‘प्यार का पंचनामा’ से निर्देशक लव रंजन ने अपनी एक अलग धारा विकसित की थी जिसमें नायक अपेक्षाकृत सुधरा हुआ है और नायिका गलत तरफ खड़ी है. आलोचनाएं झेलने के बावजूद लव रंजन इस लीक पर चलते रहे हैं. अपनी अभी तक की अधिकांश फिल्मों में प्यार का जो मसालेदार स्वाद, आपसी रिश्तों का जो तड़का, परिवार का जो रंगीन माहौल वह परोसते-दिखाते आए हैं, उनकी यह नई फिल्म ‘तू झूठी मैं मक्कार’ उस से चार कदम आगे ही खड़ी दिखाई देती है.
अंदाजा आप इसी बात से लगा लीजिए कि कहानी का हीरो मर्सिडीज कार के शोरूम का मालिक है और उसका लंगोटिया यार तो इतना अमीर है कि कुछ भी नहीं करता. फिर भी ये लोग दूसरों से लाखों रुपए लेकर उनका ब्रेकअप करवाने का पार्ट टाइम धंधा करते हैं. अब अगर आपने इस किस्म के किसी धंधे के बारे में नहीं सुना है तो यह आपकी गलती है, फिल्म वालों ने बोल दिया कि ऐसा धंधा होता है तो होता ही होगा. अपने लंगोटिया यार की शादी से पहले ये लोग ‘बैचलर्स मनाने’ स्पेन जाते हैं जहां हीरो को अपने यार की मंगेतर की सहेली से प्यार हो जाता है. लेकिन लड़की को हॉलीडे वाले प्यार में टाइमपास दिखता है.
इस टाइमपास के दौरान उसे शारीरिक संबंध बनाने से दिक्कत नहीं है क्योंकि खुद उसी के शब्दों में वह ‘किसी के लिए अपने-आप को बचा कर नहीं रखना चाहती’. लेकिन जब कमिटमैंट की बारी आती है तो वह आनाकानी करने लगती है क्योंकि जहां लड़का हर बात में फैमिली को आगे रखता है वहीं लड़की को फैमिली से दिक्कत नहीं मगर उसे स्पेस की दरकार है. उसे लगता है कि लड़के की फैमिली कहीं उसके पंख न बांध दे.
युवा पीढ़ी के मन में प्यार, शादी, कैरियर, फैमिली के असमंजस को लेकर हिन्दी फिल्मों ने हाल के बरसों में बहुत कुछ परोसा है. रंग-बिरंगे शहरी माहौल में कभी पैसे, कभी कैरियर तो कभी किसी और महत्वाकांक्षा के पीछे भाग रहे नई पीढ़ी के युवाओं की अंदरूनी कन्फ्यूजन पर बनी ये कहानियां इसी माहौल के दर्शकों को लुभाती भी हैं. ऐसी फिल्मों में बाकी की कमियों को ढकने के लिए रंग-बिरंगे सहयोगी किरदार, चमकते चेहरे, दमकता माहौल, आंखों को सुहाती लोकेशंस वगैरह काम आती हैं जो यहां भी हैं.
बड़ी मुश्किल से आप ‘कहानी’ से ध्यान हटा कर ‘दृश्यों’ पर खुद को एडजस्ट करते हैं तो पाते हैं कि इसे लिखने-बनाने वालों को सारा जोर दरअसल आपकी आंखों को रंगीनियां और कानों को बेवजह लंबे-लंबे संवाद देने पर ही लगा हुआ है.
इंटरवल तक चढ़ता घटनाक्रम बहुत जल्दी थम जाता है और इंटरवल के बाद तो जैसे हिचकोले खाने लगता है. वह तो भला हो आखिरी के 15-20 मिनट का जिसने रफ्तार बढ़ा कर दर्शकों को फिर से बांध लिया वरना बेचारा उबासियां लेता हुआ बाहर निकलता.
राहुल मोदी और अंशुल शर्मा इस फिल्म के क्रिएटिव डायरेक्टर हैं. अपने बॉस लव रंजन सरीखा काम ही है इनका भी. रणबीर कपूर चार्मिंग हैं. शम्मी कपूर की मस्ती, शशि कपूर की क्यूटनैस, राज कपूर की अदाएं उनके भीतर हैं. श्रद्धा कपूर रंगीनियां बिखेरती हैं. स्टैंडअप कॉमेडियन अनुभव सिंह बस्सी का एक्टर-अवतार बुरा नहीं है, बस उन्हें रोल ही कायदे का नहीं मिला. डिंपल कपाड़िया कहीं-कहीं बहुत ओवर रहीं. बोनी कपूर को और सीन मिलने चाहिएं थे. मोनिका चौधरी, हसलीन कौर, इनायत वर्मा और बाकी सब सही रहे. प्रीतम के संगीत में अमिताभ भट्टाचार्य के गाने सुनने लायक हैं. उन्हें ‘देखने लायक’ बनाने का काम भी बखूबी किया गया है. बैकग्राउंड म्यूजिक, सैट्स, लाइटिंग, कैमरा, लोकेशंस, ये सब मिल कर फिल्म को ‘दर्शनीय’ बनाते हैं.
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