scorecardresearch
Thursday, 30 May, 2024
होमसमाज-संस्कृति‘शाबाश मिथु’ एक दमदार शाबाशी की हकदार क्यों नहीं बन पाई

‘शाबाश मिथु’ एक दमदार शाबाशी की हकदार क्यों नहीं बन पाई

मिताली के बचपन से शुरू करके यह फिल्म उनके नेशनल टीम में चुने जाने और वर्ल्ड कप खेलने तक के लंबे सफर को दिखाती है.

Text Size:

एक सीन देखिए. भारत की महिला क्रिकेट टीम विदेश से लौट कर एयरपोर्ट पर अपने सामान का इंतजार कर रही हैं कि पुरुष क्रिकेट टीम के खिलाड़ी वहां से गुजरते हैं. एक प्रशंसक अपने पसंदीदा खिलाड़ी के साथ फोटो खिंचवाने के लिए महिला क्रिकेट टीम की कप्तान को ही अपना मोबाइल पकड़ा देती है. उसे तो क्या, किसी को भी नहीं पता कि वह लड़की भी क्रिकेटर है, नेशनल टीम की सदस्य है, बल्कि उसकी कप्तान मिताली राज है.

भारतीय महिला क्रिकेट टीम की सफलतम खिलाड़ी मिताली राज की बायोपिक के बहान से यह फिल्म इसी फर्क को दिखा रही है कि जब पुरुष और महिला, दोनों ही खिलाड़ी देश के लिए खेल रहे हैं तो उनके बीच भेदभाव क्यों? यह इस देश की किसी भी महिला खिलाड़ी की कहानी हो सकती है, बल्कि है भी क्योंकि हर किसी ने कमोबेश एक-सा ही संघर्ष किया है और एक-सा ही भेदभाव झेला है. लेकिन दिक्कत यह है कि यह फिल्म एक ‘संघर्ष गाथा’ से अधिक एक ‘भेदभाव कथा’ बन कर सामने आती है जो हमें उद्वेलित भले करे, आंदोलित और रोमांचित नहीं कर पाती.

मिताली के बचपन से शुरू करके यह फिल्म उनके नेशनल टीम में चुने जाने और वर्ल्ड कप खेलने तक के लंबे सफर को दिखाती है. यह दिखाती है कि महिला क्रिकेट बोर्ड का ऑफिस, होस्टल, उन्हें मिल रहीं सुविधाएं तो घटिया स्तर की हैं ही, उन्हें मिल रहे सम्मान, शोहरत, रुतबे आदि का स्तर भी हल्का ही है.  फिल्म यह भी दिखाती है कि कैसे इन लड़कियों और खासतौर से मिताली की कोशिशों ने भारतीय महिला क्रिकेट को ऊंचे मकाम तक पहुंचाया और इनके प्रति लोगों की सोच बदली.

फिल्म- शाबाश मिठू

लेकिन यह फिल्म उतनी दमदार और असरदार नहीं है जितनी होनी चाहिए थी या हो सकती थी. पहली वजह है इसकी स्क्रिप्ट, जो कहीं भटकी हुई तो कहीं बहुत खिंची हुई लगती है. एक लंबे समय तक यह मिताली के बचपन को ही दिखाती है और हमें लगता है कि बस इसके बाद असली वाला एक्शन शुरू होगा. लेकिन यहां उसका एक अलग ही संघर्ष शुरू होता है और हम उम्मीद करते हैं कि बस इसके बाद कोई एक्शन होगा. लेकिन इससे पहले कि कुछ बड़ा हो, फिल्म एक अलग ही ट्रैक पर जा निकलती है. आखिरी के 10 मिनट में ‘एक्शन’ होता है तो उसकी तेज रफ्तार देख कर लगता है कि निर्देशक की दिलचस्पी एक्शन दिखाने में है ही नहीं.

इस किस्म की फिल्में जब तक रोमांचित और आंदोलित न करें, रूखी लगती हैं. अफसोस होता है कि निर्देशक श्रीजित मुखर्जी इतने दमदार विषय को कायदे से साध नहीं पाए. क्रिकेट की पिच पर मिताली राज का सफर काफी लंबा रहा है. उन्हें बहुत पहले अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री तक मिल गया था. लेकिन यह फिल्म उनकी उपलब्धियों की बजाय उनकी मजबूरियों को ज्यादा दिखाती है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

हालांकि यह फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में बेहतर बनी है. मिताली का बचपन, भरतनाट्यम के गुरों का क्रिकेट में इस्तेमाल, नूरी से उसकी दोस्ती, क्रिकेट कोच संपत का जुनून, बाद में उसका आवाज उठाना जमता है. लेकिन यही बात पूरी फिल्म के बारे में यकीनन नहीं कही जा सकती. तापसी पन्नू ने मिताली के किरदार को जम कर पकड़ा है. उनकी मेहनत पर्दे से निकल कर आपको छूती है. कोच बने विजय राज़ बेहद प्रभावी रहे हैं. गहरी अदाकारी दिखाई है उन्होंने. बृजेंद्र काला, समीर धर्माधिकारी, मुमताज़ सरकार, शिल्पी मारवाह, बेबी इनायत वर्मा, बेबी कस्तूरी जगनम, नीलू पासवान, देवदर्शिनी आदि का अभिनय भी उम्दा है. गाने सुनने में अच्छे हैं लेकिन बहुत ज्यादा हैं और सैकिंड हॉफ में तो फिल्म की गति को भी रोकते हैं.

फिल्म- शाबाश मिठू

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपकफिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)

share & View comments