमानों के लिए एक दुर्जेय निवारक है.

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चीजों को काम करने के लिए वीकेएस ने प्रिसिजन- गाइडेड वेपंस के अपने सीमित भंडार को तेजी से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, जिनका रूसी कारखानों ने पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण 2014 में उत्पादन करना बंद कर दिया था. हाई-प्रिसिशन 9M729 क्रूज मिसाइल आधा दर्जन सॉकेट अटैचमेंट पॉइंट्स से मिलने वाली जानकारी से निर्देशित होती है. यह डेटा को इसके हीट-शील्ड के जरिए उस तक पहुंचाता है. इन सॉकेट-अटैचमेंट पॉइंट्स का निर्माण संयुक्त राज्य की कंपनियों द्वारा किया जाता है.

इसी तरह, 9M949 रॉकेट में अमेरिका में निर्मित फाइबर-ऑप्टिक जाइरोस्कोप का इस्तेमाल किया गया था. रूसी TOR-M2 एअर डिफेंस सिस्टम यूनाइटेड किंगडम में डिज़ाइन किए गए एक ऑसिलेटर्स का उपयोग करती है, जो अब उपलब्ध नहीं है.

वीकेएस ने प्रिसिशन-गाइडेड हथियारों की बाद की कमी का जवाब निम्न-स्तरीय ग्राउंड-अटैक मिशन के साथ दिया. ये मिशन सोवियत निर्मित इग्ला सिस्टम के अलावा, खुद को संयुक्त राज्य द्वारा आपूर्ति की गई एफआईएम -92 स्टिंगर शोल्डर-फायर मिसाइलों और ब्रिटिश-निर्मित स्टारस्ट्रेक की घातक हमलों से सामना करने के लिए था.

भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान के सूत्रों ने बताया कि युद्ध ने उजागर कर दिया है कि रूसी लड़ाकों में आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक युद्ध की क्षमता और विजुअल रेंज से परे लड़ने की क्षमता नहीं है, जिससे उन्हें यूक्रेनी वायु रक्षा प्रणालियों के बबल के भीतर आने के लिए मजबूर होना पड़ा.

अमेरिका और चीन जैसे देशों के पास कई इलेक्ट्रॉनिक युद्धक विमान हैं जो दुश्मन के राडार और वायु रक्षा प्रणालियों को जाम और खराब करने के लिए अपने लड़ाकू जेट के साथ उड़ान भरने में सक्षम हैं.

वीकेएस के नुकसान का अनुमानित 175 नष्ट और 68 कब्जे वाले विमानों तक है. इसमें कई अत्याधुनिक सुखोई एसयू -34 भारी लड़ाकू विमान भी शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक की कीमत अनुमानित 35 मिलियन डॉलर है.

लेकिन अगर यूक्रेनियन के पास एअर डिफेंस सिस्टम है, तो रूसियों और अन्य घातक देशों के पास भी ऐसा ही है.

किस तरह से युनाइटेड स्टेट्स के सैन्य तकनीशियनों द्वारा उनके मिग-29 जेट्स में फिट की गई विकिरण-विरोधी मिसाइलों ने यूक्रेनियनों की मदद की, जिससे उन्हें रूसी एअर डिफेंस को नाकाम करने में मदद मिली.

दरअसल इसने यूक्रेनियन वायु सेना को 3,200 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से मिसाइल के बेड़े को रेडिएशन ट्रांसमिशन के रूप में एक शक्तिशाली काउंटर-पंच दिया. इसने या तो रूसी राडार को नष्ट कर दिया या फिर पता न लगा पाने की वजह से उन्हें बंद करने के लिए मजबूर दिया.

ऊपर उद्धृत सूत्रों ने बताया कि शुरुआती झटके और मूल रूसी सोच कि ‘कीव जल्द ही हथियार गिरा देगा’ की विफलता ने रूसी सेना के भीतर कमजोर मनोबल को जन्म दिया.

सूत्रों ने कहा, रूसियों के साथ एक और मसला अटैक हेलिकॉप्टरों पर खुली निर्भरता थी.

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सूत्रों ने बताया, ‘रूसियों ने अपने अफगानिस्तान के अनुभव से नहीं सीखा, जहां उन्होंने स्टिंगर्स के कारण 300 से ज्यादा हेलीकॉप्टर को खोना पड़ा था. ऐसा ही कुछ यूक्रेन में हुआ जहां कंधे से दागी गई मिसाइलों से उन्हें आसानी से मार गिराया गया. उन्हें अपने सिद्धांतों को बदलना चाहिए था.’ सूत्र के मुताबिक, हालांकि हेलीकॉप्टर उपयोगी हैं, लेकिन वे एक स्टिंगर के बबल के भीतर नहीं उड़ सकते.

यूक्रेन में थोड़े सी जीत के लिए रूसी अटैक हेलीकॉप्टरों को गंभीर नुकसान पहुंचा है. यूनाइटेड स्टेट्स आर्मी- जोकि अपने OH-58 Kiowas और UH-60 ब्लैकहॉक्स हेलीकॉप्टरों के रिप्लेसमेंट पर विचार कर रही है- ऐसे प्लेटफॉर्म की तलाश कर रही हैं, जो मौजूदा हेलीकॉप्टर के सेट की तरह उच्च और धीमी गति के बजाय रडार-डिटेक्शन लेवल से नीचे तेजी से उड़ान भर सकें.


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एअर पावर तकनीक में क्रांति

यूक्रेन युद्ध से बहुत पहले, रूसी तकनीक की सीमाओं को महसूस करते हुए भारत अपने रूसी निर्मित Su-30 बेड़े को इजरायली इलेक्ट्रॉनिक्स-वारफेयर सूट के साथ फिट करने ओर कदम बढ़ा चुकी थी. बालाकोट हमले के बाद के हवाई हमले में, जहां उसके सुखोई-30 एमकेआई, लंबी दूरी की AAMRAM मिसाइलों के साथ वाले पाकिस्तानी एफ16 से बेजोड़ थे, भारत ने विमान में इजरायल निर्मित डर्बी मिसाइलों को फिर से लगाने की भी मांग की. IAF लंबे समय से अत्याधुनिक राफेल जैसे पश्चिमी निर्मित विमानों की मांग करता रहा है.

हालांकि हवाई युद्ध के दौरान बुनियादी मुद्दों को उठाया गया, जो भारतीय वायुसेना को खरीदारी की जरूरत से कहीं आगे तक जाते हैं. नई पीढ़ी की एअर पावर सिर्फ बड़े तकनीकी-औद्योगिक बुनियादी ढांचे या गहरी जेब वाले राष्ट्र-राज्यों के लिए उपलब्ध थी.

जैसा कि विशेषज्ञ मैक्सिमिलियन ब्रेमर और केली ग्रिको कहते हैं, यूक्रेन में युद्ध ने एक ऐसी दुनिया से पर्दा उठा दिया है जहां वायु शक्ति का लोकतंत्रीकरण किया गया था. और इस पूरे विचार पर सवाल खड़ा कर दिया कि पारंपरिक वायु सेनाएं हवाई श्रेष्ठता से जीत सकती हैं.

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यूक्रेन युद्ध वार-विनिंग वेपंस तकनीक के इर्द-गिर्द बनाया गया है, जिसे मुस्तैदी से खरीदा जा सकता है. यूक्रेनी सशस्त्र बलों द्वारा अब 6,000 से ज्यादा छोटे ड्रोन ऑपरेट करने की सूचना है, जो ज्यादातर कमर्शियल इस्तेमाल में आने वाले वेरिएंट से लिए गए है. रूसी कवच पर सटीक हमले करने से लेकर लंबी दूरी की तोपची सैन्य दल की सटीक निर्देशांक देने तक, ड्रोन ने प्रसिद्ध रूसी सैन्य रणनीति पर कहर बरपाया है.

विशेषज्ञ आरोन स्टीन ने उल्लेख किया कि भले ही बहुप्रतीक्षित तुर्की-निर्मित बायरकटार TB2 जैसे ड्रोन प्रचारक वीडियो के सुझावों की तुलना में पारंपरिक वायु-रक्षा के लिए अधिक असुरक्षित हो, लेकिन TB2 सस्ते हैं, प्रत्येक की कीमत 5 मिलियन डालर से कम है, और भरपाई करना आसान है, क्योंकि यह कमर्शियल एयरोस्पेस एप्लीकेशन के लिए निर्मित कंपोनेंट का भी इस्तेमाल करता है.

विशेषज्ञ पीटर विल्सन ने अनुमान लगाते हुए कहा, भविष्य के हवाई युद्धों में रोबोटिक सिस्टम और भी बड़ी भूमिका निभा सकते हैं, विशेष रूप से खतरनाक ग्राउंड-स्पोर्ट मिशन या अनदेखे लक्ष्यों पर मंडराने के लिए. पूर्व भारतीय एयर मार्शल अनिल चोपड़ा ने कहा, ‘ ये घूमते जंगी हथियार सस्ते और बहुत घातक हैं.’

चोपड़ा ने बताया, ‘बड़े ड्रोन राडार छोड़ते हुए चलते है, जिससे उन्हें दुश्मन को ट्रैक करने में आसानी होती है, लेकिन छोटे वाले पूरी तरह से अनडिटेकटेबल होते है.’

भारत ने ड्रोन तैयार करने में पैसा लगाया है. न्यूस्पेस और आईडियाफोर्ज जैसी स्वदेशी कंपनियां ड्रोन-स्वार्म, ऑटोनोंस विंगमैन और निगरानी पर काम कर रही हैं. लेकिन विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है, भारतीय सैन्य खरीद प्रणाली धीमी है और इसमें देरी की वजह से अक्सर तकनीकी परिवर्तन से हम पीछे रह जाते हैं.

भारत में न तो एक अच्छी तरह से विकसित घरेलू एयरोस्पेस इकोसिस्टम है और न ही उस तरह की गहरी सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल जिसने 2002 में तुर्की की रक्षा बिक्री को 1 अरब डॉलर से बढ़ाकर पिछले साल 11 अरब डॉलर कर दिया था.

मुश्किल समय में कठिन चुनौतियां

इन बड़ी चुनौतियों का सामना करने के अलावा भारतीय वायुसेना कुछ मुश्किल अल्पकालिक वास्तविकताओं का भी सामना कर रही है. यूक्रेन के लंबे चले इस संघर्ष में जिस तरह के हथियारों भंडार की जरूरत है, भारत उसके आस- पास भी नहीं है. 2019 के अंत में पूर्व चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बिपिन रावत ने दिप्रिंट को बताया था कि उन्होंने पाकिस्तान के साथ 10 दिन के गहन युद्ध के लिए भंडार बनाया है और चीन के साथ 30 दिनों तक के संघर्ष के लिए भंडार तैयार किया हुआ है.

IAF के लिए कोई डेटा उपलब्ध नहीं है. लेकिन इसमें शामिल भारी लागत और बजट में धीमी वृद्धि को देखते हुए, यह असंभव है कि हथियारों का जखीरा चीन से मेल खा सके. खासतौर पर लंबे समय तक चलने वाले संघर्ष में.

कुछ के मुताबिक, भारत पहले ही गलत दिशा में कुछ कदम उठा चुका है. इस महीने की शुरुआत में IAF ने स्वदेश निर्मित हल्के लड़ाकू हेलीकॉप्टर का अपना पहला स्क्वाड्रन खड़ा किया. सेना की योजना कई और हमलावर हेलिकॉप्टरों को भी शामिल करने की है.

एक वरिष्ठ रक्षा अधिकारी ने कहा, ‘यूक्रेन का अनुभव वास्तविक नियंत्रण रेखा (भारत और चीन के बीच) पर हेलीकॉप्टर के कंधे से दागी जाने वाली मिसाइलों के लिए आसान लक्ष्य प्रदान करेगा.’

नेशनल डिफेंस कॉलेज के पूर्व कमांडेंट एयर मार्शल दीपेंदु चौधरी (सेवानिवृत्त) ने तर्क दिया कि मुख्य समस्या यह थी कि रूस बदलते सैन्य परिदृश्य के साथ जुड़ने के लिए अपनी सोच में सुधार करने में विफल रहा. उन्होंने बताया, ‘वीकेएस में बदलाव संगठनात्मक पुनर्गठन और सतही परिवर्तनों तक सीमित था. कोई स्वतंत्र सैद्धांतिक परिवर्तन नहीं हुआ है’.

अमेरिकी वायु सेना (USAF) को ब्रेमर का संदेश कुछ ऐसा है जिस पर IAF को भी विचार करना चाहिए. उन्होंने कहा था, यूएसएएफ़ को महंगी और उत्कृष्ट क्षमताओं पर जोर देने के बजाय मानव रहित और स्वायत्त प्रणालियों और हजारों छोटे और सस्ते ड्रोन के साथ वाली रणनीति की ओर अधिक तेजी से बढ़ना चाहिए. साथ ही अपने बेड़े में हजारों छोटे और सस्ते ड्रोन को भी शामिल किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘वरना वायु सेना भी मुख्य रूप से पायलट वाले विमानों पर केंद्रित एक बल संरचना को कस कर पकड़कर रखने वाली रूस की गलतियों को दोहराने का गंभीर जोखिम उठा सकती है. इस तरह के विमानों से ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है जहां रिस्क उठाना काफी महंगा होता है और लंबे समय तक युद्ध के दौरान नुकसान बनाए रखने के लिए यह काफी छोटा कदम साबित होता है.’

तो क्या कमर्शियल -डयुअल यूज तकनीक, जैसे कि शक्तिशाली ड्रोन और सटीक उपग्रह इमेजरी, उतने ही उत्कृष्ट साबित होने जा रहे हैं जितने कि – काल्पनिक रूप से महंगे – अत्याधुनिक सैन्य उपकरण? क्या नए विमान-रोधी हथियार पारंपरिक लड़ाकू विमानों को अप्रासंगिक बना देंगे? क्या रोबोटिक्स में प्रगति मानवयुक्त वायु सेना को अतीत की बात बना सकती है?

हम निश्चित रूप से नहीं जानते – लेकिन यह बहुत साफ है: युद्ध कल्पना से परे भयावह है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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