एक मां के त्याग और बलिदान के इर्द गिर्द कई कहानियां बुनी जाती हैं. हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भी इस का नमूना देखते ही हैं. पितृसत्ता की बदौलत कितनी बार महिलाओं को परिवार शुरू करते समय भी बहुत सा त्याग करना पड़ता है. लेकिन उसके अपने सपनों और अस्तत्व का क्या? ‘पंगा’ के ज़रिये फ़िल्मकार अश्विनी अय्यर तिवारी इसी सवाल से हमें रूबरू कराती हैं.
कंगना रनौत, जस्सी गिल और यज्ञ भसीन अभिनीत ये फिल्म एक खुशहाल मां और पत्नी जया निगम की कहानी कहती है जो भोपाल में रहने वाली एक रेलवे कर्मचारी है. किसी समय में कबड्डी की राष्ट्रीय टीम की कप्तान रही जया अपने सात साल के बेटे के इर्द गिर्द घूमती ज़िन्दगी में संतुष्ट रहने के बावजूद अपने खेल को बहुत मिस करती है. अपने बेटे की ज़िद पर वो दोबारा खेल में वापसी करना चाहती है. जो बात कभी एक मज़ाक से शुरू हुई, वो अब अंतर्राष्ट्रीय टूर्नामेंट जीतने के जुनून में बदल जाती है.
फिल्म शुरू से ही आपको बहुत प्यारी लगेगी. इसमें हास्य है, व्यंग्य है और दर्शक इससे भली भांति खुद को जोड़ पाएंगे. अश्विनी अय्यर तिवारी का लेखन और निर्देशन हर सीन में चमकता है. जया और उसके पति प्रशांत (जस्सी गिल) की ज़िन्दगी भली-चंगी चल रही है. दर्शक जल्द ही खुद को उनके छोटे छोटे दुखों और खुशियों, बेटे (यज्ञ )को लेकर चिंताओं में शामिल होता पाते हैं. कहानी की गति एकदम ठीक है- न ज्यादा जल्दी-जल्दी चलकर लूपहोल्स छोड़ती है और न ही इतनी धीमी कि बोरिंग लगने लगे.
ये फिल्म खिलाडियों की ज़िन्दगी की भी एक झलक दिखाती है. उनके परिवारों का संघर्ष और बलिदान से अमूमन बाहर वाले लोग अछूते ही रहते हैं, जो इस फिल्म में बखूबी दर्शाया गया है.
ट्रेनिंग के सफर में जया का घर से दूर रहना उसके और उसके परिवार के रिश्तों पर भी असर डालता है. हालांकि इस खींच तान को फिल्म में और मुखरता से दिखाया जा सकता था, पर तिवारी ने इस मामले को बड़ी सरलता से सुलझा दिया है.
फिल्म के पात्र बड़े सुलझे और जया का साथ देने वाले हैं. भले ही ये एक आदर्श तरीका हो, पर इसी चक्कर में फिल्म वो पंच खो देती है जो संघर्ष की स्थिति में मिलता.
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नायिका जया का किरदार अच्छे से गढ़ा गया है. वो महत्वाकांक्षी है, होशियार है और एक मां और पत्नी की ज़िम्मेदारी को अच्छे से निभा रही है. भले ही उसका काम एक ड्रीम जॉब न हो, वो अपने ज़िम्मेदारियों और ज़िन्दगी पर गर्व करती है और किसी के इस बात पर सवाल उठाने से बुरा मान जाती है, चाहे सवाल उठाने वाला उसका अपना बेटा क्यों न हो.
एक हाउसवाइफ से खिलाड़ी के तौर पर जया के किरदार का बदलाव भी बखूबी दिखाया गया है. प्रशांत एक ऐसे पति के रूप में नज़र आता है जो स्वीट है और अपनी पत्नी को सपोर्ट करता है. हालांकि उसके मन में पत्नी के कबड्डी में वापस जाने को लेकर शंकाएं तो हैं, पर जया की ख़ुशी सब पर भारी है.
यहां भी तिवारी जया और प्रशांत के संघर्ष को बहुत तूल नहीं देती हैं और सब बहुत आराम से निपट जाता है.
कंगना की परफॉरमेंस एक बिंदु है जहां फिल्म कमज़ोर पड़ती है. इसमें कोई दोराय नहीं की कंगना ने कई सशक्त किरदार बखूबी से निभाए हैं, पर इस फिल्म में उनकी एक्टिंग उतनी स्मूथ नहीं लगती है. कुछ इमोशनल सीन्स में उनके हाव भाव अनचाहे से हैं. गिल ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है.
पर पूरी फिल्म में बाल कलाकार यज्ञ भसीन छाए हुए हैं. शानदार डायलॉग डिलिवरी और टाइमिंग के साथ थोड़े सन होने के बावजूद भी भसीन दर्शकों का दिल जीत ले जाते हैं.
ऋचा चड्ढा और नीना गुप्ता की भी सहायक भूमिकाएं सराहनीय हैं.
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पंगा एक नारीवादी फिल्म है और ऐसी कहानी बताती है जिस से हम सब वाकिफ होंगे, पर एक कम संघर्ष वाला आसान तरीका अपनाते हुए अपने उद्देश्य में ज़रा सी चूक जाती है. अपनी मां के साथ ये फिल्म ज़रूर देखने जाएं और उनको उनके सपनों के लिए प्रोत्साहित ज़रूर करें.
(इस फिल्म समीक्षा को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)