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Sunday, 17 November, 2024
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‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व’- सोशल इंजीनियरिंग से कैसे लोगों को साध रहा है RSS

आरएसएस और भारतीय राजनीति पर नज़र रखने वाले लोगों को बद्री नारायण की किताब 'रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व' जरूर पढ़नी चाहिए, क्योंकि आरएसएस जैसे बड़े संगठन को सामाजिक और राजनीतिक तौर पर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.

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भारतीय राजनीति पर उत्तर प्रदेश और बिहार का कितना प्रभाव है, ये बात किसी से छिपी नहीं है. समय-समय पर ये और भी स्पष्ट तौर पर हमारे सामने आती रही है.

बीते दिनों देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हलचल तब तेज हो गई जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के पैतृक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के शीर्ष नेताओं के साथ बैठक हुई.

इस बैठक के बाद आरएसएस के सरकार्यवाह ने उत्तर प्रदेश में चार दिनों तक रहकर योगी आदित्यनाथ सरकार की ‘बिगड़ी छवि’ पर मंथन किया. कोरोना और उसके बाद पंचायत चुनावों में भाजपा के उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन न होने से पार्टी की छवि पर असर पड़ा है और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र आलाकमान कोई भी ढिलाई नहीं बरत सकता.

हालिया घटनाक्रम का जिक्र इसलिए किया गया है क्योंकि भाजपा की राजनीति और जमीनी स्तर पर उसके आधार को व्यापकता देने में आरएसएस की सबसे बड़ी भूमिका रही है. और इस रिश्ते की डोर दशकों पहले जाकर जुड़ती है जब जनसंघ की शुरुआत हुई और तब से ही भारतीय राजनीति में आरएसएस का दखल बढ़ने लगा.

राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर बीते दशकों में जितने प्रयोग आरएसएस ने अपने ढंग से किए हैं, शायद ही देश में किसी दूसरे संगठन ने किए हों. इन्हीं प्रयोगों और जमीनी स्तर पर कैडर के प्रभाव को अपनी हालिया किताब ‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व‘ में लेखक और समाजशास्त्री बद्री नारायण ने अपने अनुभवों, शोध और फील्ड विज़िट के जरिए दर्ज किया है.

मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद जिस तरह से देश की अति पिछड़ा जातियों का असर सामाजिक और राजनीतिक तौर पर बढ़ा, उसे देखते हुए भाजपा के पूर्व महासचिव केएस गोविंदाचार्य ने करीब दो दशक पहले ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का फार्मूला गढ़ा था. जिसके अंतर्गत राजनीतिक तौर पर ओबीसी जातियों को अपने मातहत लाने की राजनीति भाजपा ने शुरू की और 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी की जो विशाल जीत हुई, उसे उसी फार्मूला के सफल होने के तौर पर देखा जा सकता है.

‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व’ का कवर फोटो

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‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व’

बद्री नारायण ने अपनी किताब में लिखा है कि आरएसएस जितना बाहर से दिखता है उसकी जड़े सामाजिक तौर पर उतनी ही गहरी हैं. इसे साबित करने के लिए वो ठोस सबूत और उदाहरण भी पेश करते हैं.

इस किताब में उन्होंने बिहार और उत्तर प्रदेश में आरएसएस से जुड़ी गतिविधियों का अध्ययन किया है और बीते सालों में संगठन ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर जो भी कदम उठाए हैं, उनका सूक्ष्म विश्लेषण किया है.

बद्री नारायण कहते हैं कि आरएसएस ने खुद को समय के अनुसार बदला है और जो उसका हालिया स्वरूप है वो पहले से बिल्कुल अलग है.

लेखक कहते हैं कि आरएसएस ने लोगों के बीच जाकर काम किया है और लोगों की अधूरी आकांक्षाओं को झकझोरा है, जिस कारण लोग उनसे जुड़े हैं. उनके मुताबिक उत्तर प्रदेश में आरएसएस ने उन समुदायों को टार्गेट किया जो पिछड़ा होते हुए भी राजनीति के मुख्यधारा से छूट गए या उन्हें पर्याप्त जगह नहीं दी गई.

बीते सालों में भाजपा और आरएसएस ने उत्तर प्रदेश में सुहेलदेव, रविदास, कबीरपंथियों को खुद से जोड़ा और जमीनी स्तर पर एक नया सामाजिक आधार तैयार किया है.

लेखक कहते हैं, ‘पहचान और विकास आज की राजनीति के दो मुख्य आधार हैं और इसी आधार पर लोगों को एक साथ जोड़ने की कोशिश की जा रही है.’

किताब में लेखक ने कहा है कि आरएसएस ने हिंदुत्व के दायरे में जातियों को लाने के लिए ‘अप्रोप्रियशन की प्रक्रिया ‘ अपनाई जिसका उसे काफी लाभ भी मिला. जैसे कि आंबेडकर और लोहिया को अपने साथ जोड़ने के लिए भाजपा-आरएसएस लंबे समय से प्रयास कर रही है और उसे इसका लाभ मिलता हुआ भी दिख रहा है. यूपी में गैर-जाटव जातियों में भाजपा-आरएसएस का गहरा प्रभाव देखने को भी मिलता है.

पिछड़ी जातियों के लोगों की हमेशा एक शिकायत रहती है कि कोई उन्हें सुनता नहीं है. किताब में एक जिक्र किया गया है- ‘भैय्या, ये साहेब, सूबा, मालिक-हकीम, मंत्री-संत्री लोग या तो हमें सुनते नहीं, सुनते हैं तो समझते नहीं, समझते भी तो जो हम चाहते हैं उसका ठीक उल्टा करते हैं.‘ ये शिकायत ऐसे ही करोड़ों लोगों की त्रासदी को जाहिर करता है.


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आरएसएस और चुनाव

2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की जीत के पीछे आरएसएस के कैडर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. जमीनी स्तर पर आरएसएस ने जो बिसात बिछाई उसका राजनीतिक लाभ भाजपा को मिला.

बद्री नारायण ने अपनी किताब में चुनावों में आरएसएस की भूमिका को विस्तार से दर्ज किया है. 2014 और 2019 में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने अपने ‘फीडबैक सिस्टम’ के जरिए लोगों की इच्छाओं और शिकायतों को दर्ज किया और उसे आलाकमान तक पहुंचाया.

लेखक ने बताया है कि आरएसएस जमीनी स्तर पर एक ‘नैरेटिव’ बुनता है और उसे सफल बनाने में पूरी ताकत झोंक देता है. इस नैरेटिव में ‘हिंदुत्व और राष्ट्रवाद ‘ की सबसे अहम भूमिका होती है, जिस आधार पर लोगों को मोबिलाइज़ किया जाता है.

लेखक कहते हैं, ‘समय-समय पर आरएसएस सामाजिक राजनीति के लिए नए-नए क्षेत्रों में प्रवेश करता है और इसका एक ही मकसद होता है कि अपना आधार कैसे बढ़ाया जाए.’

किताब में लेखक ने इस बात पर जोर दिया है कि हिंदुत्व की राजनीति भारत में लोकतांत्रिक राजनीति से कैसे टकराती है और उसे अपने अनूकूल करते चलती है.

बद्री नारायण कहते हैं, ‘सामाजिक राजनीति के जरिए आरएसएस और नरेंद्र मोदी सोशल कैपिटल तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं. एक तरफ ये सोशल कैपिटल एक नया रिपब्लिक बना रहा है और दूसरी तरफ लोगों से लंबे समय तक का रिश्ता बनाने के लिए भाजपा को फायदा पहुंचा रहा है.’


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जाति और महामारी

बीते एक साल से कोविड महामारी ने भारत को बुरी तरह प्रभावित किया है. कोविड की पहली लहर में देश ने प्रवासी मजदूरों के पलायन की त्रासदी देखी और दूसरी लहर में ऑक्सीजन और स्वास्थ्य सेवाओं के न मिलने से तड़पते लोगों को मरते देखा.

बद्री नारायण ने अपनी किताब में महामारी के दौरान जाति  का कितना असर रहता है, इसे भी टटोलने की कोशिश की. इसके लिए उन्होंने उन प्रवासी मजदूरों से बात की और उनसे समझने की कोशिश की कि पलायन के दौरान जाति की कितनी भूमिका रही.

एक दलित युवक ने कहा, ‘विपत के मारे की क्या जात, भैय्या.’ लेखक की टीम ने कई लोगों से बात की जिसका निष्कर्ष ये निकला कि मुसीबत के समय जातीयता का बोध कमजोर पड़ जाता है, लेकिन पूरी तरह मिटता नहीं है.

प्रवासी मजदूर जब अपने घरों को लौटे तो उन्हें क्वारेंटाइन में रखा गया था. क्वारेंटाइन में कई जातियों के लोग एक साथ रहे और एक साथ ही खाना खाया, जिससे जातीयता का बोध कुछ समय के लिए तो खत्म हुआ लेकिन सामाजिक तौर पर इसका असर ज्यादा समय तक नहीं रहा.

लेखक ने किताब के अंत में महत्वपूर्ण अध्ययन कर जाति और महामारी  को बेहद अच्छे ढंग से समझाया है.

आरएसएस और भारतीय राजनीति पर नज़र रखने वाले लोगों को बद्री नारायण की ये हालिया किताब जरूर पढ़नी चाहिए. क्योंकि आरएसएस जैसे बड़े संगठन को सामाजिक और राजनीतिक तौर पर नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता और उसके बदलते स्वरूप का अध्ययन करते रहना काफी जरूरी है.

दिप्रिंट के एडिटर इन चीफ शेखर गुप्ता ने इस किताब पर टिप्पणी करते हुए कहा है, ‘सोशल ग्रुप्स को साधने, आंबेडकर को अपने अनुकूल गढ़ने और मोबिलाइजेशन की जो रणनीति आरएसएस बना रहा है, उसे समझने के लिए ये किताब बेहद जरूरी है.’

सीएसडीएस के राजीव भार्गव ने कहा है, ‘हिंदुत्व की राजनीतिक अपील को समझने के लिए ये किताब जरूरी है.’

(‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व’ किताब के लेखक हैं समाजशास्त्री बद्री नारायण. इसे पेंगुइन विकिंग पब्लिकेशन ने छापा है)


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