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Friday, 22 November, 2024
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पेचीदा नैरेशन में उलझी बेहद बोर फिल्म है मोहित सूरी की ‘एक विलेन रिटर्न्स’

सूरी की फिल्मों में गाने हर दूसरे सीन के पीछे से आ-आकर बजते रहते हैं, भले ही उनकी जरूरत हो या न हो. उनकी फिल्मों के संवाद पैदल किस्म के होते हैं.

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2014 में आई मोहित सूरी की फिल्म ‘एक विलेन’ में एक ऐसा शख्स सीरियल किलर था जो एक बिल्कुल ही आम आदमी था, जिस पर कोई शक नहीं कर सकता लेकिन किसी वजह से वह कत्ल करने लगा. अब मोहित की यह फिल्म ‘एक विलेन रिटर्न्स’ भी उसी ट्रैक पर है. मुंबई शहर में एक के बाद एक लड़कियों के कत्ल हो रहे हैं. एक ही शख्स कर रहा है ये कत्ल. पुलिस परेशान है, लोग हैरान. कौन है यह कातिल? क्या मकसद है उसका? क्या वह हीरो है? या फिर कोई विलेन?

यह कहानी सुनने-पढ़ने में जितनी सीधी लग रही है, उतनी सीधी यह इस फिल्म में नहीं दिखती. पर्दे पर इसे इस कदर पेचीदा ढंग से उतारा गया है कि इसे समझते-समझते दिमाग के तार झनझनाने लगते हैं. कहानी में एक साथ दो ट्रैक का चलना और दोनों का ही लगातार वर्तमान और अतीत के पाले बदलना इस बुरी तरह से उलझा हुआ है कि थोड़ी देर तक दिमाग चलाने के बाद दर्शक खुद को इस फिल्म के हवाले कर देता है कि अब तो गलती हो गई थिएटर में घुसने की, भुगतना तो पड़ेगा ही.

मोहित सूरी अब तक जिस किस्म की फिल्में बनाते आए हैं, यह फिल्म भी ठीक वैसी है. उनकी फिल्मों के किरदार कभी सीधे, साधारण नहीं होते. उलझे हुए व्यक्तित्व वाले, सायको किस्म के किरदार रखे जाते हैं ताकि ये लोग अच्छा-बुरा, जैसा भी बर्ताव करें, उसे इंसानी फितरत बता कर उचित ठहराया जा सके. उनके हर किरदार को या तो बिना मां-बाप का दिखाया जाता है या नाजायज बताया जाता है या फिर मां-बाप से उनका झगड़ा दिखाया जाता है. उनकी फिल्मों के किरदार जब एक-दूसरे से प्यार करते हैं तो उस प्यार की महक दर्शकों को भले ही महसूस न हो लेकिन इनका प्यार ‘मर जाएंगे या मार डालेंगे’ टाइप का होता है.


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सूरी की फिल्मों में गाने हर दूसरे सीन के पीछे से आ-आकर बजते रहते हैं, भले ही उनकी जरूरत हो या न हो. उनकी फिल्मों के संवाद पैदल किस्म के होते हैं. और हां, गलती से भी पूरी फिल्म में कोई कॉमेडी सीन नहीं डाला जाता जिससे फिल्म भारी-भारी लगती रहती है. यह फिल्म भी इसी फ्लेवर की है जिसे इसके उलझे हुए नैरेशन के चलते एक वक्त के बाद झेलना भारी हो जाता है.

जॉन अब्राहम बेहद सूखे और रूखे दिखे हैं. अपने किरदार में उनकी दिलचस्पी ही नजर नहीं आती. अर्जुन कपूर साधारण अभिनेता हैं, सो साधारण काम करते ही दिखाई दिए. तारा सुतारिया और दिशा पाटनी का चरित्र-चित्रण उलझा हुआ दिखा और बाकी सब लोग भी हल्के ही रहे. असल में इस किस्म की हल्की स्क्रिप्ट वाली फिल्मों में भारी-भरकम कलाकार लेने भी नहीं चाहिए, उन कलाकारों के साथ अन्याय हो जाता है. शाद रंधावा जैसा कमजोर कलाकार तो लिया सो लिया, ‘सत्या’ वाले जे.डी. चक्रवर्ती ने इस बेकार रोल में क्या देखा होगा?

निर्देशक मोहित सूरी का सारा ध्यान फिल्म को स्टाइलिश बनाने और बैकग्राउंड में शोर भरा म्यूजिक भरवाने की तरफ ही रहा. स्क्रिप्ट पर उन्होंने तवज्जो दी ही नहीं. हैरानी तो यह है कि दो लेखकों की लिखी इस फिल्म में दो-दो स्क्रिप्ट सुपरवाइजर भी हैं जबकि फिल्म में अतार्किक बातों की भरमार है. एक्शन सीक्वेंस में भौतिकी के नियमों की धज्जियां उड़ाना तो हमारी फिल्मों में शान की बात समझी जाती है.

फिल्म इंडस्ट्री में अक्सर नैपोटिज्म यानी भाई-भतीजावाद की बात होती है. लेकिन इस फिल्म को देख कर लगता है कि असली नैपोटिज्म कलाकारों के स्तर पर नहीं, डायरेक्टर के स्तर पर हो रहा है. पिछले 17 साल से एक ही जैसी फिल्मों का घोल पिला रहे मोहित सूरी के इस किस्म के प्रोजेक्ट पर एकता कपूर और टी. सीरिज जैसे बड़े बैनर पैसे लगाने को तैयार हो जाते हैं तो यह भाई-भतीजावाद तो है ही, उससे भी बढ़ कर यह हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य है.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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