नई दिल्ली: लगभग तीन दशक पहले 1,300 फीट की ऊंचाई पर लटकी एक केबल कार में बैठे 10 यात्री और एक जांबाज़ पैरा कमांडो, एक साहसी बचाव अभियान के केंद्र में आ गए जिससे ज़ाहिर हो गया कि बलों के भीतर एकीकरण की कितनी संभावनाएं हैं.
अक्तूबर 1992 में कर्नल इवान जोज़फ क्रैस्टो (रिटा) ने, जो उस समय भारतीय सेना में मेजर थे- अपने साथियों और भारतीय वायुसेना के कुछ टॉप हेलिकॉप्टर्स के साथ मिलकर उस ख़तरनाक अभियान को अंजाम दिया था, जिसमें चंडीगढ़ से करीब 35 किलोमीटर दूर परवानू में फंसे हुए यात्रियों को बचाया गया था.
यात्रियों को बचाने के लिए ऑफिसर को ऊपर मंडरा रहे हेलिकॉप्टर से लटकी हुई केबल कार के अंदर उतारा गया था, जिसमें फंसे हुए यात्री ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे.
48 घंटे चले उस सफल अभियान को सेना और भारतीय वायुसेना ने संयुक्त रूप से अंजाम दिया था. अभियान के लिए कर्नल क्रैस्टो को कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया था.
टिंबर ट्रेल बचाव अभियान
हिमाचल प्रदेश के परवानू में शिवालिक पहाड़ियों के बीच बना टिंबर ट्रेल रिज़ॉर्ट, 1980 के दशक की शुरूआत से ही सैलानियों के बीच काफी लोकप्रिय रहा है और 1988 से वहां का एक मुख्य आकर्षण रही है केबल कार की सवारी, जो यात्रियों को रिज़ॉर्ट की एक प्रॉपर्टी से चंडीगढ़-शिमला हाईवे के साथ साथ, 1.8 किलोमीटर दूर पहाड़ी की चोटी पर बनी एक दूसरी प्रॉपर्टी पर ले जाती है, जो समुद्र तल से 5,000 फीट की ऊंचाई पर है.
13 अक्तूबर 1992 को, क़रीब 10 यात्रियों को हिल प्रॉपर्टी पर ले जा रही केबल कार बीच में ख़राब हो गई, और ख़ौफज़दा यात्री 1,300 फीट की ऊंचाई पर लटके रह गए.
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बाद में उसी दिन एक शुरूआती रेकी करने के बाद, 14 अक्तूबर को सेना और वायुसेना ने फंसे हुए यात्रियों को बचाने के लिए, एक साझा अभियान शुरू किया.
एक एमआई-17 हेलिकॉप्टर को काम में लगाया गया और कर्नल क्रैस्टो को चॉपर से चर्खी की सहायता से नीचे उतारा गया, जो पांचवें प्रयास में लटकी हुई कार में उतर पाए.
ऑफिसर केबल कार में दाख़िल हुए और एक के बाद एक उन्होंने यात्रियों को चर्खी की मदद से ऊपर चॉपर में पहुंचाया. टीम शाम तक केवल आधे यात्रियों को बचा पाई थी, जब अभियान को रोकना पड़ा.
लेकिन, कर्नल क्रैस्टो वापस नहीं गए. वो उन बाक़ी यात्रियों के साथ केबल कार में ही रुके रहे, जो अभी फंसे हुए थे.
क्रैस्टो को नक़दीक से जानने वाले एक वरिष्ठ सेना अधिकारी ने कहा, ‘वो केबल कार में ही ठहरे रहे, उन्होंने यात्रियों के लिए गाने भी गाए, ताकि उनमें घबराहट न हो और उनका हौसला बना रहे’.
अगले दिन बचाव अभियान फिर शुरू हुआ, और कर्नल क्रैस्टो ने बाक़ी बचे सैलानियों को चर्खी से ऊपर चॉपर में पहुंचाकर बचा लिया. सभी यात्रियों को बचाने के बाद ही वो केबल कार से बाहर निकले.
कौन हैं क्रैस्टो?
नौसेना कर्मियों के एक परिवार से आने वाले सम्मानित अधिकारी क्रैस्टो को 1978 में 1 पैरा (एसएफ) में कमीशन मिला था. उन्होंने आगे चलकर 21 पैरा (एसएफ) की कमान संभाली, और दो दशकों से ज़्यादा समय तक, सैन्य संचालन निदेशालय समेत अलग अलग अहम नियुक्तियों में सेना में सेवाएं दीं.
मूल रूप से गोवा के रहने वाले क्रैस्टो, अब ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में बसे हुए हैं, जहां वो एक स्थानीय स्कूल में गणित पढ़ाते हैं.
ऊपर हवाला दिए गए सेना अधिकारी ने कहा कि कर्नल क्रैस्टो को उनके जूनियर्स हीरो की तरह देखते थे. अधिकारी ने कहा, ‘वो एक बेहद समर्पित प्रोफेशनल थे, जो न सिर्फ चीज़ों की बारीकियों से वाकिफ थे, बल्कि व्यापक रणनीति पर भी नज़र रखते थे’.
अधिकारी ने आगे कहा कि वो बेहद पढ़े-लिखे इंसान थे, और बहुत तरह के विषयों पर बात कर सकते थे.
तालमेल का प्रदर्शन
ऊपर हवाला दिए गए सेना अधिकारी ने दिप्रिंट से कहा, कि इस कठिन बचाव अभियान को अंजाम देने के लिए कर्नल क्रैस्टो को इसलिए चुना गया, कि वो एक स्काईडाइवर रह चुके थे. अभियान में उनके साथ 1 पैरा के तब के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल पीसी भारद्वाज (एक ले. जन. जो बतौर उप-सेना प्रमुख रिटायर हुए) और हवलदार कृष्ण कुमार (अब एक रिटायर्ड सूबेदार) भी थे.
आईएएफ की ओर से हेलिकॉप्टर पायलट्स ग्रुप कैप्टन सुभाष चंदर (रिटा, तब एक विंग कमांडर) और ग्रुप कैप्टन परितोष उपाध्याय (रिटा. तब एक फ्लाइट लेफ्टिनेंट) अभियान में शामिल थे. पूर्व वायुसेना प्रमुख एफएच मेजर ने, जो उस समय एक ग्रुप कैप्टन थे, अभियान के समन्वय और निगरानी का काम किया, और रेकी के लिए उड़ानें भरीं.
ऊपर हवाला दिए गए ऑफिसर ने कहा, ‘उसके लिए आईएएफ पायलट्स के अंदर ज़बर्दस्त कौशल की ज़रूरत थी, ताकि ये सुनिश्चित हो कि वो एक ख़ास जगह पर ऊपर मंडराते रहें, इसके बावजूद कि केबल कार के तार चॉपर के बहुत क़रीब थे’.
ऑफिसर ने कहा कि वो अभियान, सेना और वायुसेना के बीच साझापन और एकीकरण का एक प्रदर्शन था, और यही वो चीज़ है जिसे रक्षा बल थिएटर कमांड्स स्थापित करके हासिल करना चाह रहे हैं.
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