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Friday, 26 April, 2024
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एक गंजे भारतीय पुरुष की कुंठाएं व सपनों की कहानी है ‘उजड़ा चमन’

उजड़ा चमन वो फिल्म है जिसने ऐसे विषय को केंद्र में रखा जिससे बहुत से लोग रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में जूझते हैं, पर कोई परदे पर नहीं दिखाता है.

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आप एक आदर्श साथी में क्या ढूंढते हैं ? अच्छा और दयालु होने जैसी इच्छाओं के अलावा भी हमारे मन में छुपे तौर पर एक लिस्ट होती है, जिसके आधार पर हम तय करते हैं कि सामने वाला इंसान हमारे प्यार के लायक है या नहीं. हालांकि किसी ऐसे इंसान से मिलने पर, जिस से आप दिल से कनेक्ट कर पायें, वो लिस्ट धरी की धरी रह जाती है. लेकिन, यह हमारे दिमाग में महत्वपूर्ण स्थान बना लेती है. अभिषेक पाठक की उजड़ा चमन यही बताती है कि कैसे यह लिस्ट हर कदम पर हमारी खुशियों की तलाश में बाधा डालती हैं.

यह फिल्म 30 वर्षीय हिंदी के प्रोफेसर चमन कोहली (सनी सिंह) की कहानी है, जिसकी सबसे बड़ी खासियत है. उसका गंजा होना. उसके छात्रों से लेकर राह चलते अजनबियों तक- हर कोई उसके बालों की कमी का मज़ाक उड़ाता है या इसे किसी शर्मनाक तरीके से इंगित करता है. उसका गंजा होना उसकी शादी में सबसे बड़ी रूकावट है. जब भी उसे लड़की वाले देखने आते हैं तो उसके बारे में हर चीज़ को पसंद किया जाता है, पर अफ़सोस उसका गंजा होना. उसकी बाकी सभी अच्छाइयों पर भारी पड़ जाता है.

मालूम पड़ता है कि चमन के 31वें जन्मदिन से पहले उसकी शादी होना ज़रूरी है. फिर क्या- एक सही लड़की की तलाश उसके घर वालों की ज़िन्दगी का मकसद सा बन जाता है. जब सब ओर से हताशा हाथ लगती है, ऐसे में चमन एक ऑनलाइन डेटिंग एप्प के ज़रिये अप्सरा (मानवी गगरू) से मिलता है. अप्सरा 29 साल की एक मेकअप आर्टिस्ट है जो खुद अपने ज्यादा वज़न की परेशानियों को झेल रही है. दोनों पहली नजर में एक-दूसरे को नापसंद करते हैं, लेकिन धीरे- धीरे दोस्ती बढ़ने लगती है. इस दोस्ती के प्यार में बदलने की पूरी संभावनाएं हैं, लेकिन चमन की कुंठाएं इसमें रोड़ा अटकाती हैं.


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उजड़ा चमन वो फिल्म है जिसने ऐसे विषय को केंद्र में रखा जिससे बहुत से लोग रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में जूझते हैं, पर कोई परदे पर नहीं दिखाता है. यह एक प्रगतिशील और ज्यादा मजेदार फिल्म हो सकती थी. जिसकी हमने उम्मीद लगायी थी, लेकिन जब ओपनिंग क्रेडिट में लव रंजन (सोनू की टीटू की स्वीटी और प्यार का पंचनामा जैसी सेक्सिस्ट फिल्मों के निर्माता) का नाम आता है तो हमें पता चल गया कि हमारी उम्मीदों पर पानी फिरने वाला है. शुरुआती दृश्यों में से एक में चमन घर की बाई के वक्षों की ओर घूर रहा है. उसकी मां बाई को डांटते हुए कहती है कि उसे ढंग के कपड़े पहनने चाहिए ‘क्योंकि पुरुष आस-पास हैं.’ दर्शकों की प्रतिक्रिया- जो कि हंसी से लबरेज थी और भी निराशाजनक थी.

फिल्म चमन का चरित्र थोड़ा अजीब है. वह एक उदास इंसान है, जो सिर्फ किसी प्यार करने वाले को खोज रहा है. लगातार रिजेक्शन की बदौलत उसके जीवन की कहानी सिर्फ गंजे होने और उससे अपनी शर्म के इर्द-गिर्द घूमती है. फिल्ममेकर ने इस एक पहलू का इस तरह से निर्माण किया है. मानो बाल या उसका अभाव ही चमन का व्यक्तित्व हो. अप्सरा से मिलने के बाद भी वह वैसा ही है. लेकिन, इन दोनों के इस रिश्ते में चमन की वो शर्म या अपराध बोध नहीं है, क्योंकि मोटापा गंजेपन को बैलेंस कर देता है.

दूसरी ओर अप्सरा का चरित्र काफी अच्छे तरीके से लिखा गया है. वो आत्मविश्वासी है और खुद से प्यार करती है. अपनी अनेक असुरक्षाओं के बावजूद उसने खुद को अपनाया है और दोनों किरदारों में से ज्यादा परिपक्व है. अपने किरदार में मानवी गगरू बहुत नेचुरल लगती हैं और दर्शकों को बांधे रखती हैं, पर फिल्म में उन्हें कम स्क्रीन टाइम मिला है.

चमन की पंजाबी फॅमिली जब-जब फिल्म में दिखाई जाती है, तब-तब फिल्म बहुत मज़ेदार हो जाती है. राजौरी गार्डन के दिल्ली वाले परिवार के तौर पर अतुल कुमार, ग्रुषा कपूर और गगन अरोरा अपने कॉमिक टाइमिंग और हास्य अदाकारी से दर्शकों का मन लुभा लेते हैं. अपने बेटे की शादी के लिए जद्दोजहद, मॉडर्न बनने के चक्कर में भाषा में हुई गलतियां, टेक्नोलॉजी से पाला या पड़ोसियों से नोक झोंक-देखकर लगता है जैसे आप अपने ही घर के वाकयों को परदे पर देख रहे हैं ( भले ही आप पंजाबी हों या न हों).


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कहानी पूरी तरह से दोषपूर्ण भी नहीं है. चमन का किरदार उसी पारंपरिक भारतीय पुरुष का है- जो खुद भले ही अच्छा न दिखे पर पत्नी के रूप में सुपरमॉडल की चाहत रखेगा, पर फिल्म उसे उसकी गलतियों का अहसास भी करवाती है. लेकिन, कहानी मुख्य बिंदु पर आने तक सिर्फ चमन के संघर्षों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है, जो फिल्म को अनावश्यक रूप से नाटकीय बना देता है. शायद फिल्मकार चाहते थे कि उसकी तकलीफों से लोगों को और हमदर्दी हो. अप्सरा का किरदार भले ही छोटा है पर अहम हो सकता था. फिल्म सिर्फ पुरुष ओर पुरुषों के ईगो के बारे में रह गयी है.

दानिश सिंह का लेखन और कसा हुआ हो सकता था. मुख्य प्लाट को फिल्म में उतना स्पेस नहीं मिला है. चांद निकला जैसा गाने सहनीय हैं पर जल्दी भूल जाने लायक भी.

बॉलीवुड में पिछले दो साल में कहानियों के चयन को लेकर बड़ा बदलाव देखने को मिला है. आख़िरकार असली कहानियां भी बड़े परदे पर दिखाई जा रही हैं, पर अभी भी उनको मज़बूती और विचार के साथ दिखाने की जरूरत है. क्या पता उजड़ा चमन को भी बाल उगाने वाली जादुई पिल्स की तरह कोई पिल चाहिए थी?

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. बहुत ही अच्छा लेख, फिल्म भी काफी सराहनीय, लेकिन फिल्म और ज्यादा मनोरंजन से भरपूर हो सकती थी। स्क्रीन प्ले काफी कमजोर रहा और कहानी भी बीच बीच में अपना आकर्षण खोती रही । इस फिल्म के लिए यह अच्छा रहा कि यह बाला के पहले रिलीज कर दी गई। वरना इस फिल्म का ज्यादा समय तक टिक पाना मुश्किल था।

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