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Saturday, 4 May, 2024
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पुलवामा अटैक, कश्मीरी विरोधी दंगे और आर्टिकिल 370 का हटना, जम्मू-कश्मीर में कैसे बदली राजनीति

जम्मू कश्मीर में आर्टिकिल 370 को खत्म किए जाने के बाद से शासन और प्रशासन के तौर-तरीके में काफी बड़े बदलाव आए हैं. पत्थरबाजी की घटनाएं भी कम हुई हैं.

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मैं एक घुमक्कड़ हूँ और एक पत्रकार के रूप में मेरा काम घुमक्कड़ी की मेरी चाह को पूरा करता है. अरुणाचल प्रदेश से कच्छ के रण तक और कन्याकुमारी से कश्मीर तक मुझे देश की लंबाई और चौड़ाई की यात्रा करने का सौभाग्य मिला है. मैंने चुनाव, प्राकृतिक आपदाओं, संघर्षों या त्रासदियों जैसी प्रमुख समाचार घटनाओं को कवर करने के लिए कुछ स्थानों का दौरा या तो एक अकेले घुमक्कड़ या पत्रकार के रूप में किया है.

कार्यालय में मेरे वरिष्ठ घुमक्कड़ी की मेरी चाह से परिचित हैं और यही कारण है कि वे मुझे विभिन्न प्रमुख राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचार कार्यक्रमों के लिए भेजना उचित समझते हैं. इसलिए जब 14 फरवरी, 2019 को पुलवामा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सी.आर.पी.एफ.) के काफिले पर आतंकवादी हमला हुआ तो मुझे कवरेज के लिए भेजा गया था.
मुझे जम्मू में सी.आर.पी.एफ. शिविर से कश्मीर घाटी में पुलवामा तक के मार्ग पर पूरी स्टोरी दिखाने को कहा गया था, जहाँ हमला हुआ था. मैंने कैमरामैन सचिन शिंदे से पूछा कि क्या वे मेरे साथ आने को तैयार हैं? वह सहज ही राजी हो गया. हमारे टिकट बुक हो गए और हमने जम्मू के लिए उड़ान भरी. वहाँ से हमें सी.आर.पी.एफ. काफिले की दुर्भाग्यपूर्ण यात्रा को फिर से बताने के लिए सड़क मार्ग से कश्मीर के पुलवामा तक की यात्रा करनी थी.

कश्मीर भारत की उन जगहों में से एक है, जहाँ मैं बार-बार गया हूँ. मैंने पहली बार अक्तूबर 2007 में घाटी का दौरा किया था. तब मैं एक पर्यटक के रूप में गया था और सभी पर्यटन स्थल देखे थे. मैं कभी न भूलनेवाली यादों और फिर से घाटी की यात्रा करने की इच्छा के साथ मुंबई लौटा था.

2007 के बाद जम्मू और कश्मीर की मेरी तमाम यात्राएँ मेरे पेशे के सिलसिले में रहीं. जैसे कोंकण रेलवे का मीडिया दौरा और 2014 में विधानसभा चुनाव. हालाँकि मैं बार-बार कश्मीर गया हूँ, लेकिन मैं वहाँ हिंसक संघर्षों को कवर करने के लिए कभी नहीं गया था, जिसके लिए राज्य 1980 के दशक के अंत से चर्चा में बना हुआ है. मैं पहली बार एक ऐसी घटना के बाद कश्मीर का दौरा कर रहा था, जिसके कारण पूरे भारत में एक मजबूत भावनात्मक प्रतिक्रिया हुई और राज्य भारी तनाव की चपेट में था.

एक रिपोर्टर की दुविधा

भारत में तमाम जनसंचार माध्यम पुलवामा हमले से संबंधित खबरों से भरे हुए थे—तिरंगे से ढके ताबूतों के गाँवों में पहुँचने की तसवीरें, शोक-संतप्त रिश्तेदार और बंदूकों की सलामी के साथ अंतिम संस्कार. न्यूज चैनलों के एंकर जोरदार जवाबी काररवाई किए जाने की बात कर रहे थे; मृतकों के रिश्तेदारों और दोस्तों ने बदला लेने की माँग की; राजनेताओं ने अतीत को खोदकर एक-दूसरे पर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर ढिलाई बरतने का आरोप लगाया; टी.वी. स्टूडियो में कुछ आमंत्रितों ने युद्ध की माँग की, जबकि शांतिवादियों ने संयम बरतने को कहा. अंधराष्ट्रीयता हवा में उछल रही थी.
शहीद हुए सी.आर.पी.एफ. के जवान भारत के 16 अलग-अलग राज्यों के रहनेवाले थे. मेरे चैनल ने प्रत्येक मृतक सैनिक के घर एक कैमरा टीम भेजने का फैसला किया. कहा जाता है कि मृतकों के घरों में बहुत से मीडियावालों की मौजूदगी दुःख में उनके रिश्तेदारों की निजता को छीन लेती है. हालाँकि एक और दृष्टिकोण यह है कि इससे मृतक के परिवार को यह आभास होता है कि उनकी शहादत को पहचाना और महत्त्व दिया जा रहा है.

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बहुत ज्यादा दुःख का आप पर यह असर हो सकता है कि आप अपनी संवेदनशीलता खो देते हैं. मुझे अपने साथ ऐसा होता नहीं लगता. अपराध और संघर्षों का रिपोर्टर होने के नाते और कई प्राकृतिक और मानव निर्मित त्रासदियों को कवर करने के दौरान मैंने मौत की बहुत कहानियों की रिपोर्टिंग की है और दुःखी रिश्तेदारों को देखा है, जो यह समझ नहीं पाते कि क्या हुआ है? मुझे अकसर अपनी नौकरी और अपनी भावनाओं को संतुलित करने में जद्दोजहद हुई है. ऐसे मौकों पर एक टेलीविजन पत्रकार के काम का सबसे खराब हिस्सा मृतक के सबसे करीबी रिश्तेदार से बात करना होता है. आमतौर पर सवाल कुछ इस तरह होते हैं—आप उनसे आखिरी बार कब मिले थे? आपने उनसे आखिरी बार कब बात की थी? वे किस तरह के व्यक्ति थे? उनकी आपके साथ क्या यादें हैं? मेरे विचार में अधिकांश फील्ड टेलीविजन पत्रकार संवेदनशील लोग हैं और दूसरों की भावनाओं की परवाह करते हैं? और वे कभी हद नहीं लाँघते. हालाँकि उनके काम का मिजाज और गलाकाट स्पर्धा उन्हें स्वार्थी, असंवेदनशील और अकसर विवेकहीन बना देती है. शुक्र है कि मुझे शहीद सैनिकों के घरों का दौरा करने का काम नहीं सौंपा गया था, बल्कि उन घटनाओं के क्रम को बताने का काम सौंपा गया था, जिनके कारण हमले हुए.

कश्मीरी विरोधी दंगे

इस हमले से पूरे भारत में आक्रोश फैल गया और जम्मू में कश्मीरी विरोधी दंगे भड़क उठे. देश के अलग-अलग हिस्सों में कश्मीरी छात्रों पर हमले हो रहे थे. दो कश्मीरी शॉल विक्रेताओं को दिल्ली में उस समय पीटा गया, जब वे ट्रेन से हरियाणा जा रहे थे. उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के दो सैनिक हाल ही में एक आतंकवादी हमले में शहीद हुए थे और वहाँ कश्मीरी विरोधी हिंसा की सबसे अधिक घटनाएँ देखी गईं. दक्षिणपंथी संगठनों के सदस्य यह आरोप लगाकर शैक्षणिक संस्थानों में कश्मीरी छात्रों के पीछे पड़ गए कि कुछ छात्र सोशल मीडिया पर भड़काऊ पोस्ट साझा कर रहे हैं. देहरादून के एक कॉलेज के कश्मीरी डीन को उस समय निलंबित कर दिया गया, जब उन्होंने एक कश्मीरी लड़की को हिंसक भीड़ के चंगुल से छुड़ाया. बाद में डीन ने दावा किया कि उन्होंने स्वेच्छा से निलंबित होने के लिए कहा, ताकि गुस्सा शांत किया जा सके.1 कश्मीरी विरोधी हिंसा की खबरें पश्चिम बंगाल से भी आईं. 200 दंगाइयों के एक जत्थे ने एक शॉल व्यापारी के घर में घुसकर उसे और उसके दोस्तों को पीटा. उन्हें उनके चार महीने पुराने फेसबुक पोस्ट के लिए निशाना बनाया गया था, जिसमें उन्होंने लिखा था—‘मुझे भारतीय सेना से नफरत है.’ कश्मीरियों के खिलाफ प्रतिक्रिया के कारण हजारों लोग, जिनमें ज्यादातर छात्र, व्यापारी या विभिन्न पेशेवर थे, घाटी में अपने घरों को भाग गए.
जम्मू बनाम कश्मीर

दोपहर करीब एक बजे जम्मू हवाई अड्डे पर उतरने पर हमें पता चला कि शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है और किसी भी वाहन को चलने की अनुमति नहीं दी जा रही है. टैक्सी स्टैंड खाली था. पुलवामा हमले के एक दिन बाद ‘जम्मू चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज’ ने ‘बंद’ का आह्व‍ान किया था. सभी दुकानें और प्रतिष्ठान बंद रहे.

बजरंग दल, शिवसेना और डोगरा फ्रंट जैसे दक्षिणपंथी संगठनों ने शहर के विभिन्न हिस्सों में पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन किए. ये विरोध-प्रदर्शन पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगाने और उसके राष्ट्रीय ध्वज को जलाने से शुरू हुए, लेकिन उस समय हिंसक हो गए, जब तिरंगा लिये कुछ नौजवान पथराव करते और वाहनों को जलाते हुए मुसलिम बहुल गुर्जर नगर से मोटरसाइकिलों पर गुजरे. आरोप है कि कुछ उपद्रवियों ने प्रदर्शनकारियों पर ईंट-पत्थर फेंके, जिससे हिंसा भड़क गई. जल्द ही हिंसा शहर के अन्य हिस्सों में भी फैल गई.2 दंगों में दो दर्जन से अधिक लोग घायल हो गए.

जम्मू-कश्मीर पुलिस ने हिंसा को रोकने के लिए जम्मू में कर्फ्यू लगा दिया. फ्लैग मार्च करने और शांति बनाए रखने के लिए सेना की दो टुकड़ियों को बुलाया गया. एहतियात के तौर पर इंटरनेट बंद कर दिया गया.3 हालाँकि, प्रदर्शनकारियों ने कर्फ्यू का उल्लंघन किया और कुछ क्षेत्रों में भारी संख्या में सड़क पर उतर आए. चेतावनी के बाद भी भीड़ तितर-बितर नहीं हुई तो पुलिस ने लाठीचार्ज किया और प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए आँसू गैस के गोले छोड़े.

ये दंगे पुलवामा हमले के बाद दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा न केवल हिला देनेवाली प्रतिक्रिया थी, बल्कि नफरत की हिंसक अभिव्यक्ति भी थी. तत्कालीन राज्य के दो क्षेत्रों—जम्मू और कश्मीर के बहुत से लोगों में एक-दूसरे के खिलाफ यह भावना ऐतिहासिक रूप से पनपी थी. जम्मू और कश्मीर राज्य को तीन प्रशासनिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया था—जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख.5 कुल 22 जिलों में से 10 जम्मू के थे और 10 ही कश्मीर के थे, जबकि लेह और कारगिल के दो जिले लद्दाख क्षेत्र में थे. यह भारत का एकमात्र राज्य था, जहाँ मुसलिम बहुसंख्यक थे—कुल जनसंख्या के 68.31 प्रतिशत. वे 22 में से 17 जिलों में बहुमत में थे. हिंदुओं की कुल आबादी 28 प्रतिशत थी और वे केवल चार जिलों में बहुमत में थे.6

दोनों क्षेत्रों के लोगों के बीच नफरत और अविश्वास के मुख्य रूप से सांप्रदायिक पहलू हैं. कश्मीर के विपरीत जम्मू शहर और आसपास के कुछ जिलों में हिंदुओं का बहुमत है. विभाजन के बाद पलायन करनेवाले कई लोग जम्मू में बस गए हैं. कुछ पी.ओ.के. के पूर्व निवासी हैं. अस्सी के दशक के अंत और नब्बे के दशक की शुरुआत में पलायन के बाद कश्मीरी पंडितों ने भी जम्मू को अपना घर बना लिया है. इन लोगों ने अपने पिछले कड़वे अनुभवों के कारण सामान्य रूप से कश्मीरी मुसलमानों के प्रति घृणा की भावना पैदा की है और ये उन्हें अपनी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार मानते हैं. दो क्षेत्रों के बीच सहजीवी संबंधों के बावजूद दुश्मनी मौजूद है. कश्मीर के लिए आपूर्ति जम्मू के व्यापारियों से आती है. दोनों क्षेत्रों के लोगों के बीच दुश्मनी को खत्म करने के लिए अंतरराज्यीय संवाद की कई पहल की गई हैं. दिवंगत बुजुर्ग पत्रकार शुजात बुखारी उन चेहरों में से एक थे, जिन्होंने राज्य के दो क्षेत्रों के लोगों के बीच गलतफहमी को दूर करने की कोशिश की थी.
जम्मू से पुलवामा जाने के लिए हमें एक कार की जरूरत थी. मैंने अपने जम्मू समकक्ष अजय बचलू के मोबाइल नंबर पर बात करने की कोशिश की, लेकिन उनका नंबर पहुँच में नहीं था. हम फँस गए थे. जब कोई वाहन ही नहीं होगा तो हम आगे कैसे बढ़ेंगे? एक घंटे के बाद हवाई अड्डा सुनसान हो गया, क्योंकि हमारे साथ उतरनेवाले सभी यात्री उन कारों में निकल गए थे, जो उन्हें लेने आई थीं. उनमें से ज्यादातर जम्मू के निवासी थे और उन्होंने अपने रिश्तेदारों या ड्राइवरों को बुला रखा था. कई कोशिशों के बाद बचलू का फोन लग गया. वे बहुत व्यस्त नजर आए. हालाँकि वे 15 मिनट में हवाई अड्डे पर पहुँचने में कामयाब रहे. मैंने उन्हें अपनी स्थिति के बारे में बताया, लेकिन उन्होंने शहर में तनाव को देखते हुए कार का इंतजाम करने में असमर्थता जताई. “कोई टैक्सी ड्राइवर जोखिम नहीं लेगा. मैं आपको अपनी कार दे सकता हूँ, लेकिन तब मैं यहाँ फँस जाऊँगा. शहर में हिंसा की बहुत घटनाएँ हो रही हैं और अगर मेरे पास कार नहीं होगी तो मैं इधर-उधर नहीं जा पाऊँगा.” उन्होंने सफाई दी.

एक पल के लिए अपना सिर खुजलाने के बाद बचलू ने एक टैक्सी ड्राइवर को फोन किया. उन्हें लगा कि वह मदद कर सकता है. उन्होंने कुछ मिनट उससे डोगरी भाषा में बात की. ड्राइवर हमें अपनी इनोवा में ले जाने के लिए तैयार हो गया, लेकिन दो शर्तों पर. पहली, वह नियमित किराए का तिगुना लेगा और दूसरी, वह हमें केवल बनिहाल तक छोड़ेगा, पुलवामा तक नहीं. बनिहाल जम्मू से 160 किलोमीटर दूर था और वहाँ पहुँचने में उसे चार घंटे लगे. ड्राइवर ने हमें बताया कि वह आगे नहीं जा सकता. एक दिन पहले श्रीनगर (जे.के.-01)7 और कश्मीर घाटी के अन्य जिलों जैसे—अनंतनाग (जे.के.-03), बारामूला (जे.के.-05) और कुपवाड़ा (जे.के.-09) की पंजीकरण संख्यावाले कई वाहनों को जला दिया गया था.7 ड्राइवर को डर था कि जवाबी काररवाई में कश्मीर घाटी में दंगाई जम्मू पंजीकरण (जे.के.-02) वाली किसी भी कार को आग लगा सकते हैं. बनिहाल जम्मू और कश्मीर की परिधि के करीब एक शहर था और दोनों क्षेत्रों के ड्राइवर केवल वहीं तक जाना सुरक्षित महसूस करते थे.

जब हम टैक्सी के आने का इंतजार कर रहे थे तो मैंने बचलू से पूछा, “ऐतिहासिक रूप से जम्मू और कश्मीर के क्षेत्र आपस में लड़ते रहे हैं, लेकिन आज भी दोनों के बीच दुश्मनी के क्या कारण हैं?” बचलू ने कहा, “मोटे तौर पर जम्मू के लोगों को लगता है कि उनके साथ उचित व्यवहार नहीं किया जा रहा है. वे एक उपेक्षित बच्‍चे की तरह महसूस करते हैं. केंद्र की ओर से ज्यादातर आर्थिक मदद कश्मीर घाटी को जाती है. कश्मीर में किसी भी बड़े प्रोजेक्ट पर जम्मू से ज्यादा ध्यान दिया जाता है. उदाहरण के लिए, गोंडोला का मामला लें. इस परियोजना की कल्पना कश्मीर में जम्मू और गुलमर्ग दोनों के लिए एक साथ की गई थी. जब गुलमर्ग में गोंडोला का चरण शुरू हो गया तो जम्मू के गोंडोला पर काम भी शुरू नहीं हुआ था.”

इस किताब की कीमत 400 रुपये है.

उन्होंने कहा, “राज्य की राजनीति में भी कश्मीर का दबदबा है. आप मुंबई से हैं, लेकिन आप अब भी मुफ्ती मोहम्मद सईद, महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला और कुछ अन्य लोगों को जानते होंगे, जो सभी कश्मीर क्षेत्र से आते हैं. लेकिन मुझे बताओ, आप जम्मू क्षेत्र के कितने राजनेताओं को जानते हैं? पीडीपी-भाजपा सरकार बनने के बाद चर्चा में आए जीतेंद्र सिंह और निर्मल सिंह जैसे एक-दो नामों के अलावा आप शायद किसी और को नहीं जानते होंगे.”


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