नई दिल्ली: सीमावर्ती क्षेत्र, जिसे आज हम लाइन ऑफ कंट्रोल (एलओसी) के नाम से जानते हैं, में छिटपुट झड़पों के बीच 26 मई 1960 की सुबह भारत के तत्कालीन रक्ष मंत्री वी.के. मेनन ने अपने ऑफिस में एक टॉप-सीक्रेट बैठक बुलाई. इसमें एक घाघ सेना प्रमुख और मेनन के धुर विरोधी जनरल कोदंडेरा सुबैया थिमैया मौजूद थे. और साथ ही वायु सेना प्रमुख, एयर मार्शल सुब्रतो मुखर्जी भी पहुंचे.
इस दौरान सैन्य प्रमुखों को मिले निर्देश साफ थे कि भारतीय सीमा पर स्थित चौकियों के पास अधिक से अधिक हवाई पट्टियां बनाने के लिए उपयुक्त स्थान खोजें. उद्देश्य था, भारत की तरफ से निकटतम सड़कों से दूर हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों में स्थापित की जानी चौकियों तक आसानी से साजो-सामान की आपूर्ति हो सके.
फिर, पांच महीने बाद 20 अक्टूबर, 1960 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक बार फिर कुछ निर्देश जारी किए. अब भारत-चीन सीमा के पास उड़ानों को प्रतिबंधित कर दिया गया था. भारतीय वायु सेना को सीमा के भीतर 24 किलोमीटर दायरे में सॉर्टी या टोही मिशन चलाने की सख्त मनाही थी. केवल परिवहन विमानों को ही सीमा तक उड़ान भरने की अनुमति हासिल थी.
दिसंबर 1961 में मेनन ने इस नियम में तत्काल छूट देने संबंधी के अनुरोध को स्वीकार कर लिया. इसके तहत, इलाके का नक्शा तैयार करने के उद्देश्य से कैमरों से लैस कुछ विशिष्ट विमानों को उड़ान की अनुमति दी गई. यही अक्साई चिन, तवांग, सेला और वालोंग क्षेत्रों में सेना का टोही मिशन बना.
फिर, साल 1962 आया और दोनों देशों के बीच एक युद्ध छिड़ गया.
इस दौरान, भारतीय वायुसेना ने किसी रणनीतिक मिशन में हिस्सा नहीं लिया और एक तरह से आक्रामणकारी अभियानों से बाहर ही रही. इसके बजाये, इसने केवल परिवहन और आपूर्ति संबंधी अभियानों को ही अंजाम दिया.
आधुनिक भारत के सैन्य इतिहास में संभवतः यही सबसे ज्यादा चर्चित सवाल है, ‘क्या होता?’ अगर भारतीय वायु सेना 1962 के भारत-चीन युद्ध का हिस्सा बनती तो क्या नतीजा भारत के पक्ष में बदल सकता था?
इस सवाल पर जंग के दौरान भी गहन मंथन और तीखी बहस चलती रही थी.
1992 में रक्षा मंत्रालय (एमओडी) की तरफ से दर्ज किया गया युद्ध का ब्योरा—जो अभी भी क्लासीफाइड है और जिसे दिप्रिंट ने हासिल किया है—बताता है कि भारतीय वायु सेना को अपने अभियान की सफलता का भरोसा नहीं था.
दरअसल, भारत ने इस तरह की धारणा बना रखी थी कि आसमान में चीनियों की श्रेष्ठता का कोई जवाब नहीं है. केवल कुछ सांकेतिक खुफिया जानकारी उपलब्ध थी और इसे जब दुर्गम इलाके और बुनियादी ढांचे के अभाव के साथ मिलाकर देखा गया तो एक निराशाजनक तस्वीर उभरकर सामने आती थी. यहां गौर करने वाली बात यह है कि भारतीय वायु सेना के विमानों की कुछ गतिविधियां—यद्यपि परिवहन तक ही सीमित—चल रही थी लेकिन चीन की तरफ कोई उड़ानें नहीं थीं.
रक्षा मंत्रालय की तरफ से दर्ज जंग का आधिकारिक इतिहास बताता है, उस समय हवाई सेवा संबंधी बुनियादी ढांचा बेहद कमजोर था. राडार नहीं थे, और लेह में उपलब्ध एकमात्र रेडियो लिंक की रेंज बमुश्किल 16 किलोमीटर तक थी और हर दिन केवल एक ही विमान की सॉर्टी हो पा रही थी. पूर्वी मोर्चे की बात करें तो जंगलों से भरे इलाकों में तितर-बितर होकर अभियान चला रही इंफैंट्री की मदद के लिए विमानों को भेजना किसी जोखिम से कम नहीं था.
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‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ पर अमल
कृष्णा मेनन ने कथित तौर पर वायु सेना की तैनाती के लिए पूरा मन बना रखा था. सैन्य प्रतिष्ठान अधिक सतर्क था और जनरल थिमैया आगे बढ़ने से पहले सेना को मजबूत करने की रणनीति पर विचार करने पर जोर दे रहे थे. लेकिन स्थिति पूरी तरह बदल गई जब ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ पर अमल का फैसला किया गया.
भारतीय सैन्य प्रतिष्ठान आधिकारिक तौर पर जिसे फॉरवर्ड पॉलिसी कहते हैं, वो दरअसल चीन के कब्जे वाले इलाकों पर फिर से दावेदारी जताते हुए अग्रिम चौकियों को स्थापित करने का निर्देश था. माना जाता है कि यही नीति 1962 के जंग की तात्कालिक वजह बनी.
फॉरवर्ड पॉलिसी पर अमल का राजनीतिक निर्णय 2 नवंबर, 1961 को एक शीर्ष-गोपनीय बैठक में लिया गया था. नेहरू की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में मेनन के अलावा, चीफ ऑफ जनरल स्टाफ लेफ्टिनेंट जनरल बी.एम. कौल, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) निदेशक बी.एन. मुलिक और नए सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल पी.एन. थापर मौजूद थे.
इस नीति को लेकर सबसे तीखी प्रतिक्रिया जनरल थिमैया की ओर से आई, जो मई 1961 में रिटायर हो चुके थे. जब मुलिक ने पहली बार उन्हें इस नीति का प्रस्ताव दिखाया था तभी उन्होंने इसे खारिज कर दिया था. साथ ही आगाह किया था कि भारतीय सेना जब तक पूरी आक्रामकता के साथ हमले में सक्षम नहीं होती तब तक उसे आक्रामक रणनीति नहीं अपनानी चाहिए. दूसरी ओर, नेहरू ने दिसंबर में लोकसभा में अग्रिम सैन्य चौकियों संबंधी रणनीति का समर्थन किया.
फॉरवर्ड पॉलिसी को लेकर चीन का मानना था कि यह चीनी क्षेत्र पर कब्जे और यथास्थिति को बदलने की दिशा में नेहरू सरकार का आधिकारिक कदम है. इसके निहितार्थ भी काफी गहरे रहे कि नेहरू और चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई के बीच 1960 की वार्ता सीमा क्षेत्र से जुड़ी चिंताओं को कूटनीतिक माध्यम से हल करने में विफल रही थी.
नेहरू संसद में भी लगातार घिरते जा रहे थे. स्थिति इतनी तनावपूर्ण हो गई थी कि 5 दिसंबर, 1961 को संसद सदस्यों को अपना आपा खो देने से रोकने के लिए अध्यक्ष को कई बार हस्तक्षेप करना पड़ा. बांबे के एक सांसद बापू नाथ पाई ने नेहरू की आलोचना करते हुए सवाल उठाया कि ‘तैयारियों को लेकर इस तरह प्रचार क्यों कर रहे हैं?’
इस नीति ने भारत और चीन के बीच गतिरोध तोड़ा, लेकिन भारतीय वायुसेना की तैनाती को लेकर सवाल अभी भी अधर में ही था.
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वायुसेना की तैनाती पर जताई गई आपत्ति
यद्यपि सशस्त्र बलों में वायु सेना के सहयोग को लेकर एक हिचाकिचाहट थी लेकिन इसे लेकर सबसे ज्यादा आपत्ति इंटेलिजेंस और डिप्लोमैटिक चैनलों की तरफ से जताई गई.
वायु सेना को तैनाती न करने के भारत के फैसले को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले तीन लोगों में आईबी निदेशक, भारत में अमेरिकी राजदूत और रक्षा मामलों के लिए एक ब्रिटिश सलाहकार शामिल थे.
आईबी निदेशक मुलिक ने अपने संस्मरण में लिखा है कि चीन के बमवर्षक विमान ‘दक्षिण में मद्रास तक हमले’ में पूरी तरह सक्षम थे, खासकर भारत के पास नाइट इंटरसेप्टर न होने को देखते हुए. वह चीनी क्षमताओं पर खुफिया जानकारी एकत्र करने वाले अफसरों में एक थे.
उनकी राय में साथ देने वाले भारत में अमेरिकी राजदूत प्रो. जे.के. गैलब्रेथ भी थे, जिनका मानना था कि युद्ध के दौरान भारतीय वायु सेना की तैनाती नहीं करनी चाहिए. गैलब्रेथ के मुताबिक, भारतीय विमान ज्यादा से ज्यादा तिब्बत तक पहुंच पाएंगे और वहां उन्हें कोई सार्थक लक्ष्य भी हासिल होने वाला नहीं है.
दूसरी ओर, यदि चीनी अपनी वायु सेना का इस्तेमाल करते तो गंगा के पूरा मैदानी इलाके, और कम से कम कोलकाता तक का क्षेत्र जोखिम में आ जाता. ऐसी जानकारी भी सामने आती है कि भारत ने हवाई सहयोग का अनुरोध किया था. गैलब्रेथ ने 19 नवंबर 1962 को युद्ध के दौरान भारतीय शहरों की रक्षा के लिए अमेरिकी लड़ाकू विमानों की मदद मांगने का जिक्र किया है. हालांकि, इस अनुरोध को पूरा नहीं किया गया था.
और फिर बारी आती है एक ब्रिटिश सैन्य सलाहकार प्रो. पी.एम.एस ब्लैकेट की, जिन्होंने नेहरू को अपनी पेशेवर सलाह दी थी कि वायु सेना का उपयोग केवल सामरिक उद्देश्यों के लिए किया जाना चाहिए क्योंकि इसकी तैनाती से युद्ध और ज्यादा विकराल हो सकता है.
कुल मिलाकर, इन सबके बीच वायु सेना का इस्तेमाल न करने का निर्णय लिया गया. जबकि उस समय वायुसेना मुख्यालय इसके पक्ष में था. जंग खत्म होने के बाद, चीफ ऑफ जनरल स्टाफ कौल ने 1967 के अपने संस्मरण में कहा था कि भारत ने ‘इन अभियानों के दौरान वायु सेना को कोई बड़ी सहायक भूमिका न देकर एक बड़ी गलती की थी.’
लेकिन तमाम रिकॉर्डों बताते हैं कि वायु सेना मुख्यालय ने चीन की तरफ से हवाई हमलों के खतरे को लेकर अलग-अलग समय पर अलग-अलग आकलन किए थे. रक्षा मंत्रालय का आधिकारिक सैन्य इतिहास बताता है, ‘इस विचार पर ऐसा कोई सटीक या प्रामाणिक दस्तावेज नहीं है जिसे आक्रामक ढंग से हवाई हमले न करने का फैसला लिए जाने की ठोस वजह माना जा सके.’
ऐसा लगता है, तमाम मिश्रित राय ही यह कदम न उठाने की वजह बनीं.
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