यह न तो पहली बार था और ना आखिरी बार कि कोई लेखक या गीतकार निर्देशक के रूप में विस्तार पा रहा था पर उनका यह विस्तार भारतीय सिनेमा के कैनवस पर सबसे अलग उपस्थिति है. आज (10 सितंबर, 2021) गुलज़ार साहब के डायरेक्टोरियल डेब्यू ‘मेरे अपने ‘ के रिलीज की 50वीं सालगिरह है.
यह मेरी सुचिंतित निजी राय है कि गुलज़ार साहब के दर्जनों खूबसूरत गीत इसलिए सिनेमा में आ पाए कि जिन फिल्मों में वे आए, उन फिल्मों के निर्देशक वे खुद थे, वरना उन गीतों का अतरंगीपन, कविताई ऐसी थी कि कोई अन्य निर्देशक आने ही नहीं देता और वे गीत हिंदी सिनेमाई गीतों की नामुमकिन सी ऊंचाई और गहराई तक जा सके. तो उनके निर्देशकीय अवतार ने उनके गीतकार को वह होने का अवसर दिया, जिसके लिए दर्शक और साहित्य की दुनिया अतिरिक्त प्रेम करती है.
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बहुआयामी व्यक्तित्व और निर्देशन कला
तार्किक संगति से कहें तो वे पढ़ते-लिखते थे, इसलिए लिखना ही चुना, लिखना ही चुना इसलिए सिनेमा के लिए लिखना चुना, लिखते थे इसलिए अपने लिखे को अपने मुताबिक सिनेमा पर लाने के लिए निर्देशक रूप धरा. लेखक का यह अवतार सुखद भी है और संतोषजनक भी. कभी उन्हें बतौर निर्देशक, सिनेमा के अकेडमिशियन्स ने ‘मिडिल सिनेमा का मसीहा’ कहा था, ऐसा सिनेमा जो मिडियोकर नहीं था बल्कि ऐसा सिनेमा जो कला और व्यवसाय में सुंदरतम सेतु बनाता है.
एक बहुआयामी सृजक व्यक्तित्व के रूप में गुलज़ार साहब के मन, जेहन को जानने का एकमुश्त तरीका कुछ समय पहले आई किताब ‘बोसकीयाना’ पढ़ लेना हो सकता है. जो उनके साथ यशवंत व्यास का लंबा संवादात्मक कोलाज है.
उनके किरदार में पंजाबियत की महक और ठसक दोनों भरपूर हैं. मगर, आज गुलज़ार साहब के निर्देशक रूप को याद करने का अवसर बना है तो विनम्र निवेदन करना चाहता हूं कि उनके निर्देशक रूप में एक बंगालीपन है. बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक के रूप में काम करने का अनुभव इसकी वाजिब वजह रही होगी या बंगालियत के प्रति कोई अजस्र (सतत) मोहात्मक प्रेम.
‘मेरे अपने ’ भी बंगाली के सुप्रसिद्ध निर्देशक तपन सिन्हा के ‘अपनजन ’ का हिंदी रीमेक थी. गाहे-ब-गाहे उनकी हर फिल्म का कोई न कोई बंगाली कनेक्शन मिल ही जाता है. फिर ‘परिचय ‘ बनाई तो बंगाली उपन्यास पर आधारित थी. फिर तो यह सिलसिला ही बन गया कि बंगाली संवेदना उनके सृजन की अपरिहार्य भावभूमि बन गयी.
उदाहरण के लिए, उनके निर्देशन में बनी ‘इजाज़त ‘ में रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय का दृश्य याद कीजिए. अलग हो चुका जोड़ा 5 साल बाद इत्तेफाकन टकरा गया है, महेंद्र यानी नसीरुद्दीन शाह साहब सिगरेट जलाने के लिए अपने बैग से माचिस ढूंढ़ रहे हैं, सुधा यानी रेखा अपने पर्स की तरफ बढ़ती है और निकाल कर देती है. नसीर पूछते हैं- अब भी माचिस रखती हो? पहले तो मेरे लिए रखती थी, और अब?, रेखा जवाब देती हैं- ‘बस आपकी भूलने की आदत नहीं गयी, और मेरी रखने की.’ नसीर कहते हैं- ‘आदतें भी अजीब होती हैं, सांस लेना भी कैसी आदत है…’
यह केवल संवाद भर नहीं है, गुलज़ार की फिल्म मेकिंग का सिग्नेचर है. इसका विस्तृत ठहराव अप्रतिम है, जो खूबसूरती से काल को लांघता है.
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गुलज़ारियत
एक बार, एक शब्द के लिए संगीत मर्मज्ञ पवन झा से बात हो रही थी तो अवचेतन में स्थित बात मेरे मुंह से अनायास निकल गयी कि गुलज़ार साहब हिंदी सिनेमा के गीतकारों की कई भावी पीढ़ियों के रगों में लहू बनकर दौड़ेंगे. बतौर हिंदी सिनेमा के लेखक-गीतकार, हम सबने उनका नमक खाया है. उनके असर से अप्रभावित रहना मुमकिन ही नहीं है, यह असर उन्होंने निर्देशक के रूप में भी छोड़ा है.
कुछ महीनों पहले हसीन वाकया पेश आया कि मेरा 12 साल का बेटा विराज बार-बार एक गीत को सुन रहा था, उसकी पसंद समय और पीढ़ी के अनुकूल है, मैंने गीत ध्यान से सुना तो एक पंक्ति पर अटक गया कि ये गीत मेरे संज्ञान में क्यों नहीं आया, ये पंक्ति कोई साधारण गीतकार नहीं लिख सकता, गूगल किया, गीत गुलज़ार साहब के कलम से निकला था. वह पंक्ति थी: ‘ज़मीं से फलक हटा दे ‘.
यह उनकी रेंज है, सिग्नेचर है, प्रभाव की पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतरता है.
हम जानते हैं कि ‘हुतूतू’ के बाद उन्होंने निर्देशक रूप से आत्मनिर्वासन चुनकर किताब की शक्ल में लिखने पर ज़्यादा ध्यान दिया है. मगर दिल है कि मानता नहीं, चाहता है कि वे फिर आएं और निर्देशकीय पारी में फिर नई, लंबी लकीर खींच दें.
‘मेरे अपने ’ से जो सफर शुरू हुआ, मन मानता नहीं कि ‘हुतूतू’ पर वह सफर पूरा हो गया. ‘मेरे अपने’ का कथार्सिस हिंसा के औचित्य पर प्रश्न खड़ा करना है, यह कथार्सिस सर्वकालिक प्रासंगिकता लिए हुए है. यह उनकी विशिष्टता है कि ‘टाइमलैस’ मानवीय प्रश्नों को सामाजिक प्रसंगों और मानव मन की गुत्थियों के साथ मिलाकर कलात्मक रूपक रचते हैं. हमारे समय के कई प्रश्न अभी भी गुलजारिश हस्तक्षेप चाहते हैं.
कदम-दर-कदम, कलम-दर-कलम ‘गुलज़ारियत’ शक्ल पाती है, शिनाख्त बनाती है, वक्त की किताब पर. गोया, उनका होना एक तिलिस्म भी है, गुनगुना अहसास भी है, उत्सव भी है. वे हमारे समय के फिक्र (चिंतन) और फख्र दोनों हैं.
(लेखक चर्चित फिल्म गीतकार-स्क्रिप्टराइटर हैं. उनकी कई किताबें पेंगुइन, राजकमल, जगरनॉट जैसे प्रकाशकों से आई हैं. वे इतिहास में पीएचडी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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