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Thursday, 25 April, 2024
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होली विशेष: होरी खेलन कैसे जाऊं सखी री, बीच में ठाढ़ो कन्हैया रे दईया- बेगम अख़्तर

होली हो और होली के गीत की बात न हो तो होली अधूरी ही लगती है. होली पर वैसे तो बेग़म अख़्तर ने कई गीत ठुमरी और दादरे गाए हैं.

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होरी खेलन कैसे जाऊं सखी री, बीच में ठाढ़ो कन्हैया रे दईया
ए री कैसे जाईं सखी री, राहे-बाट में रोकत-टोकत
कैने गांव की रीत रे दईया, होरी खेलन कैसे जाऊं सखी री.

होली हो और होली के गीत की बात न हो तो होली अधूरी ही लगती है. होली पर वैसे तो बेग़म अख़्तर ने कई गीत ठुमरी और दादरे गाए हैं. उनमें से राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित लेखक यतींद्र मिश्र ने अपनी पुस्तक अख़्तरी सोज़ और साज़ का अफसाना में उन्होंने बेग़म अख्तर की जिंदगी से जुड़े कई पहलुओं को उजागर किया है.

वैसे तो यतींद्र मिश्र को उनकी पिछली किताब लता सुर-गाथा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. यतींद्र मिश्र ने इस किताब में बेगम अख्तर से जुड़े कई प्रसंगों को समेटा है. लेकिन त्योहार के दिनों में बेगम का क्या अंदाज होता था इसको भी खास तरह से पेश किया है. यतींद्र अपनी किताब मं लिखते हैं कि होली और दशहरा के दरबारों में पेशवाज़ पहनकर आती थीं और अपनी अर्द्धशास्त्रीय गायिकी के सम्मोहन से पूरे अयोध्या समाज को बांध लेती थीं. वैसे तो बेगम अख़्तर जो खास चीजें आसे अवस पर सुनाती थीं, उसमें मुबारक़बादी, ठुमरी, कजरी, चैती और होली प्रमुख थी…. वैसे तो मुफ्त हुए बदनाम सांवरिया तेरे लिए, कैसी ये धूम मचाई कन्हाई, पिया मिलन हम जाइब हो रामा, कौन तरह से तुम खेलत होरी..प्रमुख हैं. वैसे तो बेगम अख्तर को समझना हो तो उनकी गजलों से ही उन्हें समझा जा सकता है लेकिन अख्तरी के कुछ अंश प्रकाशित कर रहे हैं….

अहा, यही तो सितम है तेरी आवाज़ का…

अब जो बेगम अख़्तर थीं. उनके गले में एक अजीब कशिश थी. जिसको कहते हैं ‘अकार की तान’ उसमें ‘अ’ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था, और यही उनकी खूबी थी. मगर शास्त्रीय संगीत में वह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि ‘बाई कुछ कहो, जरा कुछ सुनाओ. ‘वे बोलीं,’ अमां क्या कहें, क्या सुनाएं. हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं, ‘निराला बनरा दीवाना बना दे. एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब दीवाना बना दे में उनका गला खिंचा तो हमने कहा, ‘अहा, यही तो सितम है तेरी आवाज़् का.’ वो जो दुगुन-तिगुन के समय आवाज़ लहरा के भारी हो जाती थी, वही तो कमाल का था बेगम अख़्तर में.

वैसी शहाना तबीयत की फ़नकार फिर नहीं होगी…

साठ और सत्तर के दशक में बेगम अख़्तर का इन्दौर आना-जाना लगातार होता रहा. अभिनव कला समाज नाम की प्रतिष्ठित संस्था और यशवन्त क्लब की उनकी महफ़िलें ज़हन में आज भी ताज़ा हैं. इन्दौर की रसिकता तो उन्हें लुभाती ही थी, साथ ही रसिकराज नाम से ख्यात तत्कालीन लेबर कमिश्नर और अनन्य संगीत-प्रेमी रामू भैया दाते से भी बेगम साहिबा की गहरी आत्मीयता थी. ये रिश्ता एक बाकमाल फ़नक़ार और मौसीक़ी की रहनुमाई करने वाले बेजोड़ इंसान के बीच था. रामू भैया दाते, कुमार गन्धर्व, वसंतराव देशपाण्डे और पु.ल. देशपाण्डे में भी गाढ़ी मित्रता और सोहबतें थीं. कहते हैं पहले-पहल रामू भैया के दिमाग़ पर जब अख़्तरी बाई फ़ैज़ाबादी की आवाज़ का नूर तारी हुआ, तो मित्रों सहित उन्हें सुनने कोलकाता (तब कलकत्ता) जा पहुँचे.

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अख़्तरी बाई से इसरार किया कि कल आपको सुनना चाहते हैं. तब वे एक सितारा गुलूकारा हो चुकी थीं, सो रुपये पाँच हज़ार फ़ीस बतायी, जो तय पायी गयी. दूसरे दिन जिस गेस्ट हाऊस में रामू भैया की मण्डली का मुकाम था, वहाँ ठीक समय अख़्तरी बाई पहुँच गयीं. साज़ मिलाए गए और महफ़िल के आग़ाज़ का माहौल बन गया. सामने सुनने वाले रामू भैया और उनके तीन-चार मित्र. अख़्तरी बाई चैंकी और पूछा सामईन नज़र नहीं आ रहे. रामू भैया ने कहा बस हम ही हैं, आप तो बिस्मिल्ला कीजिए. जैसे ही अख़्तरी बाई ने षड्ज लगाया, रामू भैया बोले बस अब रहने दीजिए और ऐसा कहकर उन्होंने रुपये पाँच हज़ार का लिफ़ाफ़ा नज़र कर दिया. अख़्तरी बाई ने पूछा कोई गुस्ताख़ी हो गयी, तो रामू भैया बोले नहीं बस इतना ही सुनने के लिए हम इन्दौर से कलकत्ते आए थे. तो ये आलम था बेगम अख़्तर के लिए दीवानगी का.

कालान्तर में रामू भैया और बेगम साहिबा के पारिवारिक रिश्ते हो गए और वे उनके बुलावे पर कई बार इन्दौर तशरीफ़ लाईं और महफ़िल सजायी. एक बार जब बेगम अख़्तर इन्दौर पहुँची, तो रेलवे स्टेशन पर अगवानी करने के लिए रामू भैया नहीं आए और सिर्फ़ ड्राइवर पहुँचा. बेगम अख़्तर को कुछ गड़बड़ लगी. जोर देकर पूछने पर उसने बताया साहब का फ्रे़क्चर हो गया है और वे अस्पताल में भर्ती हैं. बेगम अख़्तर ने ड्राइवर से कहा होटल नहीं अस्पताल चलो. वे वार्ड में पहुँची, रामू भैया के हाल-चाल पूछे और ड्राइवर को कहा कि गाड़ी में से साज़िन्दों को साज़ सहित बुला लाओ, आज यहीं अस्पताल में महफ़िल सजेगी.

यह वाक़यात एक शिखर कलाकार की सहृदयता, सादगी और इंसानी जज़्बातों का पता देते हैं. सन् 1969 की बात होगी, मैं अपनी श्रीमती और बिटिया के साथ अपने वेस्पा स्कूटर से बेगम साहिबा का शो एंकर करके इन्दौर से कोई 8-10 कि.मी. दूर राजेन्द्रनगर लौट रहा था. सर्दियों के दिन थे और ट्रक ने हमें पीछे से टक्कर मारी. हम तीनों बच गए और एक देवी मन्दिर के ठीक सामने गिरे. यक़ीन करें हम तीनों को ख़रोंच तक नहीं आई. दूसरे दिन मैंने ये वाक़या अभिनव कला समाज के पदाधिकारी को बताया.

तीसरे दिन शायद किसी काम के सिलसिले में उनकी बेगम अख़्तर से ट्रंककाॅल पर बात हुई और उन्होंने मेरे स्कूटर एक्सीडेण्ट का ज़िक्र बेगम साहिबा से किया. दो दिन बाद बेगम अख़्तर ने मेरे कार्यालय पर फ़ोन लगा मुझसे बात की और ख़ैरियत पूछ इत्मीनान जताया. आज सोचिए, किसी शहर के किसी एंकर के लिए क्या कोई मेन स्ट्रीम कलाकार ऐसी संवेदनशीलता जता सकता है.

बेगम अख़्तर की तबीयत बेहद शहाना थी. इन्दौर प्रवास में वे तब से सबसे मँहगें होटल लैंटर्न में ठहरती थीं. मेरे लेखक मित्र श्री सुरेश गावड़े एक बार कार्यक्रम के बाद उसी होटल का बिल चुकाने पहुँचे. तीन दिन का किराया बमुश्किल तीन-साढ़े तीन सौ होना था, जो पन्द्रह सौ के ऊपर नज़र आ रहा था. गावड़े जी ने तफ़सील पूछी तो पता पड़ा किराया तो तीन सौ ही हुआ है, बाक़ी बारह सौ रुपये 555 सिगरेट का बिल था. बेगम साहिबा ने गावड़े जी का बिल लगभग छीनते हुए रिसेप्शनिस्ट से कहा- ‘अरे! सिगरेट का बिल ये क्यों देंगे?’ ये तो हमारी कला के क़द्रदान हैं, बुलाते हैं, अच्छे लोगों को सुनवाते हैं और इज्ज़त देते हैं और क्या चाहिए.’

अब कुछ बातें उनकी गायिकी के बारे में भी कहना चाहूँगा. ज़िन्दगी में कई नामचीन कलाकारों को सुनने का शरफ़ हासिल हुआ है, लेकिन बेगम अख़्तर जैसी तासीर और बेतकल्लुफ़ी वाली कलाकार तो मेरे जानने-देखने-सुनने में नहीं आई. मंच पर आते ही ज़रा सा माइक चैक किया, तबला-सारंगी मिली और वे जो शुरु करतीं, तो आलाप से ही महफ़िल को गिरफ़्त में ले लेतीं. गोया उन्हें खरज की सिद्धि हासिल थी.

गाते वक़्त उनके एक्सप्रेशन देखिए तो लगता कि ग़ज़ल के मानी उनकी सूरत से झर रहे हैं. बेहद ख़ुशमिज़ाजी और अदब से अपना गाना सजातीं. हमारे ख़ित्ते में ग़ज़ल की जो आन और शान है, उसका श्रेय बेगम अख़्तर के खाते में ही जाता है. ग्रीन रूम में जब भी उनसे बात हुई, वे उस्ताद बरकत अली ख़ाँ, कुन्दनलाल सहगल और तलत महमूद के नाम भी बड़े एहतराम से लेतीं थीं. उन्होंने कभी ग़ज़ल की लोकप्रियता का श्रेय अकेले नहीं लिया. शायरी की उन्हें गहरी सूझ थी. सुरों की ताब तो माशाअल्लाह वे पूर्व जन्म से अपने कण्ठ में साध कर आईं थीं. ग़ज़ल तो आज भी गायी जा रही है, लेकिन उसका ठाठ तो बेगम अख़्तर के साथ ही रुख़सत हो गया है.

जड़ाऊ पन्ने का झुमका

बड़ी फ़नकार होने के साथ-साथ वो अपनी शख़्सियत, नफासत, रहन-सहन और तौर-तरीकों में भी बहुत शानदार थीं. हर एक के दुःख-सुख में बड़ी मोहब्बत के साथ शरीक होती थीं. इनमें सबसे हसीन थी, उनके अन्दर की औरत जो शराफ़त, मिलनसारी, दरियादिली और दर्दमन्दी में आगे-आगे थी. एख़लाक ऐसा कि दूर-दूर महके, हर अमीर-ग़रीब उनका अपना हो जाता, हर छोटा उनमें अपनी माँ की छवि देखता और उन्हें ‘अम्मी’ ही कहता. आकाशवाणी पर जिस शान-ओ-शफकत से आतीं कि लोग आज तक नहीं भूले हैं. कार में अपने साथ बास्केट लातीं, थरमस में चाय होती और साथ में नफीस क्राकरी और नमकीन बिस्किट. फिर क्या? स्टूडियो में सभी, क्या साजदार और क्या कामदार- एक रंग में शामिल हो जाते और उनकी चाय के तलबगार बन जाते.

लखनऊ आकाशवाणी के स्टूडियो में एक रोज़ उनके चले जाने के बाद जड़ाऊ पन्ने का एक भारी झुमका कालीन के किनारे पड़ा मिला. जाहिर है कि वो ड्यूटी आॅफिसर के पास पहुँचा और उन्हें ये समझते देर न लगी कि ये बेशक़ीमती ‘झुमका’ और किस का हो सकता है? उन्होंने फौरन फ़ोन किया तो घर से बोलीं ‘हम तो समझे थे कि गया, सो गया, लेकिन ये उसकी तक़दीर थी कि जो जुदा न हो सका, ख़ैर! मैं खुद गाड़ी से आ रही हूँ लेने के लिए.’ कुछ देर बाद वो ड्युटी रूम में थीं. ड्युटी ऑफिसर ने कहा- ‘आपने नाहक ज़हमत की, हम घर तक भिजवा देते.’ तो बोलीं- ‘नहीं भई, किसकी जान फालतू है, जो इस जोखिम को ले के निकलता’ और गहना पर्स में डालकर मुस्कुराती हुई लौट गयीं.

मौसीकी में मन लगाओ या फिर हीरोइन बन जाओ

बेगम अख़्तर के क़रीबियों से यह पता चलता है कि उन्हें अभिनय से काफ़ी लगाव था. लेकिन उनके उस्ताद चाहते थे, वे अपनी गायिकी पर ही टिकें. गीतकार और गायिका सुशीला मिश्र (लखनऊ) एक वक़्त बेगम अख़्तर के काफ़ी क़रीब थीं. उनके मुताबिक, बेगम साहिबा छुटपन में एक थियेटर कम्पनी की अभिनेत्री और गायिका चन्दन बाई से काफ़ी प्रभावित थीं. नन्हीं अख़्तरी को जब भी मौका मिलता, इस कलाकार की नकल करती. माँ मुश्तरी बाई ने उन्हें करीने से संगीत शिक्षा के लिए सबसे पहले उस्ताद इमदाद ख़ाँ को लगाया. इमदाद ख़ाँ उस ज़माने की मशहूर गायिकाओं मलका जान और गौहर जान के सारंगिया रह चुके थे.

लेकिन नन्ही बिब्बी (अख़्तरी) का उनसे सीखने में ज़्यादा जी नहीं लगा. फिर गया में उस्ताद गुलाम मोहम्मद ख़ाँ ने अख़्तरी को संगीत की तालीम दी. इसके बाद विधिवत तालीम अता मोहम्मद ख़ाँ पटियाले वाले से मिली. बताते हैं कि भातखण्डे कॉलेज के उस्ताद शखावत हुसैन ख़ाँ (सरोदिया) की कोशिश से अता मोहम्मद ख़ाँ अख़्तरी को सिखाने के लिए फ़ैज़ाबाद आए थे. यहीं से अख़्तरी के जीवन की वास्तविक संगीत-यात्रा शुरु हुई. अता मोहम्मद ख़ाँ की सख़्त मगर पुरअसर तालीम ने अख़्तरी की दिल में हूक पैदा करने वाली आवाज़ को और जानदार बनाया.

एक साक्षात्कार में बेगम अख़्तर ने कहा था कि ‘उस्ताद जी खरज भरने का अभ्यास इतना ज़्यादा कराते थे कि जी ऊब जाता. पर उनका कहना था कि आवाज़ इसी से बनेगी. मैं ऐसी विकट सुर-साधना से पल्ला छुड़ाने के चक्कर में थी. लेकिन एक दिन राग गुणकली उनसे सुनकर मुझे इस सुर-अभ्यास का महत्त्व समझ में आया. इसके बाद कभी मैंने कोताही नहीं की. मैं अहसानमन्द हूँ अपने उस्ताद की, जिन्होंने मुझे इस लायक बनाया.’

युवा अख़्तरी कलकत्ता के थियेटरों में भी खूब चमकीं. सुर सम्राट कुन्दनलाल सहगल और पहाड़ी सन्याल के साथ भी काम किया. अख़्तरी, झण्डे ख़ाँ के स्टेज वाले गानों से बड़ी मुतासिर थीं. लेकिन अता मोहम्मद ने चेताया कि या तो मौसीकी में मन लगाओ या फिर हीरोइन बन जाओ. कहीं-कहीं ज़िक्र है कि अख़्तरी ने झण्डे ख़ाँ, मौजुद्दीन ख़ाँ और नरगिस की माँ जद्दनबाई से भी थोड़ा बहुत सीखा. जद्दनबाई को वे अम्मी कहती थीं. उनकी ठुमरियों पर जद्दनबाई का असर काफ़ी रहा. इनके अलावा मलका जान, गौहर जान की गायन शैली से भी वे काफी कुछ सीखती रहीं.

कलकत्ता और बम्बई की फ़िल्मी दुनिया से पल्ला छुड़ाकर वे हैदराबाद दरबार आईं. पर ज़िन्दगी में असली मोड़ तब आया, जब रामपुर दरबार में उस्ताद अब्दुल करीम ख़ाँ के भाई उस्ताद वहीद ख़ाँ उनके गुरु बने. उनसे गण्डा बँधवाकर अख़्तरी ने किराना घराने की गायिकी के काफ़ी गुर लिए. वहीद ख़ाँ की ही शागिर्दी का असर था कि वे समय और प्रहर के हिसाब से ग़ज़ल, दादरा और ठुमरी के राग बदल-बदल कर सुनाती थीं. प्रचलित रागों के अलावा वे कलावती, देशकार, चन्द्रकौंस, छायानट, नारायणी जैसे रागों में अपनी गायिकी बखूबी पेश करती थीं. उनकी ठुमरियों पर पंजाब और पूरब अंग का सम्मिलित असर था.

बेगम अख़्तर की क़ब्र पर मदन मोहन

बेगम अख़्तर याद आती हैं, तो याद आता है एक ज़माना. ये नवम्बर, सन् 1974 की बात है, जब भारतीय रजत पट के सुप्रसिद्ध संगीत निर्देशक मदन मोहन मेरे साथ लखनऊ के पसन्द बाग में बेगम अख़्तर की क़ब्र पर पहुँचे थे. बेगम साहिबा के पति इश्तियाक़ अहमद अब्बासी साहब ने यह जिम्मेदारी हमें सौंपी थी. बेगम साहिबा को गुज़रे अभी चार दिन ही बीते थे, इसलिए क़ब्र कच्ची थी. जड़ाऊ फूलों की चादर से मदन मोहन जी ने वो क़ब्र ढक दी थी और केवड़े से सराबोर कर दी थी. लखनऊ के क्लार्क होटल से चल देने के बाद वो रास्ते में एक ज़रा किसी से नहीं बोले थे और वापसी में निरन्तर रोते हुए आये थे. मैंने अपनी ज़िन्दगी में किसी मर्द को कभी इतना रोते हुए नहीं देखा था. लहद (क़ब्र) से लिपटकर जब वह सिसक रहे थे, तो मुझे लगा था कि ख़ामोश ज़ुबां में बेगम साहिबा की गायी हुयी ये ग़ज़ल कहीं से उभर रही है-

बुझी हुई शम्मां का धुँआ हूँ, और अपने मरकज़ को जा रहा हूँ

कि दिल की हस्ती तो मिट चुकी है, अब अपनी हस्ती मिटा रहा हूँ…

इस ग़ज़ल को अपने सीने में संजोए हुए एक पुराना ग्रामोफ़ोन रेक़ॉर्ड मेरी माँं के पास था, जिसके भूरे लिफाफे पर ‘अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी’ की तस्वीर भी बनी हुई थी. जे़वर गहनों से खूब लदी-फँदी और हाथों पर अपनी ठुड्डी टिकाए हुए. ग़ज़ल जिनके नाम का दम भरती है, उन्हीं मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर की नुक़रई आवाज़ की झनकारें, आज भी उसी तरह तीर बनकर दिल में उतरती है.

(अख़्तरी सोज़ और साज़ का अफसाना किताब का ये अंश वाणी प्रकाशन की अनुमति से साभार)

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