चेंबूर में एक छोटी सी जमीन के टुकड़े पर आर.के. स्टूडियो, एक व्यक्ति राज कपूर का घर था, जो भारतीय सिनेमा का केंद्र था. इस जगह पर बने स्टूडियो की पवित्रता शिल्प सीखने के लिए जैसे आग्रह करती थी, जिसने मुझे पूरी तरह से मंत्रमुग्ध कर दिया था. यह श्रद्धेय स्थान है, जो मुझे अपना बढ़िया अनुभव और सबक देता रहेगा. आर.के. न सिर्फ मेरे काम करने की जगह थी, बल्कि मेरे लिए पूजनीय स्थल था.
इसकी एक शानदार और विस्मयकारी अपील थी. आर.के. में प्रवेश करते ही एक बड़ा सा ‘लोगो’ दिखाई देता है, जिसमें एक व्यक्ति अपने हाथ में वाइलिन लिये खड़ा है और एक स्त्री उसकी बांहों पर झुकी हुई है, जो राज कपूर के रोमांस और संगीत— जो उनके सिनेमा के ब्रांड हैं— का प्रतीक है. ‘आवारा’ के रिलीज होने पर यह प्रतीक आर.के. फिल्म्स और आर.के. स्टूडियो का ‘लोगो’ बना. इसे प्रसिद्ध डिजाइनर एम.आर. अचरेकर ने डिजाइन किया था और प्रसिद्ध और आदरणीय श्री बालासाहेब ठाकरे ने इसे पेंट किया था.
इस ‘लोगो’ के बारे में कहा जाता है कि इसका प्रेरणास्रोत ‘बरसात’ फिल्म का वह सीन था, जिसमें नरगिस, राज साहब—जो अपने हाथों में वाइलिन लिये खड़े थे— के पास आने के लिए दौड़ी आई थी. राज साहब ने उन्हें अपनी बांहों में पकड़ लिया था और उन्हें स्वाभाविक और अंतरंग रूप से पीछे की तरफ मोड़ दिया था, क्योंकि सभी रचनात्मक गतिविधियों को किसी पेंटिंग से प्रेरणा मिलती है, यह ‘लोगो’ उस क्लासिक दृश्य से प्रेरित था, जिसे राज साहब ने स्टुटगर्ट में देखा था. यह पेंटिंग वाइलिन लिये एक व्यक्ति की थी, जिसमें उसमें एक स्त्री को आवेशपूर्ण रूप से अपनी बांहों में समेट रखा था, जो पीछे की तरफ और पियानो की दूसरी तरफ झुकी हुई थी, यह पेंटिंग फ्रेंच कलाकार, रेनी-जेवियर पृनेट द्वारा बनाई गई थी, जिसकी प्रेरणा उन्हें लियो टॉलस्टॉय के नॉवेल, द क्रेऊट्जर सोनाटा से ली थी, जिसमें एक वायलिन बजाने वाले को पियानो बजाने वाली से प्रेम हो जाता है, जब उसे पता चलता है कि वह स्त्री उसे नहीं चाहती तो वह उसकी हत्या कर देता है.
उस ‘लोगो’ के नीचे भगवान शिव की बड़ी सी मूर्ति थी. राज साहब भगवान शिव में विश्वास करते थे. अपनी हर नई फिल्म के मुहूर्त (मंगल शुभारंभ) पर उनके पिता पृथ्वी राज कपूर भगवान शिव की पूजा करते थे, हालांकि राज साहब को किसी खास धर्म में अटल विश्वास नहीं था, उन्हें एक ईश्वर में विश्वास था और वे सभी धर्मों का आदर करते थे, क्योंकि सभी धर्म उसी सर्वशक्तिमान के विभिन्न रूप थे.
आर.के. स्टूडियो के बनने के पीछे की बड़ी रंगीन कहानी है, जब राज साहब ने आग बनाने का फैसला किया था, तब उनके पास सिर्फ तेरह हजार रुपए ही थे. उन्होंने अपनी फिल्म को प्रोड्यूस करने की योजना को सिर्फ विश्व मेहराजी (मामाजी) तक ही सीमित रखा, जो पृथ्वी थिएटर से उनके करीबी थे. फिल्म के लिए कई लोगों— मेकअप मैन, अभिनेताओं, डांसर की जरूरत थी, जो उस समय पृथ्वी थिएटर में काम करते थे. पृथ्वी थिएटर में काम करने वाले सभी कर्मचारियों के सामूहिक प्रयासों ने उनके सपने को जीवंत करने में मदद की.
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उन दिनों, किसी फिल्म निर्माता का स्टूडियो से जुड़े रहना काफी महत्त्वपूर्ण होता था, क्योंकि स्टूडियो एक ढका हुआ स्थान होता था, जहां सेट लगता था और सेट की कीमत भी प्रदान की जाती थी. एक स्टूडियो होने का मतलब था साउंड के लिए औजार, एक साउंड रिकॉर्ड करने वाला, एक एडिटिंग रूम, कैमरा और भी बहुत कुछ का होना.
राज साहब ने फिल्म बनाने के अपने दीवानेपन से पीड़ित होकर ईस्टर्न स्टूडियो से जुड़ने का फैसला किया, जिसके मालिक मिस्टर लखानी थे. राज साहब अपनी फिल्मों में बेहतरीन टेकनिशयंस चाहते थे, इसलिए उन्होंने प्रख्यात कैमरामैन वी.एन. रेड्डी की सेवाएं लीं. ‘आग’ के प्रोडक्शन में तीन लाख का खर्चा आया था, जो उस समय यह एक बड़ी रकम थी. राज साहब इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि वे इस फिल्म से मुनाफा कमाएंगे, क्योंकि कहानी में गंभीरता थी और उनका काम हिट होगा, हालांकि इस फिल्म को आलोचकों ने सराहा, मगर बॉक्स ऑफिस पर फिल्म अधिक नहीं चली. इस घाटे के बावजूद, राज साहब ने एक और फिल्म बनाने का फैसला किया.
मिस्टर लखानी ने अल्लाउद्दीन खान या खान साहब— जिस नाम से हम उन्हें संबोधित करते हैं, जो सहायक साउंड रिकॉर्डिस्ट थे, को प्रमुख साउंड इंजीनियर के रूप में नियुक्त किया, हालांकि राज साहब पेशेवर लोगों के साथ काम करना चाहते थे, जो अनुभवी और टेक्निक पर अच्छी पकड़ रखते थे, उन्हें मिस्टर लखानी ने सहायक की सेवाओं को लेने के लिए बाध्य किया. काफी निराशा के बावजूद, राज साहब के पास कोई विकल्प नहीं था. उन्होंने फैसला किया कि निजी रूप से वे खुद खान साहब को इंडस्ट्री का बेहद लोकप्रिय साउंड इंजीनियर बनाने के लिए प्रशिक्षित करेंगे.
राज साहब के निर्देशों की छाया तले, खान साहब उस ऊंचाई पर पहुंचे, जिसकी उनके बॉस को अपेक्षा थी. मिस्टर लखानी इस बात को लेकर खिन्न थे कि खान साहब को अब अधिक लाभपूर्ण कामों की पेशकश की जाने लगी थी, उन्हें ठोकर लगाने के लिए उन्होंने अपने अनुबंध की शर्तों को लागू किया, राज साहब की अगली फिल्म में एक साउंड इंजीनियर के रूप में खान साहब की सेवाएं लेने की इजाजत देने से इनकार कर दिया, इसकी वजह से बॉस ने मिस्टर लखानी के साथ अपने संबंध तोड़ लिये और कोर्ट से काॅन्ट्रैक्ट को खारिज करवाने में खान साहब की मदद की और अपनी अगली फिल्म के लिए दूसरा स्टूडियो खोजने लगे. लोगों ने उन्हें इतना जिद्दी न बनने के लिए, उन्हें मनाने की कोशिश की और प्रवाह के साथ चलने की सलाह दी, मगर राज साहब ने इसके लिए इनकार कर दिया. उन्होंने कहा, ‘मैं अपनी पसंद के टेकनीशियन के साथ समझौता नहीं कर सकता.’
राज साहब ने ‘बरसात’ फिल्म बनाने का फैसला किया, जिसके लिए उन्होंने रूप तारा स्टूडियो, जो प्रतिष्ठित निर्देशक के. आसिफ का स्टूडियो था, को साइन किया, जिन्होंने राज साहब का खुली बांहों से स्वागत किया, उन्हें प्रोडक्शन के लिए पैसे जुटाने की जरूरत थी, क्योंकि रेगुलर फाइनेंस वाले उस प्रोड्यूसर पर पैसा नहीं लगाना चाहते थे, जिसकी पिछली फिल्म ‘कड़वी सच्चाई’ बन चुकी हो. इस तरह राज साहब ने अपने पिता पृथ्वीराज कपूर से मदद लेने का फैसला किया, जिन्होंने अपने बेटे को उसके पांव पर खड़ा होने में उदारता से मदद की.
राज साहब ने ‘हवा में उड़ता जाए’ गीत को कश्मीर की सुरम्य घाटी में शूट करने का फैसला किया, वह जगह जहां अभी तक किसी फिल्म की शूटिंग नहीं हुई थी, ताकि दर्शकों के दृश्य के अनुभवों में इजाफा हो सके. कश्मीर में शूटिंग की बात अभी तक अनसुनी थी, क्योंकि इसका मतलब पूरी कास्ट, क्रू और उपकरणों को लेकर जाने और बहुत ज्यादा लागत के साथ यात्रा करना और आवास के संबंधित काफी बड़ी समस्याओं का होना था.
राज साहब दर्शकों को सांस थामने वाले दृश्यों के अनुभवों के लिए किसी समझौते के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने फैसला किया कि वे और फिल्म के डी.ओ.पी. जलमिस्त्रीजी, किसी तरह कश्मीर पहुंचेंगे और स्टैंड-इन के साथ परिदृश्य के कुछ रेंडम शूट लेंगे और उन्हें अभिनेता के साथ महाबलेश्वर में अंजाम दिए जाने वाले सीन के साथ मिलाएंगे. भारी कैमरा, जिसे चलाने के लिए बिजली चाहिए होती है, को ले जाने के बोझ को हलका करने के लिए उन्होंने ऐमो कैमरा— उस समय जो पोर्टेबल, बैटरी से संचालित होने वाला कैमरा था, खरीदा. जिसे खरीदना वास्तव में राज साहब के स्टूडियो खरीदने के सपने को पूरा करने की दिशा में पहला कदम था.
‘बरसात’ बनाते समय जब उनके पास डिस्ट्रीब्यूटर और फाइनेंसर थे, उन्होंने एक अभिनेता के तौर पर कई फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया ताकि वे अपने बुनियादी सपने को पूरा करने के लिए पैसे कमा सकें. उनका अगला कदम एक साउंड ट्रैक, जिसकी जरूरत साउंड रिकॉर्डिंग के सभी उपकरणों को रखने के लिए पड़ती है, को खरीदना था. यहां तक कि उनके स्टूडियो बनाने के बाद भी, साउंड ट्रैक स्थायी रूप से वहीं बना रहा. तीसरा चरण पेशेवर 35 एम.एम., मिशेल एन.सी. कैमरे को खरीदना था. यह संपत्ति फिल्म निर्माण के उनके जुनून से उपजी थी और एक स्टूडियो के मालिक होने के लिए जरूरी शुरुआती प्रयास भी थे.
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बरसात की अभूतपूर्व सफलता के बाद, उन्होंने राधू करमाकर को ‘आवारा’ फिल्म के लिए अपना डी.ओ.पी. बनाने का फैसला किया. राधू साहब ने अपने कॅरियर की शुरुआत कलकत्ता में ‘किस्मत का धनी’, ‘ज्वार भाटा’, ‘नौका डूबी’ और कई दूसरी फिल्मों से की थी. रात के दृश्यों की शूटिंग में उनकी महारत और हाई कंट्रास्ट लाइटिंग की उनकी तकनीक ने उन्हें जबरदस्त प्रशंसा दिलावाई थी. यही उनकी संपत्ति थी, जिसने राज साहब को उनकी सेवा लेने के लिए प्रेरित किया और दोनों के बीच रिश्ते ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक चले.
आशा स्टूडियो से ‘आवारा’ के प्रोडक्शन का अनुबंध हुआ. राज साहब ने नरगिसजी के साथ एक सीन की योजना बनाई, जिसमें वे स्विमिंग कॉस्ट्यूम में तालाब के भीतर जाएंगी, हालांकि अधिकतर फिल्म स्टूडियो के सेट पर फिल्माई गई थी, इस खास दृश्य के लिए उन्हें एनएससीआई क्लब के स्विमिंग पूल में जाना था. नरगिसजी को इतने लोगों के बीच स्विमिंग कॉस्ट्यूम पहनने में झिझक थी. नरगिसजी को मनाने के लिए, उन्होंने बिना किसी की इजाजत के स्टूडियो में जमीन खुदवा दी और शूट के लिए तालाब बनवा दिया. राज साहब को स्टूडियो के मालिकों ने अनुमति नहीं लेने के लिए कड़ी फटकार लगाई और 80,000 की भारी जुरमाने की मांग की. उन्होंने तुरंत स्टूडियो का दंड भर दिया, लेकिन इसे लेकर वे बहुत कड़वा महसूस कर रहे थे और उन्होंने स्टूडियो के मालिकों से कहा, “जो मैंने आपको भुगतान किया है, उसके लिए नहीं, अपनी रचनात्मक गतिविधियों के लिए अनुमति लेने के लिए बाध्य होने की वजह से मैं परेशान हूं, यह सब मुझे कतई नहीं सुहाता. मैं दुबारा कभी इस स्टूडियो में शूट नहीं करूंगा!”
आगे की शूटिंग के लिए उन्होंने श्रीकांत स्टूडियो में शिफ्ट कर लिया, लेकिन अपने खुद के स्टूडियो की जरूरत दिन-प्रतिदिन मजबूत होती चली गई. श्रीकांत स्टूडियो के साथ, 2 एकड़ जमीन का एक टुकड़ा था, जिस पर वे अपना स्टूडियो बनाना चाहते थे. उस जमीन की कीमत उस समय डेढ़ लाख थी और उन दिनों उनके पास इतनी बड़ी रकम नहीं थी, फिर भी वे अपनी कला के प्रति समर्पित व्यक्ति थे और स्टूडियो को वे अपनी रचनात्मकता के प्राकृतिक विस्तार के रूप में देखते थे. उन्होंने दूसरे प्रोड्यूसर्स के साथ लगातार काम करके और बहुत सारी मेहनत और जिद के साथ काम करके जरूरत के पैसों की व्यवस्था की. यहां तक कि उन्होंने हुंडीस (प्रतिज्ञा पत्र) से भी पैसे उधार लिये और अपना आर.के. स्टूडियो बनाने के लिए जमीन खरीद ली.
स्टूडियो बनाने पर उनके घर में परेशानियां आने लगीं. कृष्णा आंटी कहतीं, “कब तक हम किराए के घर में रहेंगे? घर के लिए रुपए जोड़ो.” इसके लिए राज साहब का जवाब होता, “मैं घर बनाऊंगा…मैं घर खरीदूंगा, लेकिन पहले मुझे स्टूडियो की जरूरत है, सिर्फ यदि स्टूडियो होगा, तब मैं घर खरीदने के लिए पैसे कमा सकूंगा. मुझे स्टूडियो बनाने दो और चिंता मत करो, आखिकार मैं तुम्हारे लिए घर खरीद दूंगा.”
अपने सपने का स्टूडियो बनाने के लिए काफी सारा लहू और पसीना बहाया. राज साहब आर.के. में ‘आवारा’ की शूटिंग करना चाहते थे, लेकिन उस समय वहां पर छत नहीं थी. दिन की रोशनी से बचने के लिए सिर्फ रात को शूटिंग हो सकती थी. ‘आवारा’ के बनने के समय एक आंधी वाली रात, छत न होने के कारण सेट बह गया. जिसकी वजह से राज साहब ने छत के लिए पैसे जोड़ने शुरू कर दिए.
स्टूडियो की छत बन जाने के बाद राज साहब लालची हो गए, अब वे स्टूडियो में एक एडिटिंग रूम और प्रीव्यू थिएटर चाहते थे, जहां वे एडिट कर सकें और अपनी फिल्मों को देख सकें. इसलिए उन्होंने एक एडिटिंग रूम बनवाया, उसके करीब ही एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग की छत पर थिएटर बनवाया. थिएटर के लिए, उन्होंने किनारों पर सहारे के लिए लकड़ी का सपोर्ट लिया और बोरों को एक साथ लगा किया, इसीलिए उसका नाम ‘गोनपथ थिएटर’ पड़ गया. चारों तरफ बिखरी बेंचों की जोड़ी पर बैठने की व्यवस्था थी.
आखिरकार राज साहब ने ‘आवारा’ पूरी कर ली थी, इस फिल्म को शानदार सफलता मिली थी. फिल्म की सफलता से मिली कमाई से उन्होंने इतना पैसा कमा लिया कि आर.के. को पूरी तरह से क्रियाशील स्टूडियो में बदला जा सके. आखिरकार उन्होंने सभी टुकड़ों को एक साथ लगा दिया. ‘आवारा’ के बाद और भी सफल फिल्में आईं, जब उन्होंने ‘संगम’ बनानी शुरू की, तब आखिरकार गोनपथ थिएटर ईंट और सीमेंट का थिएटर बन सका. ‘संगम’ की सफलता के साथ आर.के. स्टूडियो के विस्तार के लिए उन्होंने साथ लगने वाला श्रीकांत स्टूडियो भी खरीद लिया.
आर.के. स्टूडियो राज साहब की रचनात्मकता के विस्तार का आधार था. बहुत सारी फिल्मों की शूटिंग यहां पर की गई. स्टूडियो में चार स्टेज थे, पहला स्टेज बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह उनके द्वारा बनवाया गया पहला साउंड स्टेज था. बहुत सारे प्रख्यात फिल्म निर्माताओं ने आर.के. में शूट किया है. राज साहब शाम को स्टूडियो के दौरे पर निकलते थे, वहां जाते और वहां के विभिन्न स्टेज पर शूटिंग कर रही यूनिट के साथ खुशियों का आदान-प्रदान करते. दूसरी फिल्म यूनिट के लोगों के लिए राज साहब का वहां आना और उनके साथ मिलना एक सम्मान की बात थी. मैं उनके साथ रहता और मुझे एल.वी. प्रसाद, मनमोहन देसाई और कई दूसरे महान निर्देशकों को शूटिंग करते हुए देखने का सौभाग्य मिला. इन दौरों ने मेरी जानकारियाें को मजबूत किया और मैं खुद को भाग्यवान मानता हूं कि मुझे अपने समय के इन महान फिल्मकारों से सीखने का मौका मिला और इन मास्टर लोगों से ज्ञान प्राप्त करने का अवसर मिला.
आर.के. में एक कॉस्ट्यूम विभाग भी था, जिसमें ‘आग’ फिल्म के दौरान पहने गए कॉस्ट्यूम के समय से हर नई फिल्म के परिधान रखे गए थे. यदि आप वहां जाएंगे तो आपको ‘आग’ और ‘बरसात’ फिल्म में नरगिसजी द्वारा पहने गए कॉस्ट्यूम के साथ-साथ ‘मेरा जूता है जापानी’ गीत में राज साहब द्वारा पहने गए जूते भी देखने को मिलेंगे. हम उसमें से कुछ भी उठा सकते थे और उन्हें अपनी फिल्मों में इस्तेमाल कर सकते थे. दुर्भाग्यवश, आर.के. में आग लगने के कारण वह स्टेज अब जल गया है और उनकी पूरी विरासत, जो बेहद अमूल्य थी, जल गई.
राज साहब ने समय के साथ-साथ आधुनिक तकनीक के आने के साथ, नई खोज करना और स्टूडियो में नए उपकरणों को शामिल करने का सिलसिला जारी रखा. इससे स्टूडियो न सिर्फ पीढ़ियों की गति की दर से आगे बढ़ा, बल्कि इससे स्टूडियो में काम करने वाले लोगों को भी संतुष्टि और खुशी मिली. राज साहब के मन में अपने तकनीशियंस का काफी महत्त्व था. बेहद प्रतिभाशाली लोगों ने उनके साथ काम किया और उनके साथ वे अपने परिवार की तरह व्यवहार करते थे. एक तरह से वे उनके परिवार का ही एक अंग थे.
राज साहब हर साल होली के दिन आर.के. में बहुत बड़ा उत्सव मनाते थे. यह एक भव्य, प्रतिष्ठित उत्सव था. फिल्म इंडस्ट्री और उनके दोस्त दोपहर 2.30 पर वहां एकत्रित होते. अपने दोस्तों के साथ होली मनाने के बाद, लोग एक यूनिट की तरह मस्ती करने स्टूडियो आते. वे सभी गाते, एक साथ मिलकर पीते और खुशियां मनाते. राज साहब आर.के. रचनात्मक लोगों के लिए ऐसी नींव बनाना चाहते थे, जहां वे आएं, चारों तरफ बैठें और रचनात्मक योजनाओं पर बातें करें.
राज साहब के लिए, फिल्म बनाना एक उत्सव था और इससे मिलने वाली खुशी को उनकी आंखों में देखा जा सकता था. वे बैठते थे और सभी लोगों से बातें करते थे. उनके पास यह महान योग्यता थी कि वे लोगों को समझने के लिए उनसे बातें करते और प्रेरणा प्राप्त करते.
राज साहब के योग्य बेटे रणधीर कपूर, जिन्हें वे डब्बू साहब कहते थे, अपने पिता के बहुत अच्छे दोस्त थे; वे वहां की उन्नति की निगरानी करते थे और किसी भी तरह की मदद में उसका हाथ बंटाते थे. डब्बू साहब ने अपने पिता की बनाई विरासत को जारी रखा और यह सुनिश्चित किया कि आर.के. की रचनात्मकता और हिंदी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उसकी आधारशिला का इतिहास हमेशा बना रहे.
(राहुल रावेल फिल्म निर्देशक हैं. यह उनकी किताब ‘राज कपूर- बॉलीवुड के सबसे बड़े शोमैन ‘ का एक अंश है. किताब हिंदी में प्रभात प्रकाशन से छपी है)
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