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Sunday, 3 November, 2024
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जासूसी, एक्शन, थ्रिल परोसती एक औसत फिल्म ‘मिशन मजनू’

हालांकि अपने नाम से यह कोई रोमांटिक किस्म की फिल्म लगती है और देखा जाए तो इसका यह शीर्षक ही इसकी पहली कमजोरी है क्योंकि इसके नाम से इसके स्वाद का अंदाजा नहीं लग पाता.

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सत्तर के दशक में जब भारत ने पोखरण में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो पड़ोसी पाकिस्तान बौखला गया था. वह भी तुरंत यहां-वहां से पैसे और संसाधन जुटा कर एटम बम बनाने में जुट गया. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने तो यह तक कह दिया कि हम भूखे रह लेंगे, घास खा लेंगे लेकिन एटम बम जरूर बनाएंगे. पाकिस्तान को बम बनाने से रोकने के लिए यह पता लगाना जरूरी था कि वह एटम बम कहां बना रहा है और उसका सबूत भी हासिल करना था ताकि पूरी दुनिया के सामने उसे नंगा किया जा सके. इस काम को करने का जिम्मा मिला था भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के उन जासूसों को जो बरसों से पाकिस्तान में छुप कर रह रहे थे. यह फिल्म ऐसे ही कुछ जासूसों के उस मिशन को दिखाती है जिस मिशन का फिल्म में नाम ‘मिशन मजनू’ है.

हालांकि अपने नाम से यह कोई रोमांटिक किस्म की फिल्म लगती है और देखा जाए तो इसका यह शीर्षक ही इसकी पहली कमजोरी है क्योंकि इसके नाम से इसके स्वाद का अंदाजा नहीं लग पाता. इसके बाद आती है इसकी कहानी जो दिखाती है कि कैसे एक देश के जासूस दूसरे मुल्क में घुल-मिल कर रहते हैं, जोखिम उठाते हैं और अपने देश को खबरें भेजते हैं. साथ ही वे लोग कैसे अपनी असली व नकली पहचान के बीच संतुलन बनाते हैं और किस तरह से अपने जज्बातों व अपनी कमज़ोरियों को काबू में रखते हैं, इस तरह की फिल्में यह सब बखूबी दिखाती हैं. मेघना गुलजार की ‘राजी’ के बाद इस किस्म की फिल्मों, वेब-सीरिज की तादाद काफी बढ़ चली है.

फिल्म: मिशन मजनू

दिक्कत कहानी में नहीं है लेकिन इस फिल्म की स्क्रिप्ट और किरदारों के साथ काफी दिक्कते हैं. इस की पटकथा में ‘फिल्मीपन’ बहुत ज्यादा है. इसमें संयोग बहुत होते हैं जिससे साफ लगता है कि हम एक ‘फिल्म’ देख रहे हैं जिसमें सब कुछ ‘फिल्मी’ है, जमीनी नहीं. किरदारों की पृष्ठभूमि में न जाकर उनका सिर्फ वर्तमान दिखाना इसे और हल्का बनाता है. साधारण कहानी, औसत पटकथा और हल्के संवाद इसे एक आम, ठीक-ठाक सा मनोरंजन देने वाली फिल्म बना देते हैं. शांतनु बागची का निर्देशन साधारण है, उसमें कोई अनोखी बात नजर नहीं आती.

सिद्धार्थ मल्होत्रा के अभिनय की रेंज बहुत सीमित है. जरा-सा इधर-उधर होते ही उनका बनावटीपन झलकने लगता है. ‘पुष्पा’ वाली रश्मिका मंदाना खूबसूरत और प्यारी लगीं, काम भी अच्छा कर गईं. असली रंग तो सहयोगी कलाकार जमाते हैं. परमीत सेठी, शारिब हाशमी, कुमुद मिश्रा, मनोज बक्शी, रजत कपूर, अश्वत्थ भट्ट, जाकिर हुसैन, शिशिर शर्मा, अविजित दत्त, मीर सरवर, अवंतिका अकेरकर, तृप्ता लखनपाल जैसे कलाकारों ने फिल्म को अधिक दर्शनीय बनाया. गीत-संगीत फिल्म में रचा-बसा रहा. मनोज मुंतशिर का गीत ‘मिट्टी को मां…’ उम्दा रहा. एक्शन सीन जब भी आए, अच्छे लगे.

नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई यह एक औसत फिल्म है जो ज्यादा तनाव न रचते हुए टाइमपास मनोरंजन दे जाती है और देश के उन बेटों की कहानी से रूबरू करवा जाती है जिनके असली नाम तक देशवासियों को पता नहीं होते.


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