नई दिल्ली: आज तक बात सिर्फ लड़कियों की, उनके रंग की और उनके मोटापे की होती रही है. क्योंकि समाज भी सिर्फ लड़कियों के लुक्स, स्टाइल और रंग के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. इन सबके बीच पुरुष समाज गौण ही रहा है. उनका मोटापा, उनका रंग और उनका गंजापन इसपर न तो कभी बात हुई और न ही कभी बात करने की कोशिश ही की गई.
लेकिन हां जैसे-जैसे पुरुषों में गंजेपन की समस्या बढ़ी वैसे-वैसे अखबारों में झड़ते बालों से निदान को लेकर, हेयर प्लांटेशन, आर्युवेदिक तेल और विग के विज्ञापन जरूर अखबारों और बैनरों में बढ़े हैं. एक रुपये में अपने गिरते बालों को बचाएं से लेकर झड़ते बालों को बचाने का एकमात्र तेल जैसे विज्ञापनों से हमलोग हर दिन दो चार होते हैं. जिस तरह से समाज डार्क स्किन लड़कियों पर फब्तियां कसने से बाज नहीं आता और उन्हें सुंदर बनाने के लिए उनके इमोशंस से खेलता है. पांच मिनट से लेकर 15 मिनट के भीतर गोरा बना देने का दावा करने वाली क्रीम और उसके भ्रामक विज्ञापन बना कर मजाक उड़ाया जाता है, ठीक वैसे ही यह समाज गंजे होते लड़कों को भी जीने नहीं देता. टकले, गंजे और उजड़ा चमन जैसे शब्दों से उनकी जिंदगी मुहाल बना देता है.
गंजे होते लड़के, जिन लड़कों के बाल झड़ रहे हैं उनकी चिंता से तो हम सभी रूबरू होते रहे हैं लेकिन ये झड़ते बाल उनके लिए कितनी बड़ी पीड़ा हैं उसे समझने का समय आ गया है. ये रंग जो वर्षों से हमारी आपकी जिंदगी में तो खूब घुला मिला है लेकिन इसे पर्दे पर जगह नहीं मिली थी. आखिर उसे सिनेमा जगत ने भी स्वीकार लिया और इसे पर्दे पर जीवंत कर दिया बाल मुकुंद शुक्ला उर्फ ‘बाला’ (आयुष्मान खुराना) ने.
एक 25 साल के युवा लड़के के सिर से बाल जब झड़ने लगते हैं तो वह उसे बचाने के लिए क्या-क्या उपाय करता है. किस हद तक जा सकता है या जाता है. ऐसे ही युवाओं के जज्बातों को समाज के सामने लाती फिल्म है ‘बाला’.
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युवा अपने झड़ते बालों को बचाने के लिए तेल और इलाज तो छोड़िए हर वो हथकंडे अपनाता है कि बस उसके सिर के बाल न जाएं. वह गंजा, टकला और उजड़ा चमन न कहलाए हर एक पहलू को बखूबी उतारा गया है इस फिल्म में.
फिल्म की कहानी
कानपुर के बैकग्राउंड पर बनी ये फिल्म, कई कॉस्मोपॉलिटन और टियर-2 और थ्री शहर की दीवार तोड़ती है. फिल्म बालमुकुंद शुक्ला यानी ‘बाला’ के बचपन से सीधे जवानी में पहुंचती है और जिंदगी की सारी परतों को खोलती है. बचपन में अपने लंबे बालों और जबरदस्त एटीट्यूड के लिए पहचाने जाने वाले बाला के बाल 25 की उम्र में ही उड़ने लग जाते हैं.
फिल्म उत्तर प्रदेश के कानपुर और लखनऊ की पृष्टभूमि के इर्द गिर्द घूमती है. 25 की उम्र में बाला गिरते बालों को बचाने के लिए 200 से ज्यादा नुस्खे अपनाता है लेकिन अपने लहराते बालों को बचा नहीं पाता. आखिर में विग ही उसका सहारा बनता है. अपने गहरे रंग की वजह से बचपन से लोगों का ताना सुनती आईं लतिका त्रिवेदी (भूमि पेडनेकर) भी अपनी भूमिका में दमदार लगी हैं. लेकिन उनके चेहरे पर काला रंग कुछ ज्यादा ही पोत दिया गया है. लेकिन वह लतिका ही हैं जिन्हें हमेशा लगता है कि जो जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार किया जाना चाहिए. लेकिन उनकी मूछों वाली मौसी (सीमा पाहवा) अपनी बच्ची की शादी के लिए परेशान उसे मोबाइल में गोरा बनाकर मेट्रीमोनियल साइट पर डालती रहती हैं जिसकी जानकारी लतिका को नहीं होती है. फिर आती हैं परी मिश्रा (यामी गौतम), द टिकटॉक क्वीन, जो सच में बाला की जिंदगी के लिए परी होती हैं और फिर शुरू होता है फिल्म का असली मजा.
हर उस शख्स जिसने अपने बाल कम उम्र में खोए हैं और गंजेपन के मज़ाक का शिकार बने हैं उसकी जुबां बनकर आयुष्मान ने न सिर्फ एक संदेश दिया बल्कि जमकर गुदगुदाया भी है. फिल्म में आयुष्मान कई बार आपकी बात कहते नजर आएंगे. वह जॉब के साथ अपना स्टैंडिंग कॉमेडियन वाला शौक भी खूब पूरा करते दिखाई देते हैं. जैसा कि आज का युवा सोशल मीडिया और टिकटॉक वीडियो के बीच अपने शौक को अंजाम देते हुए नज़र आता है. लेकिन कई जगहों पर फिल्म जबरदस्ती वाली लगती है.
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अखबार के विज्ञापन को कहानी में बदलकर स्क्रीन पर पेश करने वाले डायरेक्टर अमर कौशिक और कहानीकर नीरेन भट्ट ने क्या खूब उकेरा है. बीच-बीच में बैकग्राउंड संगीत फिल्म को मजेदार बनाती है. सुनिधि चौहान और सचिन जिगर का संगीत बहुत देर तक दिमाग को झनझनाता है.
बदलना क्यूं हैं
‘बाला’ महज गंजेपन की कहानी नहीं है. ‘गंजापन’ इस फिल्म के मुख्य किरदार की कहानी है लेकिन ये फिल्म हर उस शख्स को अपने साथ जोड़ती है जो कभी न कभी अपनी जिंदगी में समाज के तानों के बाद अपने लुक्स को लेकर, अपनी कमियों को लेकर परेशान हो जाते हैं. जहां कई लोग इन तानों के साथ जीना सीख जाते हैं तो कई खूबसूरती के इन पैमानों में खुद को फिट करने के लिए हर वो नुस्खे आजमाते हैं जिससे वह सुंदर लग सकते हैं ऐसा उन्हें लगता है. लेकिन बाद में पता चलता है कि यह सब झूठ है, मिथ्या है…बदलना ही क्यूं हैं…जो है जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार करना चाहिए.