इस फिल्म के निर्देशक कपिल वर्मा की यह पहली फीचर फिल्म है. कपिल के पिता टीनू वर्मा हिन्दी की कई मसाला एक्शन फिल्मों के स्टंट डायरेक्टर रहे हैं. उन्होंने एक्टिंग में भी हाथ आजमाया और सनी देओल वाली ‘मां तुझे सलाम’ के अलावा दो-तीन फिल्में डायरेक्ट भी कीं. अब कपिल की यह फिल्म देख कर लगता है कि उन्होंने बचपन से अपने आसपास जिस किस्म का माहौल और सिनेमा देखा, उसी को अपने भीतर बिठा लिया और ठीक वैसी ही मसालेदार फॉर्मूला फिल्म बना डाली जैसी उनके पिता बनाया करते थे या जैसी फिल्मों में वह एक्शन डायरेक्टर हुआ करते थे. ऐसा एक्शन, जिस पर यकीन भले न हो लेकिन जिसे देख कर आपको मज़ा आए. पिता ने ‘गदर-एक प्रेमकथा’ में हैंडपंप उखड़वाया था, बेटे ने इस फिल्म में भारी-भरकम ज़ंजीर से बंधा सीमेंट का चबूतरा उखड़वा लिया.
कहानी की बात करें तो इस फिल्म का हीरो ओम देश का जांबाज कमांडो है. इतना बलशाली कि सब कुछ उखाड़ दे लेकिन उसका कुछ न उखड़े. एक हादसे में उसकी याद्दाश्त चली जाती है लेकिन वह लौटता है ताकि राष्ट्र के खोए हुए कवच को वापस ला सके और साथ ही अपने परिवार के माथे पर लगा गद्दारी का धब्बा मिटा सके. कवच यानी परमाणु हमले से देश-दुनिया को बचाने वाला एक वैज्ञानिक फॉर्मूला जो गलत हाथों में नहीं पड़ना चाहिए.
इस फिल्म का नाम ‘राष्ट्र कवच ओम ’ जितना अजीब-सा है, फिल्म उतनी बुरी नहीं है. फिल्म में बाकायदा एक कहानी है जो ठीक-ठाक लगती है. उस पर लिखी गई एक ऐसी स्क्रिप्ट है जो अपनी धीमी गति के बावजूद बहुत ज्यादा नहीं अखरती है. निर्देशक का काम भी ठीक-ठाक है. अब भले ही इस ‘ठीक-ठाक काम’ के लिए उन्होंने डॉक्टर बने शख्स से कॉमेडी करवाई हो, इंटरवल के बाद एक आइटम नंबर घुसा डाला हो, मकसद तो दर्शकों को लुभाना ही है न. फिर इन सबसे ऊपर एक्शन का ताबड़तोड़ मसाला और कहानी के ट्विस्ट व किरदारों के पल-पल बदलते तेवर तो हैं ही.
आदित्य रॉय कपूर अपनी (सीमित) रेंज में रह कर अच्छा काम कर ही जाते हैं. उनका बलशाली अवतार देखना अच्छा लगता है. नायिका संजना सांघी इस किस्म के रोल में काफी रूखी-फीकी लगीं. प्रकाश राज, प्राची शाह, जैकी श्रॉफ ठीक रहे. सबसे ज़्यादा असरदार काम आशुतोष राणा का रहा. अपने किरदार को अपने भावों से व्यक्त करना कोई उनसे सीखे. कुछ एक संवाद उम्दा हैं.
यह फिल्म दरअसल बरसों पहले आने वाली उन एक्शन मसाला फिल्मों की कतार का हिस्सा है जिनमें एक ही कहानी में परिवार, प्यार, देशभक्ति, गद्दारी, कॉमेडी, एक्शन, रोमांस, गाना-बजाना-नाचना जैसे मसाले डाल कर ज़ोर-ज़ोर से हिलाते थे और अक्सर कुछ ऐसा बन कर सामने आता था जिसे आम दर्शक दिमाग लगाए बिना, गंभीर रिव्यू पढ़े बिना और खुद गंभीर हुए बिना, बस टाइमपास के लिए देख लिया करते थे.
ऐसी फिल्में, जो छोटे सैंटर्स के और सस्ती टिकटों वाले सिंगल-स्क्रीन थिएटरों के दर्शकों के लिए मनोरंजन लेकर आती थीं. लेकिन कपिल भूल गए कि आज के जमाने में टाइमपास के लिए उन आम दर्शकों के लिए बहुत कुछ मौजूद है.
तो ऐसे में कोई इस पर पैसे क्यों खर्च करे?
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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