जब मैं जम्मू व कश्मीर में एल.ओ.सी. पर अपनी बटालियन की कमान संभाल रहा था. उस वक्त मेरा परिवार जम्मू में था. भारतीय सेना में, जब किसी जवान की पोस्टिंग किसी ऐसी जगह होती है, जहां पर उसके परिवार को ठहरने की इजाजत नहीं होती है तो ऐसे में उस जवान का परिवार अपनी पसंद के सैन्य स्टेशन पर ठहर सकता है. इसे पृथक् पारिवारिक आवासीय परिसर (सेपरेटेड फैमिली एकोमोडेशन) कहा जाता है. मुझे भी जम्मू में भटिंडी के पास बाईपास रोड पर सुंजुवान छावनी में एक घर आवंटित किया गया था.
बारह घरों को पृथक् पारिवारिक आवासीय परिसर (सेपरेटेड फैमिली एकोमोडेशन) के तौर पर चििह्नत किया गया था. मेरा घर सबसे कोने में था, जिसके सामने आम का एक बड़ा पेड़ था. वे सभी अधिकारी, जिनका परिवार इस लाइन में रह रहा था, उनकी तैनाती जम्मू व कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में थी. उनमें से ज्यादातर पोस्टिंग ऐसी थी, जहाँ पर परिवार के साथ नहीं रह सकते थे, क्योंकि वहां हालात महफूज नहीं थे.
सेना के अधिकारी अपने परिवारों से बात कर पाएं, इसके लिए उस आम के पेड़ के नीचे एक टेलीफोन बूथ लगाया गया था, जो कि उन सब परिवारों के लिए एक महत्त्वपूर्ण केंद्र-बिंदु था. इस टेलीफोन लाइन को सेना की संचार लाइनों के साथ जोड़ा गया था. इसकी वजह से सेना के अधिकारी और उनके परिवार आपस में एक-दूसरे से बात कर सकते थे. यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि मैं 1990 के दशक की बात कर रहा हूं, जब लोगों के पास मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे और यहां तक कि लैंडलाइन भी यदा-कदा ही देखने को मिलते थे. इसके अलावा, कॉमर्शियल लैंडलाइन के माध्यम से जम्मू व कश्मीर के ऑपरेशनल इलाकों में सेना की यूनिट से संपर्क कर पाना और भी मुश्किल था.
इन मुश्किलों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वह फोन बूथ एक लाइफ लाइन की तरह था. एक बार जब मैं छुट्टी पर था और उस घर में रुका हुआ था तो मैंने देखा कि शाम को टेलीफोन बूथ के आसपास वाला वह इलाका गांव के चौपाल जैसा हो जाता था. महिलाएं फोन करने और फोन रिसीव करने के लिए उस टेलीफोन बूथ पर आया करती थीं. अपनी बारी का इंतजार करते वक्त वे आपस में एक-दूसरे से बातें किया करती थीं.
बच्चे अपने पिता से बात करने के इंतजार में वहां आसपास साइकिल चलाया करते थे या कोई और खेल खेलते थे. यह छावनी का सामाजिक चौपाल बन गया था. लेकिन यहां का माहौल हमेशा खुशगवार नहीं होता था. कभी-कभी फोन पर बुरी खबर भी आ जाती थी. कई बार ऐसा होता था कि एल.ओ.सी. पर आतंकियों और दुश्मनों से मुठभेड़ के दौरान कोई सैनिक गोलीबारी में घायल हो जाता था. जब इसकी सूचना परिवारवालों को मिलती थी तो सभी का मन उदास हो जाता था. बच्चे भी चुप हो जाते थे. बिना बताए भी उन बच्चों को अंदाजा लग जाता था कि कुछ बुरा हुआ है.
हालांकि, बुरी खबरें हमेशा नहीं आती थीं, लेकिन फिर भी, उस आम के पेड़ के इर्द-गिर्द हमेशा संदेह और रोमांच का माहौल बना रहता था. जब भी पूरे राज्य में कहीं मुठभेड़ शुरू होती, चाहे वह पुंछ में हो, राजौरी में हो या फिर डोडा में, छावनी में तुरंत सूचना आ जाती थी. न जाने कैसे परिवारों को पता चल जाता था कि कुछ हो रहा है; लेकिन चूंकि उस वक्त इतने मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे, इसलिए पूरी जानकारी मिलनी आसान नहीं होती थी. जब कोई फोन करके बताता था, तब जाकर सही जानकारी मिल पाती थी.
किसी भी मुठभेड़ या ऑपरेशन के दौरान यूनिट के बाहर से आनेवाली किसी भी फोन कॉल को रिसीव नहीं किया जाता है; यहां तक कि सी.ओ. को भी अपनी पत्नी की कॉल को रिसीव करने की अनुमति नहीं होती है. ऐसे में, महिलाएं बड़ी उत्सुकता से खबरों का इंतजार करती रहती थीं. वे इस ताक में रहती थीं कि जिस जगह ऑपरेशन चल रहा है, वहां से कुछ सही सूचना आए और उनके पति की यूनिट उस ऑपरेशन में शामिल है या नहीं, उसके बारे में भी कुछ पता चले. यह सस्पेंस तब तक बना रहता था, जब तक कि उन्हें पता नहीं चल जाता था कि सबकुछ ठीक-ठाक है. थोड़ी देर के लिए यह चिंता और तनाव तो हट जाता, लेकिन अगली सुबह इसके एक बार फिर से शुरू होने की संभावना बनी रहती थी.
मेरा परिवार लगभग तीन साल तक उस छावनी में रहा. फोन बूथ वाले आम के पेड़ के आसपास तीन साल और तीन महीने तक का सस्पेंस भरा वक्त गुजारना! दो दशकों बाद एक सेवानिवृत्त अधिकारी के रूप में मैं अपनी पत्नी के साथ इस क्षेत्र में गया था और हम लोग अपने उस पुराने घर में भी गए. अब वहां कोई फोन बूथ नहीं था. वहां की यूनिट ने वहां रह रहे अधिकारी को हमारे आने की सूचना दे दी थी और उन अधिकारी महोदय ने हमें बड़ी विनम्रतापूर्वक अंदर बुलाया. हमने वहाँ रह रहे दो और परिवारों से मुलाकात की. हमारे बीच काफी खुशनुमा बातें हुईं. इस दौरान हमने उन्हें उस टेलीफोन बूथ के बारे में भी बताया और उन्हें अपने दिल की भावनाओं को समझाने की कोशिश की कि उस वक्त इस टेलीफोन बूथ का हमारे लिए क्या मतलब हुआ करता था. हालांकि, शायद वे लोग इस बात को समझ नहीं पाए कि मोबाइल के पहलेवाले उन दिनों में हमारे लिए यह टेलीफोन बूथ कितनी अहमियत रखता था!
अब कम्युनिकेशन होने या कम्युनिकेशन होने में थोड़ी देरी हो जाना—इन दोनों बातों की वजह से कोई सस्पेंस नहीं रह गया है. सच कहूं तो अब जरूरत से ज्यादा कम्युनिकेशन होने लगा है और इसकी अपनी एक अलग ही दिक्कत है, क्योंकि ज्यादातर सैनिकों के पास उनका अपना मोबाइल फोन होता है. उनके परिवारों के पास भी मोबाइल फोन हैं. ऐसे में, उन लोगों के बीच बड़ी आसानी से और तुरंत कम्युनिकेशन हो जाता है. तुरंत कम्युनिकेशन के इस दौर में अब रात-रात भर इंतजार करने की कोई बात नहीं रह गई है. जब भी किसी को कोई रोमांचित या परेशान करनेवाली सूचना हाथ लगती है, उसे वह तुरंत दूसरों से साझा करना चाहता है. हालाँकि, यह हमेशा अच्छी बात नहीं होती है.
कई बार ऐसा देखने में आया है कि जब किसी सैनिक की पत्नी का उसके ससुरालवालों के साथ कुछ मतभेद होता है तो वह धैर्य रखने के बजाय तुरंत अपना मोबाइल उठाती है और अपने पति को फोन लगा देती है; जबकि ऐसा हो सकता है कि उस वक्त उसका पति किसी महत्त्वपूर्ण मिशन पर हो और इन पारिवारिक मामलों की वजह से उसका ध्यान भटक जाए.
यदि कोई सैनिक ड्यूटी पर है या फिर किसी ऑपरेशन में है और इन समस्याओं व जिम्मेदारियों से निपटने के वक्त अगर उसके घर से इस तरह का फोन आ जाता है तो जाहिर है कि उसके लिए अतिरिक्त समस्याएँ पैदा हो सकती हैं. एक सैनिक, जो ऑपरेशनल एरिया में होता है और उसके हाथ में घातक हथियार है, ऐसे में उसे शांत रहने और अपना ध्यान केंद्रित करने की जरूरत होती है, न कि घरेलू कलह के बारे में तनाव लेने की.
मेरी हमेशा कोशिश रही है कि ड्यूटी के दौरान सेना के जवान अपने साथ मोबाइल न ले जाएं. जिन जवानों के बारे में ऐसी सूचना मिलती है कि उन्होंने खुद को या अपने ही किसी साथी को नुकसान पहुंचाया है, वे ज्यादातर ऐसे लोग होते हैं, जिनके घर से कुछ तनाव भरी खबर आई रहती है. पहले भी ऐसी समस्याएं होती थीं. लेकिन जब तक कोई इसके बारे में पत्र लिखने के लिए कलम उठाए, तब तक शायद समस्या हल हो जाती थी. कई बार ऐसे भी मामले देखने को मिले हैं कि जब कोई सैनिक एल.ओ.सी. पर गश्त कर रहा हो और अचानक उसका फोन बज उठे, ऐसे में हमारे सैनिक की सटीक पोजीशन दुश्मन को मिल जाती थी, क्योंकि अकसर हमारे जवानों को पाकिस्तानी सैनिकों के बेहद करीब से गुजरना पड़ता है.
एक बार मेरी बटालियन में एक सैनिक अपने घर से छुट्टी से लौटने के बाद बड़ा ही अजीब व्यवहार कर रहा था. मेरे सूबेदार मेजर ने मुझे उसके बारे में बताया कि वह काफी आक्रामक और मूडी हो गया था. वह अकसर झगड़ा करने पर उतारू हो जाता था. कई बार वह अपने साथियों और यहां तक कि अपने सीनियर्स को भी धमका देता था. एक बार सैनिकों की ड्यूटी के आवंटन का काम चल रहा था. वह सैनिक इस आवंटन को लेकर अपने प्लाटून हवलदार के साथ तीखी बहस करने लग गया. हवलदार ने उससे बस, इतना कहा कि अगर वह (सैनिक) बदतमीजी से बात करेगा तो वह (हवलदार) उसकी रिपोर्ट कंपनी कमांडर को दे देगा. उस दिन बात इसी पर खत्म हो गई.
लेकिन उस सैनिक के अंदर का गुस्सा खत्म नहीं हुआ था. खाना खाते वक्त उसने अपने दोस्तों से कहा कि किसी दिन वह हवलदार को मार डालेगा और उसके मृत शरीर को एल.ओ.सी. के पास नाले में फेंक देगा. हवलदार की डेड बॉडी बहकर पाकिस्तान चली जाएगी और पता भी नहीं चलेगा. तमाम दूसरे मौकों पर भी उसके चिड़चिड़ेपन का अंदाजा लग रहा था. उसके ये हाव-भाव खतरनाक संकेत दे रहे थे.
ऐसे में, उसके प्लाटून कमांडर को लगा कि वह दूसरों को या खुद को नुकसान पहुंचा सकता है. प्लाटून कमांडर का यह अंदाजा कुछ हद तक सही भी था, क्योंकि तमाम दूसरी यूनिट्स में पहले भी ऐसी घटनाएं सुनने में आ चुकी थीं. कंपनी उसे बटालियन बेस में भेजना चाहती थी, जहां उसे ऐसी ड्यूटी दी जा सके, जिसमें हथियार की जरूरत न हो. नियम के मुताबिक, किसी भी सैनिक को वापस बटालियन बेस में ड्यूटी के लिए जाने से पहले एक बार उसे सी.ओ. से मिलना होता है. वह सैनिक भी मुझसे मिलने के लिए आया. वहां लगभग आठ या दस अन्य सैनिक भी थे, जो अपने सी.ओ. से मिलने के लिए इंतजार कर रहे थे.
मुझसे मिलने की वजह सबके लिए अलग-अलग थी—कोई अपने ट्रेनिंग कोर्स को पूरा करने के लिए जाना चाह रहा था तो कोई छुट्टी पर जाना चाह रहा था. इनमें से ज्यादातर लोग ऐसे थे, जिन्होंने किसी-न-किसी ऑपरेशन में बेहतरीन प्रदर्शन किया था. वे सभी सैनिक मेरे ऑफिस के सामने लाइन में खड़े थे. इस व्यवस्था को ‘इंटरव्यू परेड’ कहा जाता है. मैं अपने ऑफिस से बाहर निकलकर उन सभी सैनिकों से एक-एक करके बात करता था.
मैंने सूबेदार मेजर को निर्देश दे रखा था कि उस सिपाही को लाइन में सबसे पीछे खड़ा किया जाए, ताकि मैं उससे सबसे आखिर में बात करूं. जब मैंने सभी से बात कर ली, उसके बाद मैं राइफलमैन त्रिलोक सिंह (परिवर्तित नाम) के पास आया और बोला, टहां, त्रिलोके, क्या प्रॉब्लम है?ट उसने कहा, ‘कुछ नहीं, साहब.’
‘मुझे पता चला है कि कंपनी पोस्ट में तुम दूसरे सैनिकों को धमका रहे थे और कह रहे थे कि जो कोई तुम्हें छेड़ेगा, तुम उसे गोली मार दोगे.’
उसने धीमी आवाज में कहा, ‘नहीं तो.’ लेकिन उसके चेहरे पर उत्तेजना और व्याकुलता साफ नजर आ रही थी. ‘ये सब मुझे तंग करते हैं.’ वह बोला.
मैं ऊंची आवाज में चिल्लाया, ‘इसका मतलब तुम किसी को गोली मार दोगे? किस-किस को गोली मारोगे? सूबेदार मेजर साहब को या मुझे? या फिर और किसे मारोगे?’ मैंने पास में ही खड़े एक सिपाही के हाथ से राइफल लेकर त्रिलोक सिंह के हाथों में जबरदस्ती थमा दी, ‘लो, मारो गोली, जिसको भी मारना चाहते हो.’
‘चलाओ गोली!’ मैंने जोर से कहा. सब लोग एकदम आश्चर्यचकित होकर चुपचाप खड़े हो गए थे. एडजुटेंट ऑफिस के सामने खड़ा मेरे क्यू.आर.टी. का एक सिपाही मेरी रक्षा के उद्देश्य से मेरे सामने आने लगा. मैंने उसे अपने सामने से हटने का इशारा दिया. परेड के अन्य सैनिक, जो वहाँ खड़े थे, यह पूरा दृश्य देखकर वे भी सशंकित हो गए थे. गलियारे में कुछ क्लर्क भी खड़े थे, जो आपस में कानाफूसी कर रहे थे. अचानक वे एकदम जड़वत् हो गए थे. सभी की आँखें त्रिलोक पर टिकी हुई थीं और मेरी भी.
त्रिलोक को कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह क्या करे. वह थोड़ी देर शांति से अपनी जगह पर खड़ा रहा और उसके बाद ऐसा लगा, जैसे वह राइफल को लोड करने जा रहा हो. उसे ऐसा करते देख आर.पी. हवलदार उसके हाथ से हथियार छीनने के लिए तैयार हो गए. दरअसल, मैंने आर.पी. हवलदार को पहले ही बता दिया था कि जब उन्हें लगे कि त्रिलोक गोली चलाने जा रहा है तो वह उससे पहले ही हथियार उसके हाथ से छीन लें. लेकिन अचानक त्रिलोक भावुक हो गया. उसने कहा, ‘गलती हो गई, सर!’
मैंने उसके हाथ से राइफल ले ली और बड़े प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘मैं तुम्हारे बड़े भाई की तरह हूँ. मुझे बताओ कि तुम्हें क्या परेशानी है? चलो, ऑफिस में चलकर बात करते हैं.’
त्रिलोक की आंखों में आंसू आ गए थे. बाद में उसने बताया कि उसकी पारिवारिक समस्या, आर्थिक तंगी और कंपनी हवलदार मेजर द्वारा उत्पीड़न (कथित) की वजह से वह काफी परेशान चल रहा था. जिस वक्त वह ये सारी बातें बता रहा था, उस वक्त हमारे साथ सूबेदार मेजर साहब भी उपस्थित थे. उसे लग रहा था कि कंपनी हवलदार मेजर उसे जान-बूझकर कठिन काम दे रहे हैं. हमने उसकी बात ध्यान से सुनी और उसे आश्वासन दिया. सूबेदार मेजर ने उससे कहा कि अगर जरूरत हो तो वह उसके घरेलू मामलों को लेकर मध्यस्थता करने के लिए तैयार हैं. उस दिन जब राइफलमैन त्रिलोक सिंह मेरे ऑफिस से निकला तो उसका मन अपेक्षाकृत काफी शांत था.
उस दिन रात में, ऑफिसर्स मेस में यूनिट मेडिकल ऑफिसर ने मुझसे पूछा, ‘सर, चूंकि त्रिलोक सिंह की मानसिक स्थिति सही नहीं थी, अगर अचानक वह वहाँ खड़े सभी लोगों पर फायरिंग करना शुरू कर देता तो क्या होता?’
मैं मुसकराया और बोला, ‘तब तो उसे हथियार देने के जुर्म में निश्चित तौर पर मेरा कोर्ट मार्शल हो जाता.’ वह मेडिकल ऑफिसर महोदय यह जानना चाहते थे कि सारी बातों को भलीभांति जानने के बावजूद मैंने सबकी जान जोखिम में क्यों डाली? इस पर मैंने जवाब दिया, ‘जो राइफल त्रिलोक सिंह को दी गई थी, उसकी सारी गोलियाँ पहले ही निकाल दी गई थीं. जाहिर है कि मैं सभी सैनिकों की जान जोखिम में नहीं डाल सकता था.’
दरअसल, हर परिस्थिति की अपने कुछ-न-कुछ असमंजस व दिक्कतें होती हैं और उनका कोई सिखाया हुआ हल या इलाज नहीं होता. मौके के हिसाब से कुछ नया सोचना ही नेतृत्व है. मुझे भी कई बार यह सोचकर आश्चर्य होता है कि अगर त्रिलोक ने मुझ पर या वहां खड़े बाकी लोगों पर फायरिंग करने की कोशिश की होती तो क्या होता? वैसे तो कोई नुकसान नहीं होता, क्योंकि राइफल में गोली नहीं थी; लेकिन क्या इसके बावजूद त्रिलोक सिंह नर-संहार के प्रयास के लिए दोषी होता? आज भी मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं है.
(लेफ्टिनेंट जनरल सतीश दुआ (रिटा.) कश्मीर में कोर कमांडर थे और चीफ ऑफ इंटिग्रेटिड डिफेंस स्टाफ के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उनकी किताब ‘भारत के जांबाज’, प्रभात प्रकाशन से छपी है)
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