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Saturday, 16 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिजब आरक्षण की नीति और सरकारी नौकरियों के लिए चयन में कोटा के खिलाफ घिरी थी नेहरू सरकार

जब आरक्षण की नीति और सरकारी नौकरियों के लिए चयन में कोटा के खिलाफ घिरी थी नेहरू सरकार

त्रिपुरदमन सिंह की नई किताब 'वो सोलह दिन' भारतीय संविधान के प्रथम संशोधन की कहानी है. संसदीय बहसों और विरोध के बीच जून 1951 में पहला संविधान संशोधन किया गया.

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फरवरी और मार्च 1951 में, जब भारत सरकार ज़मींदारी उन्मूलन पर मची अफरातफरी और संविधान में संशोधन के लिए तेज़ी से चल रही तैयारियों में व्यस्त थी और उसका पूरा ध्यान उसी पर केंद्रित था, तब सुप्रीम कोर्ट में दो बड़े मामलों की सुनवाई अपने अंतिम चरण में पहुंचने लगी थी.

ये मामले जाति और समुदाय पर आधारित आरक्षण की संवैधानिक वैधता से जुड़े थे. इनमें से पहला मामला मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा कम्यूनल जनरल ऑर्डर को रद्द करने और शैक्षिक संस्थानों में आरक्षण को समाप्त करने के निर्णय के विरुद्ध तमिलनाडु सरकार की अपील का था.

दूसरा मामला कम्यूनल जनरल ऑर्डर और आरक्षण की नीति तथा सरकारी नौकरियों के लिए चयन में कोटा व्यवस्था की नीति के खिलाफ बी. वेंकटरमना द्वारा दायर एक याचिका का था. कांग्रेस पार्टी के सामाजिक अजेंडा के एक और स्तंभ का संवैधानिक भविष्य तय होने वाला था. इन दोनों मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने औपचारिक आदेश को 26 मार्च को सुरक्षित रखा था. किसी को पता नहीं था कि न्यायालय ने क्या निर्णय लिया था लेकिन उस समय न्यायपालिका के रुख़ को भांपकर प्रेस बड़ी निडरता से अंदाज़ा लगा रही थी कि मद्रास सरकार की अपील ख़ारिज हो जाएगी और सभी संकेत यह इंगित कर रहे थे कि बेंच ने ‘कॉलेजों में दाख़िले के लिए अभ्यर्थियों की संख्या निर्धारित करने वाले आदेश को संविधान के अनुच्छेद 29(2) के खिलाफ’ पाया था.

पहले से ही आशंकित तमिलनाडु सरकार इस तरह की ख़बरों से और घबरा गई तथा उसके नेता भी बिहार के नेताओं की तरह बचाव के लिए नेहरू का मुंह ताकने लगे. सामुदायिक प्रतिनिधित्व को फिर से वैध घोषित करने की अपील लगातार दिल्ली पहुंच रही थीं जिससे भारत सरकार और केंद्रीय मंत्रिमंडल पर दबाव बढ़ता जा रहा था. मंत्रिमंडलीय समिति ने अपनी बैठक में ऐसे अनुरोधों पर कम से कम उस समय तो टालमटोल का रवैया बनाए रखा. सिद्धांत रूप में उसने जाति आधारित आरक्षण के विचार का बचाव करने के लिए भेदभाव पर रोक लगाने वाले अनुच्छेद 15 में संशोधन करने की आवश्यकता को स्वीकार कर लिया. परंतु उसके सदस्य मद्रास सरकार द्वारा समुदाय के आधार पर कोटा निश्‍चित करने की मांग को स्वीकार करने में हिचक रहे थे क्योंकि इसके लिए और बड़ी संवैधानिक प्रवंचना की आवश्यकता होती.

इसका बिहार की तरह मद्रास से पड़ रहे राजनीतिक दबाव की तीव्रता से कम और विशेष कोटा के पीछे के सिद्धांतों को स्वीकार करने में प्रधानमंत्री की अपनी झिझक से ज़्यादा ताल्लुक था. इस तरह समिति (और मंत्रिमंडल) के कई लोगों के दृष्‍टिकोण और उनकी अनुशंसाओं को आकार देने का काम राज्य सरकारों द्वारा पड़ रहे राजनीतिक दबाव के साथ-साथ उनकी इस समझ ने भी किया कि नेहरू उनसे कैसी राय की अपेक्षा करते थे या उनकी समझ में नेहरू क्या चाहते थे.

नेहरू की जीवनी के लेखक सर्वपल्ली गोपाल- भारत के पहले उपराष्‍ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पुत्र और जेएनयू में सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ के संस्थापक- ने इसे ‘उनके (नेहरू के) सहकर्मी होने का दावा करने वाले औसत दर्जे के लोगों की बेताब चापलूसी’ बताया. मंत्रिमंडल की तरह समिति भी ‘परम नेतृत्व और दिशा’ के लिए प्रधानमंत्री की ओर देख रही थी. गोपाल ने लिखा है कि नेहरू को ‘सभी निर्णय स्वयं लेने की इच्छा से बचकर उन्हें इस तरह प्रस्तुत करना था कि वे असंख्य चर्चाओं का परिणाम थे.’

मंत्रिमंडलीय सहयोगी चाहते थे कि सभी नीतियों का निर्धारण नेहरू ही करें, परंतु उन्होंने इसे अस्वीकार करते हुए ज़ोर दिया कि वास्तव में मंत्रिमंडल को सामान्य तरीके से काम करता हुआ दिखना चाहिए.’ चर्चा के लिए समितियों के इस्तेमाल और सामूहिक नीति- निर्धारण के विचार के दिखावे के बावजूद असल में यह प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत राय से तय होता था कि किन राजनीतिक दबावों को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया जाएगा और किन्हें दबाने की कोशिश की जाएगी. गोपाल के शब्दों में भारत ‘वन मैन शो’ यानी एक व्यक्ति पर आधारित तंत्र था जिसमें नेहरू ‘करामाती व्यक्तित्व’ थे.

यदि मद्रास के राजनीतिक दबाव का विरोध किया जा रहा था तो वह मंत्रिमंडल के किसी हिस्से की इच्छा की बजाय स्वयं प्रधानमंत्री के कारण हो रहा था. यह राज्यों के राजनीतिक दबाव के प्रभाव से अधिक प्रधानमंत्री द्वारा अपनी इच्छा से उठाया गया कदम था. दिल्ली में अब निर्णय लेने का अधिकांश काम प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व के बल पर हो रहा था, न कि उनके सहकर्मियों या मुख्यमंत्रियों द्वारा बनाए जा रहे राजनीतिक दबाव से. इसी पृष्‍ठभूमि में प्रस्तावित संशोधन पहली बार प्रेस में प्रकाशित हुए. ‘भारत सरकार संविधान में मौलिक अधिकारों से संबंधित पांच बड़े संशोधन का प्रस्ताव करने वाली है,’ टाइम्स ऑफ इंडिया ने 9 अप्रैल को लिखा: कानून के समक्ष समानता सुनिश्‍चित करने वाले अनुच्छेद 14, धर्म के आधार पर भेदभाव रोकने वाले अनुच्छेद 15, नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे व्यक्तिगत अधिकार सुनिश्‍चित करने वाले अनुच्छेद 19, निजी संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित अनुच्छेद 31 और मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने के अधिकार से संबंधित अनुच्छेद 32 में संशोधनों का प्रस्ताव है. न्यायपालिका द्वारा मौलिक अधिकारों की व्याख्या से सरकार की नीतियों के क्रियान्वयन में कठिनाई आने की वजह से संविधान में संशोधन आवश्यक हो गया था. . . बताया जाता है कि प्रस्तावित संशोधन पूर्व तिथि से लागू होने चाहिए. . . (और) उम्मीद की जाती है कि मई के अंत में संसद सत्र के स्थगित होने से पहले इसे पारित कर लिया जाएगा.

अन्य समाचारपत्रों ने इसकी तीखी आलोचना की. मसलन, स्टेट्समैन ने अपनी सुर्ख़ियों में प्रस्तावित संशोधन को ‘नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सीमित करने का प्रयास’ बताया. अब तक जो जानकारी गोपनीय थी और सरकार व कांग्रेस पार्टी के ऊंचे अहलकारों तक सीमित थी या प्रेस में जिसका केवल दबा-छिपा उल्लेख मिलता था, वह अब सार्वजनिक हो गई थी.

(‘वे सोलह दिन: नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन’ – त्रिपुरदमन सिंह की नई पुस्तक को  पेंगुइन रैंडम हाउस ने छापा है. किताब का अंश पेंगुइन की अनुमति से प्रकाशित किया गया है.)


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