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Friday, 15 November, 2024
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जयशंकर प्रसाद का ‘गुंडा’ अपराधी नहीं था

जयशंकर प्रसाद काशी में पैदा हुए और पूरा जीवन यहीं बिता दिया. वाराणसी के सीर गोवर्धन में स्थित उनका पुश्तैनी मकान आज भी जर्जर अवस्था में है.

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आपने स्कूल की पढ़ाई सीबीएसई बोर्ड से की हो, आईसीएससी बोर्ड से की हो या फिर किसी स्टेट बोर्ड से. हिंदी की किताबों को पलटते समय आपने प्रेमचंद का नमक का दरोगा और जयशंकर प्रसाद की कामायनी, गुंडा, आंसू जैसी किसी न किसी कहानी को जरूर पढ़ा होगा.

बीसवीं सदी की शुरुआत में जब देश में अग्रेंजी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की जा रही थी, उस समय तमाम लेखक और कवि अपने शब्दों में क्रांति भर कर लोगों को जागरूक करने का काम कर रहे थे. इन जोशीली कहानियों को पढ़कर लोगों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना ओत-प्रोत होने लगती थी. उसी दौर में छायावाद और राष्ट्रवाद को एक सूत्र में बांधते हुए आम जनमानस के दिलों में जयशंकर प्रसाद अपनी अमिट छाप छोड़ रहे थे. यह हमारी विडंबना है कि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा के साथ हिंदी साहित्य के छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रसिद्ध जयशंकर प्रसाद को आजतक हिंदी साहित्य का कोई बड़ा पुरस्कार नहीं दिया गया. जबकि कहानी लेखन में प्रेमचंद के नाम पर तो अनगिनत सम्मान और पुरस्कार दिए गए लेकिन उनके समकालीन रहे प्रसाद के नाम पर किसी पुरस्कार की घोषणा तक नहीं हुई.

जयशंकर प्रसाद के पोते किरन प्रसाद बताते हैं, ‘यह हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य है कि उसने इस महाकवि की प्रतिभा को सही मुकाम नहीं दिया और उन्हें सबसे ज्यादा अनदेखा किया गया. हमारे दादा भारत रत्न से भी ऊपर मानवरत्न के हकदार हैं.’

केंद्र या राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार सत्ता में आई हो किसी ने भी जयशंकर प्रसाद के सम्मान लिए कोई कार्य नहीं किया.

किरन प्रसाद बड़े दुखी मन से आगे कहते हैं,’जयशंकर प्रसाद बनारस में पैदा हुए और सारी जिंदगी उन्होंने यहीं बिता दी, लेकिन उनको सभी सरकारों ने उपेक्षित किया है. जब बनारस का सांसद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने थे तब हमें उनसे उम्मीद थी कि जयशंकर प्रसाद को उचित सम्मान मिलेगा, लेकिन अभी तक ऐसा कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दिया. ‘

वे आगे कहते हैं कि हमारी मांग है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सामने नगवा तिराहे पर जयशंकर की एक मूर्ति लगाई जाए.

पुरस्कारों से मरहूम जयशंकर प्रसाद के नाम पर केवल एक न्यास है. हिंदी साहित्य के महान नाटककार का जन्मदिन और पुण्यतिथि कब आता है और कब बीत जाता किसी को पता भी नहीं चलता है.

शुरुआती जीवन

जय शंकर प्रसाद 30 जनवरी 1890 को काशी (वाराणसी) के सीर गोवर्धन में पैदा हुए थे. उनके दादा शिवरत्न साहू विशेष प्रकार की सुर्ती (तंबाकू) बनाने का कार्य करते थे, जिसकी वजह से उनका परिवार ‘सुंघनी साहू’ के नाम से जाना जाता था. इनका परिवार शहर के समृद्ध और दानवीर परिवारों में से गिना जाता था. जयशंकर के पिता बाबू प्रसाद विद्वानों का बहुत सम्मान करते थे, जिससे शहर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का घर आना-जाना लगा रहता था. प्रसाद को इसका फायदा भी मिला और वे बचपन से ही विद्वानों के संपर्क में आ गए थे. उनके लिए घर पर ही संस्कृत, हिंदी, फारसी और उर्दू पढ़ाने के लिए अध्यापक आते थे. लेकिन 12 साल की उम्र में ही प्रसाद के सिर से माता-पिता का साया उठ गया. घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी. परिवार में गृह क्लेश शुरू हो गया था.

बचपन से ही प्रसाद का साहित्य के प्रति रुझान बना हुआ था. संस्कृत विद्वान दीनबंधु ब्रह्मचारी से शिक्षा ग्रहण करने से उनकी साहित्यिक भाषा को एक नया आयाम मिला.

प्रसाद की लेखन शैली

जयशंकर प्रसाद ने पहले ब्रजभाषा में लिखना शुरू किया फिर समय के साथ उन्होंने खड़ी बोली को भी अपना लिया. उस दौर में उनके समकालीन लेखकों की लिखने की शैली में अरबी-फारसी का मिश्रण देखने को मिलता था. लेकिन जयशंकर प्रसाद ने इस विधा से अलग किया. उनकी भाषा संस्कृत निष्ठ हिंदी थी.

जयशंकर प्रसाद ने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की और खड़ी बोली की भाषा को भी काव्य की भाषा बनाने में अहम योगदान दिया. 72 कहानियां लिखने वाले प्रसाद की पहली कहानी उस समय की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘इंदू’ में छपी थी. उनकी प्रमुख रचनाएं हैं. आंसू, लहर, कामायनी, प्रेम पथिक, गुंडा, चंद्रगुप्त,घीसू आदि हैं.

वाराणसी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विवेक पांडे बताते हैं, ‘जय शंकर प्रसाद की लेखनी में दो चीजें खास थी. पहला वे अपनी लेखनी से अभिजात दिखाई देते थे. जिसे आप उनके द्वारा रचित महान नाटक ‘चंद्रगुप्त’ की सुक्तियों में देख सकते हैं. दूसरी बात उनके लिखने का तरीका. वो कठिन भाषा का प्रयोग करके भी अपनी बातें लोगों के दिलों में उतार देते थे.’

वे आगे कहते हैं, ‘प्रसाद का अर्थ होता है प्रसन्नता. वे अपने पाठकों को निराशा के भाव से मुक्त कराकर आशावाद की तरफ ले जाते थे. उनकी एक रचना है ‘गुंडा’. अगर आज के परिदृश्य में देखा जाए तो गुंडा एक नकारात्मक शब्द है लेकिन इस रचना में गुंडा का एक सकारात्मक किरदार है.’

प्रसाद के नाटक

जयशंकर प्रसाद ने अपने 48 साल के जीवन में कुल 13 नाटक लिखे थे. इनमें 8 ऐतिहासिक नाटक थे. ‘अंधेरी नगरी’ जैसी कालजयी रचना करने वाले भरतेंदु के बाद हिंदी साहित्य में नाटक की परंपरा को किसी ने आगे बढ़ाया तो वो प्रसाद ही है. उन्होंने अपने नाटकों में महाभारत काल से लेकर चंद्रगुप्त के काल तक का चित्रण किया है. जयशंकर प्रसाद के नाटकों की भाषा दुरुह और पात्रों की संख्या आमतौर पर अधिक होती है. नाटक लंबे, कठिन लेकिन बांधने वाले होते हैं. और यही कारण भी है कि कुछ आलोचक उन्हें ‘हिंदी का शेक्सपियर’ भी कहते रहे हैं.

वाराणसी में नागरी नाटक मंडली के अर्पित सिंधोरे बताते हैं, ‘ एक नाटक का मंचन करने में आमतौर पर 5-10 किरदार लगते हैं. लेकिन जब हम प्रसाद जी के ‘गुंडा’ नाटक का मंचन कर रहे थे तो उसमें करीब 40 पात्रों की जरूरत पड़ी थी. और ऐसा उनके लगभग हर नाटक के साथ होता है. ‘

प्रसाद के नाटकों में प्रयुक्त होने वाले गीत भी नाटक के संवाद की तरह असरदार होते हैं. ये प्रसाद के बनाए मापदंड का ही नतीजा है कि कुछ लोगों को लगता है कि प्रसाद के नाटक पर अभिनीत करना कठिन होता है. प्रसाद इस पर कहा करते थे कि ‘नाटक रंगमंच के लिए न लिखे जाएं बल्कि रंगमंच नाटक के अनुरूप हो’.

प्रसाद और राष्ट्रवाद

जयशंकर प्रसाद ने उस वक्त अपने लेखनी की ताकत दिखाई जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था. उस समय लोग ठीक से लिख नहीं पाते थे.जयशंकर प्रसाद ने उस दौर में भारत के गौरवशाली इतिहास की परंपरा का वर्णन करते हुए लोगों को देश प्रेम से जोड़ा.

जयशंकर प्रसाद पर शोध करने वाले डॉ. सुशील बताते हैं, ‘प्रसाद जी ने अपने नाटकों में हर काल खंड में उपजे राष्ट्रवाद का वर्णन किया है. जहां उनके नाटक ‘ममता’ में मुगलों के समय चल रहे राष्ट्रवाद के द्वंद को बताया था वहीं ‘गुंडा’ में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे संघर्षों को दर्शाया है. ‘

उन्होंने अपने नाटक चंद्रगुप्त और स्कंदगुप्त से अतीत के गौरव का वर्णन करते हुए, वर्तमान के लिए प्रेरणादायी बताया है.

वही है रक्त वही है देह वही साहस वैसा ही ज्ञान.

वही है शांति वही है शक्ति वही हम दिव्य आर्य संतान

जियें तो सदा उसी के लिए यही अभिमान रहे यह हर्ष

निछावर कर दें हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष

कामायनी और प्रसाद

जय शंकर प्रसाद की सबसे श्रेष्ठ रचना ‘कामायनी’ मानी जाती है. इसमें उन्होंने बताया है कि एक राजा को कैसा होना चाहिए. उस पर भौतिकता बढ़ती जाती है और सत्ता का नशा सवार होने से प्रजा के लिए घातक साबित होती है. सुमित्रानंदन पत्र ने तो कामायनी को ‘हिंदी का ताजमहल’ बताया था.

पारिवारिक क्लेश

जयशंकर प्रसाद काशी में पैदा हुए और पूरा जीवन यहीं बिता दिया. प्रसाद के पुत्र रत्न शंकर के 2006 में निधन के बाद से शुरू हुआ पारिवारिक विवाद आज भी जारी है. वाराणसी के सीर गोवर्धन स्थित उनका पुस्तैनी मकान आज जर्जर अवस्था में है. उनके 6 पोतों के बीच आए दिन कलह की खबरें आती रहती हैं. प्रसाद के पोतों के बीच कभी संपत्ति को लेकर तो कभी पांडुलिपियों से जुड़ी तमाम धरोहरों को लेकर.

जय शंकर प्रसाद ने आज से 82 साल पहले 14 जनवरी 1937 को इस दुनिया से अलविदा कह गए थे. उनकी कालजयी रचनाएं आज भी युवाओं में जोश भरने का काम कर रही हैं.

कामायनी में लिखी उनकी लाइन से उन्हें याद किया जाए

तुम अपने सुख से सुखी रहो
मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र.
मन की परवशता महा-दुःख
मैं यही जपूँगा महामंत्र.

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