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Sunday, 28 April, 2024
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सांवले लोगों के देश में गोरे एक्टर को सांवला बनाने की क्यों पड़ती है जरूरत

भारत के लोगों को सारी दुनिया में ब्राउन माना जाता है. सांवला रंग यहां बेहद आम है. लेकिन फिल्मों में सांवला किरदार निभाने के लिए अक्सर गोरे एक्टर को मेकअप करके सांवला बनाया जाता है. ये कैसी समस्या है?

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बहस पुरानी है. सत्यजीत राय से लेकर विमल मित्र तक ने चेहरे के रंग को लेकर विवादास्पद कृत्य किए हैं. इस बार एक्ट्रेस भूमि पेडनेकर बहस के केंद्र में हैं. आने वाली फिल्म ‘बाला’ में उनके चेहरे पर डायरेक्टर-प्रोड्यूसर ने काला मेकअप कराया है. वे खुद गोरी हैं, पर किरदार के लिए सांवली बनाई गई हैं. सवाल पूछा जा रहा है कि गोरे एक्टर को सांवला बनाने की क्या जरूरत थी, जबकि किसी सांवली एक्टर को भी इस किरदार में लिया जा सकता था. भारत में ज्यादातर लोग सांवले या गेहुएं रंग के हैं, ऐसे में कास्टिंग डायरेक्टर को कोई सांवली एक्ट्रेस क्यों नहीं मिली?

सवाल जायज है. पर इसके भी अपने तर्क हैं. एक्टर्स का काम अन्चीन्हे, अनजाने किरदारों को बखूबी परदे पर उतारना होता है. यह कहां का तर्क हुआ कि किसी खास समुदाय के रोल के लिए उसी समुदाय के लोगों को फिल्म में लिया जाए? मिसाल के लिए, मेरी कॉम के किरदार के लिए क्या ये जरूरी है कि किसी नॉर्थ ईस्ट की लड़की को ही कास्ट किया जाए? प्रियंका चोपड़ा की अभिनय प्रतिभा के साथ क्या ये अन्याय न होगा कि वह सिर्फ एक किस्म के किरदार करें?

पर इस बात का क्या जवाब है कि फिल्मों में किसी पंजाबी किरदार के लिए आप किसी नॉर्थ ईस्ट वाले एक्टर या एक्ट्रेस को कब रखेंगे? तब उसके चेहरे मोहरे को बखूबी तौला जाएगा. ये बहुत आम है कि किसी नॉन-ट्रांसजेंडर कलाकार को ट्रांसजेंडर का रोल दिया जाता है. लेकिन क्या ये इतना ही सामान्य है कि किसी ट्रांसजेंडर कलाकार को नॉन-ट्रांसजेंडर का रोल दिया जाए.

ब्लैकफेस का इतिहास बहुत दुखद है

गोरे वर्ण पर काला पोतना इसीलिए ऑफेंसिव है क्योंकि गोरे रंग पर काला पोतने का एक लंबा इतिहास रहा है. अमेरिकन थियेटर में ब्लैकफेस लगभग सौ साल पहले आम बात थीं. इसमें नॉन ब्लैक ऐक्टर्स, चेहरे पर काला मेकअप करके ब्लैक ऐक्टर्स बनते थे. धीरे-धीरे यह चलन दूसरे देशों में भी पहुंचा. इसके बाद इसका इस्तेमाल फिल्मों में हुआ. ब्लैकफेस ऐक्टर्स मूल रूप से कॉमेडी किया करते थे- नॉन ब्लैक हीरोइन को रिझाना, उछलना-कूदना, हंसना-हंसाना. यह वह दौर था जब अमेरिका में ब्लैक्स को भयानक नस्लवाद का सामना करना पड़ता था. लिचिंग आम बात थी. श्वेतों के वर्चस्व वाले कू क्लक्स क्लैन जैसे समूह अफ्रीकन अमेरिकन्स को हिंसा का शिकार बनाते थे.

उसी दौरान 1915 में अमेरिकी गृह युद्ध पर बनी फिल्म ‘द बर्थ ऑफ अ नेशन’ ने खूब धूम मचाई. इसमें ब्लैकफेस ऐक्टर्स को बहुत बुरे फ्रेम में दिखाया गया था. वे श्वेत औरतों को परेशान करते थे, दंगे भड़काते थे, एनिमल इंस्टिंक्ट वाले थे. फिल्म के एक विवादास्पद सीन में एक ब्लैकफेस पुरुष से बचने के लिए एक श्वेत महिला पहाड़ी से कूदकर जान दे देती है. फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़ सफलता प्राप्त की थी. ब्लैक क्रिमिनोलॉजी की माइथोलॉजी क्रिएट करने में इस फिल्म ने अहम भूमिका निभाई.

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अमेरिका के नस्लीय इतिहास पर केंद्रित 2016 की डॉक्यूमेंटरी ‘थर्टीन्थ’ में कहा गया है कि इसके बाद कू क्लक्स क्लैन का मानो पुनर्जन्म हो गया था. फिल्म की तरह कू क्लक्स क्लैन अश्वेतों का सार्वजनिक रूप से ट्रायल करते थे. लिंचिंग उसी का हिस्सा था. उसका रूप इतना वीभत्स था कि लिंचिंग के पोस्टकार्ड तक बांटे जाते थे. उन पोस्टकार्ड्स पर लिंचिंग की तस्वीरें छपी रहती थीं. तब के पोस्टकार्ड, आज का सोशल मीडिया बन गया है.

ऐसे स्याह इतिहास के संदर्भ में फिल्मों को देखा जाना चाहिए. भले ही वह दुनिया के किसी भी कोने का इतिहास हो. चेहरे को काला करने का इतिहास दुखद त्रासदियों, नस्लीय दुर्भावना और मनुष्य जाति के दमन से भरा हुआ है. उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. खासकर तब, जब कोई सामाजिक मुद्दे पर फिल्में बनाने का दावा करता हो. अपनी फिल्म में नैतिकता की बहस छेड़ने के बाद हम खुद इस नैतिकता के संवाद को खारिज नहीं कर सकते. हमें उसका हिस्सा बनना ही होगा. पिछले दिनों कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने 18 साल पहले अपने ब्लैकफेस एक्ट पर संसद में माफी मांगी और स्वीकार किया कि यह उनकी नस्लवादी हरकत थी.

भारत में रंग और सामाजिक ऊंच-नीच का भाव

भूमि पेडनेकर का ब्लैक फेस या जिसे हम ब्राउन फेस भी कह सकते हैं, ब्लैकफेस के वैश्विक इतिहास से काटकर नहीं देखा जा सकता, भले ही भारत में उसका परिप्रेक्ष्य अलग है. न ही फिल्मकारों को उससे बेखबर रहने की छूट दी जा सकती है. आखिरकार स्किन टोन को लेकर भारत में भी लोगों को भेदभाव का शिकार बनाया जाता है. सफेद वर्ण के प्रति हमारा पूर्वाग्रह साफ झलकता है, पर स्किन टोन से जुड़ा कोई कमेंट कितने जातिसूचक हो सकते हैं, यह बात ऐक्ट्रेस तनिष्ठा चैटर्जी की सोशल मीडिया पोस्ट से साफ समझी जा सकती है. जब एक टीवी कॉमेडी शो में उनके स्किन टोन पर चुहलबाजी की गई तो उन्होंने शो की शूटिंग बीच में ही छोड़ दी.


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इसके बाद एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया – ‘एक बार किसी ने मुझसे पूछा आपका सरनेम चैटर्जी है तो आप ब्राह्मण होती हैं ना.. अच्छा आपकी मां का सरनेम क्या है… मोइत्रा.. ओह.. वह भी ब्राह्मण हुईं.’ तनिष्ठा ने लिखा- ‘वह शख्स इनडायरेक्टली कहना चाहता था कि जब मैं ब्राह्मण हूं तो फिर मेरा स्किन टोन डार्क क्यों है?’

रंग का ताल्लुक नस्ल और जाति से भी है

ऐसा पूछा जाना आम है कि कोई ब्राह्मण काला कैसे हो सकता है- इसका उलटा यही है कि कोई दलित गोरा कैसे हो सकता है? क्योंकि रंग का ताल्लुक नस्ल से ही नहीं, जाति से भी जोड़ा जाता है? तभी विमल मित्र जैसे फिल्मकार की सुजाता दलित होने के कारण काली दिखाई जाती है और रमा ऊंची जाति की होने के कारण गोरी. सत्यजीत राय भी जब अपनी फिल्म अरण्येर दिन-रात्रि बनाते हैं और आदिवासी लड़की के किरदार के लिए सिमी गरेवाल के चेहरे पर काला मेकअप करवा देते हैं. हरियाणा में तो स्टाफ सलेक्शन कमीशन की परीक्षा में बाकायदा काले ब्राह्मण और अपशकुन का संबंध पूछ लिया गया.

सामाजिक समूह और वर्ण को लेकर जब चहुंओर यह सोच कायम हो तो न तो भूमि इस बहस से भाग सकती हैं और न ही ‘बाला’ फिल्म के डायरेक्टर-प्रोड्यूसर. उन्हें हर सवाल का जवाब देना ही होगा.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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