‘शर्मा जी नमकीन’ नाम की फिल्म अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि ऋषि कपूर साहब का देहांत हो गया था. ऐसे में ऋषि कपूर वाले किरदार में परेश रावल को ले लिया गया और बाकी की शूटिंग उनके साथ की गई. इसीलिए आधी फिल्म में शर्मा जी के रोल में ऋषि तो आधी में परेश नज़र आते हैं. है न, दिलचस्प प्रयोग? काश, कि फिल्म भी ऐसी ही दिलचस्प हो पाती.
शर्मा जी को उनकी कंपनी ने जबरन रिटायर कर दिया. उनके घर में सिर्फ दो जवान बेटे हैं जो अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हैं. मोहल्ले के बाकी बुड्ढों की तरह शर्मा जी यहां-वहां टाइम पास नहीं कर पाते और एक दिन किसी किट्टी पार्टी में अपना कुकिंग का हुनर दिखाने चले जाते हैं. यहां से शुरू होता है शर्मा जी का नया नमकीन सफर.
एक वक्त के बाद हमारे घरों में बुजुर्गों को हाशिये पर कर देने और उनके सपनों, शौक, आदतों, इच्छाओं के बारे में जवान लोगों के बेपरवाह हो जाने के विषय को अच्छे से उकेरती इस फिल्म में मुद्दा तो उम्दा उठाया गया लेकिन इस मुद्दे पर हितेश भाटिया और सुप्रतीक सेन कायदे की कहानी ही खड़ी नहीं कर पाए. एक बासीपन, रूखापन पूरी फिल्म में साफ दिखाई देता है. फिर फिल्म की स्क्रिप्ट भी काफी हल्की और फीकी है.
बार-बार लगता है कि जो हो रहा है, उसकी बजाय वह क्यों नहीं हो रहा जो ऐसी कहानियों में सहजता से होना चाहिए. घटनाओं और संवादों का प्रवाह ही बेपरवाह हो तो दर्शक उससे जुड़े भी तो कैसे? संवाद तो फिल्म में हैं ही नहीं, बस जिसका जो मन आया, वह बोले जा रहा है. ऋषि कपूर साहब की विदाई ऐसी रूखी फिल्म से तो नहीं ही होनी चाहिए थी. हितेश भाटिया का निर्देशन बेहद हल्का रहा. उन्होंने न तो फिल्म को कसने की कोशिश की, न ही इसके पकने का इंतज़ार, सो यह कच्ची ही रह गई.
एक्टिंग के नाम पर बस ऋषि कपूर का बेहतरीन अभिनय है. परेश रावल ने भी भरपूर भरपाई की है. बाकी कलाकार औसत ही रहे. जब किरदार ही कायदे से न खड़े किए गए हों तो कलाकार भी क्या करें. गीत-संगीत भी फीका ही रहा. दरअसल फीकी तो अमेज़न पर आई यह पूरी फिल्म ही है जिसमें सिर्फ नमक है, मसाले डालना तो इसे बनाने वाले भूल ही गए.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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