शिकार और शिकारी के किस्से हम अपने बचपन से ही सुनते आए हैं. ये किस्से फिल्मों और किताबों के जरिए और भी मूर्त रूप लेते रहे हैं. लेकिन सामाजिक और पारिस्थितिक ताने-बाने पर शिकार का क्या प्रभाव पड़ता है, इसके बारे में हम शायद ही सोचते हैं और मुश्किल से ही कोई इसके बारे में हमारे आसपास कोई चर्चा भी होती है.
शिकार और शिकारी के बीच किस तरह की स्थिति बनती है और जिंदगी में क्या-क्या द्वंद उभरते हैं, इसे लेकर ही फिल्मकार-निर्देशक रवि बुले ने कहानीकार कुणाल सिंह की कहानी ‘आखेट ‘ पर इसी नाम से एक फिल्म बनाई है.
आखेट उन तमाम फिल्मों से अलग है जिसे हम ब्लॉकबस्टर की श्रेणी में रखते हैं और जिन्हें हम मानते आए हैं कि ऐसी ही फिल्में दर्शकों के बीच ज्यादा चलती है. कम किरदारों और सटीक संदेश के साथ आखेट की कहानी आगे बढ़ती है.
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पूर्वजों की श्रेणी में आने के लिए ‘शिकार’
नेपाल सिंह (आशुतोष पाठक) डाक विभाग में काम करते हैं, जो एक बड़ो घराने से ताल्लुक रखते हैं. उनके पूर्वजों ने हजारों बाघों का शिकार किया है. उनके मन में भी ये बात चलती है कि उन्हें भी अपने पूर्वजों की श्रेणी में आना है. उनके घर में टंगी एक पुरानी बंदूक उन्हें शिकार करने को लेकर हमेशा उत्सुक और बाध्य करती रहती है.
दुर्गा पूजा की छुट्टियों में वो अकेले ही शिकार पर निकल पड़ते हैं झारखंड के पलामू के जंगलों में. वहां उनकी मुलाकात एक गाइड मुंसिफ मियां से होती है जो उनके रहने का इंतजाम करता है.
यहां से फिल्म में शुरू होती है असल ऊहापोह की स्थिति.
मुंसिफ मियां का रोजगार इसी चीज़ से चलता है कि शहर से कोई जंगलों में शिकार करने आएगा और उसकी रोजी-रोटी चलती रहेगी. नेपाल सिंह में वो अपनी रोजी-रोटी की बेहतर स्थिति देखता है और कई कारण ढूंढता है जिससे नेपाल सिंह वहां कई दिनों तक रुका रहे.
गाइड के साथ नेपाल सिंह शिकार पर निकलता है लेकिन कई दिनों की तलाश पर भी उसका सामना बाघ से नहीं होता है. गाइड का भाई एक दिन बाघ की शक्ल में उसके सामने आता है जिससे नेपाल सिंह को लगने लगता है कि इन जंगलों में बाघ मौजूद है. गाइड भी उसे बाघ की उपस्थिति की झूठी खबर देता है.
फिल्म उस संकट की तरफ इशारा करती है जहां जंगलों से बाघों की कमी होने की खबरें इतनी बड़ी होती चली गई कि भारत सरकार को सेव द टाइगर नाम से कैंपेन चलाना पड़ा और बाघों के शिकार को गैर-कानूनी बना दिया गया.
नेपाल सिंह के पूर्वजों के बहाने फिल्म में ये दर्शाया गया है कि लोगों ने शिकार कर जंगलों से बाघों को कैसे कम कर दिया. हालांकि बीतों दिनों भारत सरकार के आंकड़ें बताते हैं कि जंगलों में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है.
अंत में नेपाल सिंह बाघ का शिकार करने का ख्याल छोड़ देता है और वापस अपने घर जाने का मन बनाता है. इस स्थिति को देखते हुए गाइड उसे उस सच से सामना कराता है जो फिल्म को उसके असल संदेश से जोड़ती है.
गाइड मुंसिफ मियां बताते हैं कि इस जंगल में अब बाघ नहीं है. उसने भी यहां 5-7 साल की उम्र में अंतिम बार बाघ देखा था. गाइड नेपाल सिंह को कहता है कि वो इस बात को शहर में किसी से न कहें क्योंकि इससे लोग यहां आना बंद कर देंगे और उसकी रोजी-रोटी चली जाएगी. तब नेपाल सिंह भी कहते हैं कि उनकी बंदूक भी चलती है या नहीं उन्हें नहीं पता. वो तो बस अपने पूर्वजों का ख्याल कर शिकार करने आ गए. जाते-जाते नेपाल सिंह अपनी बंदूक रास्ते में ही फेंक देता है.
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अच्छा संदेश लेकिन कई खामियां
शिकार और उससे बनी स्थिति को रवि बुले की फिल्म आखेट अच्छे से दर्शाती है. लेकिन फिल्म में कई तरह की कमियांं भी नज़र आती है. जैसे फिल्म में कैमरा वर्क में कई तरह की कमी दिखती है. कई शॉट अचानक से किरदारों पर पड़ते हैं जिससे सीन बोझिल सा लगने लगता है.
पलामू के खूबसूरत जंगलों में हुई फिल्म की शूटिंग इसे बेहतर दृश्य देती है जो दर्शकों को भाती है लेकिन कहानी के डॉयलॉग काफी कमजोर है और जो संदेश फिल्म देना चाहती है उसे दर्शकों तक पहुंचाने के लिए और काम किए जाने की जरूरत थी.
फिल्म कई जगहों पर उबाऊ लगने लगती है. एक अच्छे संदेश वाली फिल्म पर बेहतर ढंग से काम किया जा सकता था जिससे उसकी पहुंच ज्यादा लोगों तक हो पाती. इन सारी कमियों के बावजूद ये कहा जा सकता है कि आखेट फिल्म को एक बार जरूर देखना चाहिए और पर्यावरण और जंगल के जीवों को लेकर एक व्यापक जागरूकता फैलानी चाहिए. इस दिशा में रवि बुले की फिल्म आखेट एक अच्छा प्रयास है.
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