बनारस की तंग गलियों से होकर गुजरता बेनिया बाग़ का मोहल्ला जहां आज भी वही शोर गुल, वहीं चूड़ियों की खनखनाहट और पान की दुकानों के बीच से झांकता हुआ वह मकान जिसमें एक विरासत कैद है. विरासत उस सांझी संस्कृति की जिसे बिस्मिल्लाह खान सरीखे कलाकार ने हर पल संजोया था, कभी अपने रियाज़ के जरिए तो कभी अपने ठेठ खांटी अंदाज़ के ज़रिए.
आज भी यकीन कर पाना असंभव सा लगता है कि बिस्मिल्लाह खान अब हमारे बीच नहीं हैं. जो रिक्तता उनके जाने से आई है वह दोबारा भर पाना असंभव ही दिखाई देती है. जिन भी लोगों ने उस्ताद को देखा या उनसे बातें की उसकी जिन्दगी में शहनाई की गूंज जीवन भर थिरकती रहेगी. ऐसे शख्स को कभी नहीं भुलाया जा सकता चाहे कोई बात चल रही हो, कोई सवाल हो अथवा किसी भी किस्म का मौका, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के होठों से ज्यादातर वक्त केवल शहनाई के तोड़े ही निकलते थे. वे शब्दों से बेहद काम बातें किया करते थे सिर्फ शहनाई के माध्यम से उन्हें संगीत की भाषा समझ आती थी और शहनाई के स्वरों के आरोहों और अवरोहों की मार्फत वे अपनी बात पूरी तरह समझा भी लेते थे. उनके इन संगीत शब्द-स्वरों को लयबद्ध किया करते थे उनके थिरकते हुए हाथ और बमुश्किल सम्भाले गये दांत.
दरअसल, उनके जितने भी दांत थे, उन्हें डॉक्टरों ने बमुश्किलन एक तार से जबड़े की शक्ल दे दी थी. जैसे ही उनका जबड़ा हिलता था, उनकी नकली बत्तीसी एकदम खड़खड़ा देती थी. लेकिन उसमें भी एक लाजवाब रिदम और लय थी. उनकी मुकम्मिल शख्सियत ही संगीत की संस्थान थी, जिसके सारे साज उनके अंग-प्रत्यंग ही थे और साजिंदे थे खुद उस्ताद बिस्मिल्लाह. वे शहनाई के स्वरों की ज़रिये अपनी बात बखूबी बयां कर दिया करते थे.
बेनिया बाग़ का यह मकान आज भी गवाह है कई किस्से कहानियों का, जहां हर शाम अपने यारों दोस्तों के साथ खान साहब बैठकी सजाया करते थे. घंटों बातें किया करते थे, अपने दोस्तों से साथ. जिस तंग कमरे में बैठकी सजती थी, वह आज भी उस संगीतमय विरासत को बयां करता है मानो कह रहा हो बैठो बस अभी सुरों की तान छिड़ने ही वाली हो.
ऐसी विरासत जिसे संजोने की जिम्मेदारी परिवार की, सरकार की, प्रशासन की व हर उस नागरिक की है जो प्रेम करता है अपनी संस्कृति से, अपनी कला, अपनी धरोहर से. पर अफ़सोस राजनीति और घरेलू मन-मुटाव के चलते इस विरासत का मोल न तो उनके परिवार के कुछ सदस्य और न ही सरकारें समझ पाई. यह बेहद ही व्यथित करने वाली घटना है कि जिस कलाकार ने देशों-विदेशों में शहनाई को इतना मान दिलाया उसकी पहचान को, उसके अस्तित्व हम संजो कर रख पाने में असमर्थ दिख रहे हैं.
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‘शर्मनाक’
बीते 12 अगस्त, 2020 को उनके पुश्तैनी मकान को ढहाने की कोशिश की गई. जिस कमरे में वो रहा करते थे, उस कमरे की छत के एक हिस्से को तोड़ दिया गया. हालांकि बाद में उनके पोते अफ़ाक़ हैदर के हस्तक्षेप के बाद उसे और नुकसान पहुंचाने से बचा लिया गया और आगे भी इस विरासत को बचाए रखने के प्रयास जारी रहेंगे.
जिस शख्सियत ने वाराणसी की सांस्कृतिक धरोहर, गंगा-जमुनी तहजीब को ताउम्र संजो कर रखा, जिस वाराणसी और गंगा से वे कभी बाहर ही न निकल सके, उसके तोड़े जाने की खबर सबके लिए शर्मनाक होनी चाहिए. उनका संपूर्ण जीवन संघर्षमय रहा लेकिन शहनाई की धुनों में वे इस क़दर डूब चुके थे कि उन्हें लगता रहा अभी ‘सच्चा सुर लगा ही कहां है’ ऐसे सुर साधक इस धरती पर एक-आध बार ही जन्म लेते हैं. सादगी से परिपूर्ण सादे सफेद कुर्ते में, कानों में कुण्डल पहने अपने खास अंदाज से पहचान बनाने वाले, सुरों से पवित्र स्थली वाराणसी का सृजन करने वाले एक सच्चे इंसान को हम ताउम्र कुछ दे न पाए और उनके ज़मींदोज़ होने के चौदह बरस बाद भी उनसे उनकी आखिरी निशानी भी छीनना चाहते हैं. इस बात पर हमें विचार करना होगा.
बिस्मिल्लाह खान का बचपन देहाती इलाकों के आम बच्चों जैसा ही बीता था और धीरे-धीरे उन्होने उर्दू और अरबी भाषा के कुछ शब्दों को बोलना शुरू किया. मामा अली बख्श ही उनके गुरू और प्रेरक बने. वे वाराणसी की गलियों में खेल-कूद में काफी समय बिताया करते थे. लेकिन ज्यादा समय घर के अहाते में ही बीतता जहां से वह अपने मामू की शहनाई भी सुना करते थे. कभी-कभी वह उन धुनों के साथ ही पत्थर से भी धुनें निकाला करते थे और उनकी कई क्रियाओं की नकल भी किया करते थे. उनको पारिवारिक सदस्यों के अलावा लखनऊ के मुहम्मद हुसैन खान से ध्रुवपद धमार, ख़याल तथा ठुमरी की शिक्षा मिली. भैया गणपत राव के शिष्य लक्ष्मणप्रसाद से भी उन्होंने काफी कुछ सीखा. बचपन में कभी-कभी वह नरकट के पौधे को नदी के किनारे घंटों देखा करते थे. बिस्मिल्लाह मन ही मन सोचा करते थे कि कभी नरकट के ये पौधे उनके द्वारा ख्याति पाएंगे और यह उन्होंने साबित करके दिखाया.
उस्ताद का जन्म उस समय हुआ जब देश में अंग्रेजी हूकूमत थी. उनके मन में स्वाधीनता संग्राम के सैनिकों के लिए बहुत आदर और सदभावना थी. जिसका अंदाजा उनको स्वतंत्रता दिवस की शाम सैनिकों को दिए गए श्रद्धांजलि से लगाया जा सकता है. आजाद भारत को उन्होंने शहनाई से संदेश देने वाले पहले कलाकार बने. रागकाफी के माध्यम से उऩका संदेश दुनिया भर में सुना गया. भले ही वे कुछ बोल न पाए हों.
उस्ताद का निकाह 16 साल की उम्र में मुग्गन ख़ानम के साथ हुआ जो उनके मामू सादिक अली की दूसरी बेटी थी. उनसे उन्हें 9 संताने हुई. वे हमेशा एक बेहतर पति साबित हुए. वे अपनी बेग़म से बेहद प्यार करते थे. लेकिन शहनाई को भी अपनी दूसरी बेग़म कहते थे.
काशी ने मुझे कला तथा आशीर्वाद दिया
80 के दशक में ब्लैक एन्ड वाइट टीवी के दौर में जब पुरे देश के लिए एक ही चैनल होता था उस वक़्त जब टीवी स्विच ऑन करते थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शेहनाई की धुनें सुनाई देती थी. और आज भी 15 अगस्त इस परंपरा से अछूता नहीं है. इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की उस्ताद की लोकप्रियता कितनी रही होगी. हमने एक ऐसे संगीतकार को खो दिया जिसकी पूर्ती होना नामुमकिन है. जब भारत में मनोरंजन का एकमात्र साधन आकाशवाणी हुआ करता था तब तो देश के अनगिनत घरों में दिन की शुरुआत खान साहब की शहनाई के सुरों से ही हुआ करती थी. बिस्मिल्लाह खां तथा शहनाई एक दूसरे के पूरक बन गए थे.
वह कहते थे – काशी ने मुझे कला तथा आशीर्वाद दिया है. यह मंदिर तथा संगीत की पवित्र नगरी है. मेरा घर मेरा स्कूल है और विश्वनाथ मंदिर मेरा विश्वविद्यालय. वाराणसी की हर गली में कुछ न कुछ संगीत है. यहां के वातावरण ने हमेशा मेरी कला को प्रेरित किया है. मैं बता नहीं सकता कि मैं कितना ज्यादा इस संगीत नगरी से जुड़ा हूं. काशी विश्वनाथ मंदिर के पड़ोस मे ही उस्ताद की दीक्षा हुई और इन गलियों से ही उनकी हैसियत बढ़ी.
वे कहते थे कि अब आदाब के दिन चले गए. संगीतज्ञ अब विद्यालय जाते हैं . गुरुओं के साथ साधना नहीं करते. उनको सीखने की जल्दी होती है. जल्द परिणाम तक पहुंचना चाहते है. लेकिन पुराने महान संगीतज्ञ उस्ताद फैय्याद खान साहब, अब्दुल करीम खान, ओंकार नाथ गरीबी में ही चले गए . कोई उनके संघर्ष के बारे में नहीं जानता . जैसे स्वामी हरिदास तानसेन के गुरू थे पर कोई नहीं जानता कि तानसेन को कैसे शिक्षा दी . कितने लोग हैं जो सूर्योदय के पहले सरद मौसम में भी नमाज करते हों या मंदिर जाते हों या रियाज शुरू करते हैं .
आजकल छात्र 10 बजे उठ कर संगीत विद्यालय चले जाते हैं . आज कल नई पीढी भागदौड़ भरे माहौल में ही रहती है और वैसे ही संगीत सीखना चाहती है. अब न तो पहले जैसे संगीतज्ञ हैं न ही साधक. संगीत को बिना साधना नहीं हासिल किया जा सकता. लेकिन कौन से विद्यालय ने फय्याद खां और अब्दुल करीम खां को बनाया . सुर साधना के लिए समय और अनुशासन बेहद जरूरी है . शिष्यों को तालीम देते समय कहते थे कि सुरों से ऐसा लगाव रखो कि दुनिया पर छा जाओ. अक्सर नरम दिखने वाले खान साहब अनुशासन में बहुत सख्त थे.
बाबा विश्वनाथ की नगरी के बिस्मिल्लाह खां एक अजीब किंतु अनुकरणीय अर्थ में धार्मिक थे. मुहर्रम पर वे अपनी खास चांदी की शहनाई बजाते हुए मातमी जुलूस के आगे चलते थे तो हर मंदिर में उन्होंने अपने वाद्य से ईश आराधना ही नहीं की, बनारस छोडऩे के ख्याल से ही इस कारण व्यथित होते थे कि गंगाजी और काशी विश्वनाथ से दूर कैसे रह सकता था. वे कहते थे धर्म कुछ नहीं है, आप जिसे धर्म कहते हैं मेरे लिए वह संगीत ही है. वे सही मायने में हमारी साझी संस्कृति के सशक्त प्रतीक थे.
वैभवशाली अमरीकी जीवन का न्यौता ठुकराने वाले बिस्मिल्लाह भारतीय तहजीब के प्रतीक थे. वह महज संत या फकीर ही नहीं समाज में रहते हुए मनुष्यता की सच्ची परिभाषा थे. उनके जैसी हैसियत का आदमी जिस सादगी और गरीबी से जीता रहा उसका कोई और उदाहरण कभी नहीं मिलेगा.
बिस्मिल्लाह खां से मेरी मुलाकात लगभग 15 साल पहले में एक कार्यक्रम के दौरान हुई, जब वह दिल्ली आए थे. कार्यक्रम के बाद उनसे बात हुई तो अचानक पूछ बैठी… खां साहब क्या मुझे शहनाई सीखा देंगे. वो बोले, बेटी क्या तुम बजा पाओगी, इसमें बेहद जान लगती है. मैं सोचती रही और अपने पसंदीदा कलाकार की सादगी से इस कदर प्रभावित हुई कि उनके साथ काम करने की ठान ली. उसके बाद से ही उनके परिवार के साथ एक अलग रिश्ता कायम हो गया.
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आज उनके परिवार के साथ मिलकर उस विरासत को आगे बढ़ाने का काम कर रहे है लेकिन दुःख होता है जब हम खान साहब जैसे कलाकारों को हम यूीं ही भुला देते हैं. वह सिर्फ एक कलाकार नहीं थे वह समर्पण, त्याग, सादगी, तपस्या व सांझी संस्कृति के सही मायनों में सशक्त प्रतीक थे.
(लेखिका, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान एजुकेशन सोसाइटी, वाराणसी में सचिव हैं और महिला एवं बाल विकास विभाग दिल्ली सरकार मंत्री की पूर्व सचिव हैं. ये लेखिका के निजी विचार हैं.)