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Sunday, 5 May, 2024
होमसमाज-संस्कृतिबंद होने की कगार पर खड़े महाराष्ट्र के सौ साल पुराने स्कूल को मिला 'जीवनदान'

बंद होने की कगार पर खड़े महाराष्ट्र के सौ साल पुराने स्कूल को मिला ‘जीवनदान’

जिला-मुख्यालय सांगली से कोई 40 किलोमीटर दूर एक स्कूल है- शासकीय प्राथमिक स्कूल 'रेठरे हरणाक्ष.' यहां बीते तीन साल में बच्चों की संख्या तीन गुना बढ़कर सौ के पार हो चुकी है.

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बच्चों की संख्या लगातार कम होने से देश भर में छत्तीसगढ़ और राजस्थान सहित कई राज्यों के बहुत सारे सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं. महाराष्ट्र भी इससे अछूता नहीं है. यहां भी जिला परिषद के कई स्कूलों में ताला लग चुका है.

ऐसे में जिला-मुख्यालय सांगली से कोई 40 किलोमीटर दूर एक स्कूल है- शासकीय प्राथमिक स्कूल ‘रेठरे हरणाक्ष.’ यहां बीते तीन साल में बच्चों की संख्या तीन गुना बढ़कर सौ के पार हो चुकी है. इस साल एक अप्रैल से बीस दिन पहले ही पहली कक्षा में पचास से अधिक बच्चों का दाखिला हो गया. यहां यह बात इसलिए अहम हो जाती है कि तीन साल पहले इस स्कूल में बच्चों की संख्या घटकर 40 से भी कम पहुंच गई थी. लेकिन, बदली परिस्थिति में गांव का हर परिवार अपने बच्चे को पढ़ने के लिए इसी स्कूल में भेजना चाहता है. ऐसा संभव हुआ शिक्षकों के विशेष प्रयासों से. लेकिन, इन प्रयासों में शिक्षण की विशेष पद्धति और कई व्यवहारिक गतिविधियां शामिल हैं.

हर वर्ष शैक्षणिक सत्र के लिए बच्चों का दाखिला एक अप्रैल से शुरू होता है. दूसरी तरफ, इस गांव के सरकारी स्कूल में दाखिला शुरु होने में एक महीने पहले ही कार्यालय के बाहर लंबी लाइन लग गईं. इसमें यह गांव तो गांव, इस गांव से दूर के कई अन्य गांवों के बच्चों के परिजन थे, जो सुबह सात-आठ बजे से ही अपने बच्चों को इसी स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए प्रधानाध्यापक को घेरे बैठे थे. यह कार्यालय था जिला परिषद प्राथमिक-शाला रेठरे हरणाक्ष का और यहां प्रधानाध्यापक थे गिरीश मोकाशी.

गिरीश मोकाशी बताते हैं, ‘तीन साल पहले इस स्कूल के बंद होने की बातें होती थीं. इसे बंद होने की खबर एक समाचार-पत्र में भी छपी थी. इस स्कूल में कई पीढ़ियों ने पढ़ाई की है. इसलिए, इससे बहुत सारे लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं. हमारे लिए मुश्किल समय था, पर अब स्थिति बिल्कुल अलग है.”

कार्यालय के सूचना-पटल पर बच्चों की संख्या दर्ज है. इसमें कुल 118 बच्चों में से 65 लड़के और 53 लड़कियां हैं. प्रधानाध्यापक के अलावा यहां एक शिक्षक और एक शिक्षिका है. मराठी माध्यम का यह स्कूल वर्ष 1880 में स्थापित हुआ था.

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स्कूल के शिक्षक कृष्णा पाटिल बताते हैं, ‘अगले शैक्षणिक-सत्र में यहां बच्चों की संख्या डेढ़ सौ पार हो जाएगी. यहां बच्चों की संख्या इसलिए बढ़ गई कि हम पढ़ने में बच्चों की रुचि जगाने में सफल रहे. बच्चे अब हर विषय की बातों को मिलकर सीखते हैं और पहले से अच्छा परीक्षा परिणाम ला रहे हैं.’ उन्होंने बताया कि तीन साल में बच्चों की झिझक दूर हुई है. उनके मुताबिक ऐसा संविधान के मूल्यों पर आधारित गतिविधियों के कारण संभव हुआ.

अपने अनुभव बताते हुए मोकाशी ने बताया कि दिसंबर 2015 में उन्होंने पहली बार मूल्यों पर आधारित कुछ गतिविधियों को कराया तो इसके कारण बच्चों में सीखने की प्रक्रिया पर अच्छा प्रभाव पड़ा. फिर हमने इस तरह की और गतिविधियों को तैयार किया और इंटरनेट व यूट्यूब से भी बच्चों को सिखाने के नए तरीकों के बारे में जाना.

मोकाशी के मुताबिक, ‘यह शिक्षण की नई, अनूठी और असरदार पद्धति साबित हुई. इसकी मदद से हमने बच्चों को सिखाने का तरीका बदला. यही वजह रही कि स्कूल के प्रति बच्चों की सोच बदली.’

इन गतिविधियों से मोकाशी ने स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों पर आधारित गुणवत्तापूर्ण शिक्षण को बढ़ावा देने पर जोर दिया. वजह, उनका उद्देश्य बच्चों को लोकतांत्रिक नागरिक बनाना है.

जब कोई व्यक्ति बच्चों की कक्षा में जूते पहनकर आता है तो बच्चे उससे बाहर जूते उतारने के लिए आग्रह करते हैं. बच्चे बताते हैं कि मूल्यवर्धन की एक गतिविधि के दौरान उन्होंने जूते-चप्पल पहनकर कक्षा में नहीं आने का नियम बनाया है. पांचवी में पढ़ने वाली अनुष्का शिंदे बताती हैं, ‘यह नियम सब पर लागू होता है. सर भी जूते या चप्पल पहनकर नहीं आते.’

तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला तनवीर मोहम्मद बताता है, ‘मूल्यों की कहानियां हमें बहुत पसंद हैं, क्योंकि इसमें सबको सोचना पड़ता है, सब बच्चों के अलग-अलग उत्तर होते हैं.’ कक्षा-तीसरी के बच्चे अपनी मूल्यवर्धन की विद्यार्थी गतिविधि पुस्तिका से ‘गलतफहमी’ नाम की कहानी पर एक नाटक भी करते हैं. कृष्णा ने बताया कि इस तरह की गतिविधियां करने के कारण ये बच्चे रचनात्मक और स्वतंत्र तरह से सोच पाते हैं.

स्कूल की शिक्षिका दीपाली सदलगे बताती हैं, ‘इन बच्चों में यह बदलाव धीरे-धीरे आया है, अब वे अपने बारे में खुलकर सोचते हैं, एक-दूसरे से चर्चा करते हैं, किसी काम में आने वाली बाधाओं को पहचानते हैं, अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं और मिलकर निर्णय लेते हैं.’


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बच्चों के परिजनों में से एक प्रमोद संपतराव हमें बताते हैं, ‘स्कूल भवन और बच्चों को देखकर आप बदलाव का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं, इसे वही समझ सकता है जो तीन-चार साल से इस स्कूल से जुड़ा रहा है.’ प्रमोद ने बताया कि एक साल पहले उनकी बेटी श्रेया एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ती थी, मगर एक साल पहले इन्होंने अपनी बेटी श्रेया का नाम प्राइवेट स्कूल से कटवाकर इस स्कूल में लिखवाया है.

प्रमोद का मानना है कि प्राइवेट स्कूल में श्रेया बोलती नहीं थी, जबकि इस स्कूल में दूसरी से तीसरी कक्षा तक आते-आते वह पूरे आत्मविश्वास के साथ बोलने लगी है, बहुत सारे सवाल पूछने लगी है, पहले लोगों से नमस्ते तक नहीं करती थी, मगर अब वह सबसे अच्छी तरह से बात करने लगी है.

ग्रामीण विश्वास मोरे ने बताया कि यहां ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल से निकालकर इस स्कूल में दाखिला दिलाना चाहते हैं. ऐसा इसलिए कि वे देखते हैं कि इस स्कूल में पढ़ने वाला उनके पड़ोस का बच्चा पढ़ाई के साथ अच्छे मूल्य भी सीख रहा है और अपने आप को अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर पा रहा है.

अक्का ताई शिंदे की नातिन अनुष्का चौथी कक्षा में पढ़ाई करती है. अक्का ताई कहती हैं, ‘हमारी बेटी यहां (स्कूल) की बहुत सारी बातें घर पर और घर की बातें यहां बताते हैं, यहां के मास्टर घर आकर बच्चों के बारे में पूछते हैं, हमें भी यहां बुलाते हैं, मैं अपने पोते को भी यहीं पढ़ाना चाहती हूं.’

कृष्णा बताते हैं कि इन गतिविधियों में बच्चों को अपने परिजनों से जोड़ने के लिए तरह-तरह गृह-कार्य दिए जाते हैं. इसमें बच्चे और परिजन विभिन्न विषयों पर एक-दूसरे के साथ चर्चा करके जानकारियां साझा करते हैं. इस तरह से वे स्कूल की गतिविधियों में शामिल होते हैं.

वरिष्ठ नागरिक समन्वय समिति के सदस्य जगन्नाथ मोरे ने बताया कि वे शिक्षण के इन तौर तरीकों और मूल्यों पर आधारित गतिविधियों के बारे में काफी कुछ जानने लगे हैं. जगन्नाथ बताते हैं, ‘परिवर्तन हुआ है. यह इसलिए हुआ है कि मूल्यवर्धन के माध्यम से यहां के शिक्षकों ने हम वरिष्ठ नागरिक को सीधे बच्चों से जोड़ा. ये शिक्षक हमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बुलाकर बच्चों से चर्चा करने के लिए कहते हैं. चर्चा में नशा-मुक्ति और स्वच्छता जैसे मुद्दे होते हैं.’

शिक्षिका दीपाली का कहना है कि स्कूल और समुदाय के बीच संबंध मजबूत होने से बच्चों को बहुत लाभ हुआ है. दीपाली बताती हैं, ‘गांव वालों ने स्कूल को टीवी, सांउड सिस्टम, कम्प्यूटर, प्रिंटर और अलमारियां भेंट की हैं. ऐसी सामग्री से हमें मूल्यवर्धन की गतिविधियों और शिक्षण से जुड़े कामों में मदद मिल रही है.’

तीन साल पहले की स्थिति से तुलना करते हुए मोकाशी बताते हैं, ‘इस गांव के ज्यादातर लोग मजदूर हैं. माता-पिता सुबह उठकर गन्ने के खेतों में काम करने चले जाते हैं. तीन साल पहले इनके बच्चे बिना नहाए ही स्कूल आ जाते थे. तब सवाल था कि इन्हें साफ-सफाई के बारे में कौन बताएगा? मूल्यवर्धन की गतिविधियों में साफ-सफाई के संबंधित गतिविधियां भी हैं. हमने उनकी मदद से इन बच्चों में यह समझ पैदा की कि सफाई का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है.’


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मोकाशी ने बताया कि मूल्यवर्धन सत्र में बच्चों से अच्छी तरह से मंजन कराया जाता था, उन्हें स्कूल परिसर में ही नहाना भी सिखाया जाता था.

अंत में, कृष्णा बताती हैं कि दस हजार की आबादी में यहां छह सरकारी और एक प्राइवेट स्कूल है. लेकिन, ज्यादातर लोग इस स्कूल में अपने बच्चों का दाखिला दिलाना चाहते हैं. हालत यह है कि तीन किलोमीटर दूर से भी बच्चे यहां पढ़ने के लिए आ रहे हैं.

(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं)

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