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Saturday, 20 April, 2024
होमदेशजिंदादिल संगीत रचने वाले सलिल चौधरी जिनकी धुनों का असर आज भी है

जिंदादिल संगीत रचने वाले सलिल चौधरी जिनकी धुनों का असर आज भी है

सलिल चौधरी का संगीत रूह तक उतर जाने वाला है. इसमें ठहराव है, मस्ती है, चुलबुलापन है और नई-नई अलबेली धुनें हैं.

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भारतीय सिनेमा में संगीत की समृद्ध परंपरा रही है और ऐसे कई संगीतकार हुए जिन्होंने अपनी पृष्ठभूमि, अपने खास अंदाज, रचनाकर्म से नई-नई धुनें बनाईं. आजादी से ठीक पहले और उसके बाद के दौर पर नज़र डालें तो एसडी बर्मन, नौशाद, मदन मोहन, रवि, ओपी नैय्यर जैसे दिग्गज संगीतकारों ने अपने संगीत से लोगों को आकर्षित किया.

सभी संगीतकार एक नई शैली लिए आते हैं और समय के साथ दुनियाभर में हो रहे प्रयोग और अपने इर्द-गिर्द के अनुभवों से संगीत की रचना करते हैं. किसी भी फिल्म के लिए जितना जरूरी उसकी कहानी होती है उतना ही जरूरी संगीत भी होता है.

गीतों से इतर सिनेमा के बैकग्राउंड स्कोर भी उतनी ही अहमियत रखता है. इन सबको एक सूत्र में पिरोने का काम संगीतकार ही करते हैं. वे फिल्म के सीन के हिसाब से संगीत गढ़ते हैं और गीतों में भावनात्मक, रचनात्मक और लयात्मक पुट देने के लिए कई प्रयोग करते हैं.

संगीत की दुनिया में जितनी अहमियत गायक और गीतकार की है उतनी ही संगीतकार की भी है जो गायक की आवाज और गीतकार के शब्दों को अपनी धुन के अनुसार ढालता है. इसमें चुनौती दोतरफा रहती है. गायक के लिए भी और संगीतकार के लिए भी.

संगीतकारों की परंपरा में एक शख्स ऐसा भी है जो न सिर्फ संगीत की बारीकियों को समझता था बल्कि सिनेमा और लेखन की शैली से भी अच्छी तरह से परिचित था. उस रचनात्मक व्यक्ति ने न केवल धुनें बनाईं बल्कि कविताएं और सिनेमा लेखन भी किया. ऐसे बेमिसाल शख्सियत का नाम है- सलिल चौधरी जिन्हें प्यार से उनके प्रशंसक सलिल दा कहते हैं.

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सलिल दा की 26वीं पुण्यतिथि पर दिप्रिंट उनके संगीतमय और सिनेमाई सफर पर एक नज़र डाल रहा है.


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सामाजिक मुद्दों के प्रति रुझान और आंदोलनों में भूमिका

पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना के गाजीपुर गांव में 19 नवंबर 1925 को सलिल चौधरी का जन्म हुआ था. उनका बचपन असम के चाय बागानों में बीता, जहां उनके पिता डॉक्टर थे.

सलिल दा के पिता को पश्चिमी संगीत काफी पसंद था जिस कारण काफी शुरुआत में ही उनका दुनियाभर के संगीत के साथ-साथ असमिया और बंगाली लोक संगीत से राब्ता हुआ. जीवन के शुरुआती वर्षों में ही संगीत के जीवन में आ जाने से सलिल दा काफी प्रभावित हुए और उन्हें इसी में रुचि होने लगी.

बंगाल हमेशा से राजनीतिक तौर पर भी सक्रिय रहा है और वामपंथी विचारों ने इस क्षेत्र को काफी समय तक प्रभावित किया है. सलिल दा भी विश्वविद्यालय के दिनों में राजनीतिक तौर पर सक्रिय थे. उस समय दूसरे विश्व युद्ध और बंगाल में आए सूखे ने लोगों को काफी प्रभावित किया और सलिल दा इन सभी घटनाक्रम पर लगातार नज़र बनाए हुए थे. कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक इकाई इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) तमाम सामाजिक मुद्दों को लोगों के बीच जाकर उठा रहा था. 1940 के दशक में वे इप्टा के साथ जुड़ गए और गांव-गांव में नुक्कड़ नाटक और गीतों के जरिए लोगों में जागरूकता फैलाने का काम करने लगे.

सलिल दा ने खुद एक साक्षात्कार में बताया है, ‘मैं बचपन से ही छात्र आंदोलनों में सक्रिय रहा. कलकत्ता के नजदीक 24 परगना में किसान आंदोलन में भी शामिल हुआ और इसके लिए गीत भी लिखे. 1944 में बंगाल में आई भयानक त्रासदी से 50 लाख लोग मारे गए जिसे मैंने खुद अपनी आंखों से देखा था. इसलिए मैं आंदोलन और इप्टा से जा जुड़ा.’

‘इस बीच मैं दो सालों तक सुंदरबन में भूमिगत रहा और लगातार आंदोलन के लिए गीत कंपोज करने और लिखने लगा.’


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बम्बई, दो बीघा जमीन और बिमल दा

सलिल दा ने बांग्ला, हिंदी, मलयालम समेत करीब 13 भाषाओं में संगीत दिया. 1949 में आई बांग्ला फिल्म पोरिबर्तन से उन्होंने अपना फिल्मी सफर शुरू किया. कम ही समय में वे बांग्ला फिल्मों में चर्चित नाम हो गए और उन्होंने पाशेर बाड़ी, पोरिबर्तन और बार जातरी जैसी हिट फिल्में बनाईं, लेकिन हिंदी सिनेमाई दुनिया में उनका आना एकदम इत्तेफाकन था.

एक साक्षात्कार में सलिल दा ने खुद बताया है, ‘मैं एक बांग्ला फिल्म के लिए स्क्रिप्ट लिख रहा था जो एक किसान पर आधारित थी जिसकी जमीन छिन जाती है और वो पैसे कमाने के लिए कलकत्ता जाता है और वहां जाकर वो रिक्शा चलाने को मजबूर हो जाता है.’

‘ये स्क्रिप्ट ऋषिकेश मुखर्जी को पसंद आई और उन्होंने इसके बारे में बिमल दा (बिमल रॉय) को बताया. बिमल दा इसे हिंदी में बनाना चाहते थे और इस तरह ये फिल्म दो बीघा जमीन (1953) के तौर पर सामने आई.’

दो बीघा जमीन की कहानी के साथ-साथ सलिल दा ने इस फिल्म का संगीत भी दिया जो काफी पसंद किया गया.

सलिल दा ने लगभग 75 हिंदी, 45 बांग्ला, 26 मलयालम समेत कई भाषाओं की फिल्मों के लिए संगीत दिया. इतनी भाषाओं में संगीत बनाने वाले वो शायद एकमात्र भारतीय संगीतकार हैं.


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ज़िंदगी कैसी है पहेली…

सलिल चौधरी का संगीत पूरब और पश्चिम का मिश्रण है. उनके समकालीन जितने भी संगीतकार हुए उनमें से किसी ने भी सलिल दा जितने प्रयोग नहीं किए. सलिल दा इंस्ट्रूमेंट्स का काफी उम्दा प्रयोग करते थे.

लोकगीत और पाश्चात्य संगीत का जिस बारीकी और सहजता से उन्होंने मिश्रण किया वो बेमिसाल है. उन्हें बांसुरी, हारमोनियम, सितार बजाना भी आता था जिसका इस्तेमाल वो अपने संगीत में भी करते थे.

मधुमती फिल्म के गीतों में उन्होंने असम के चाय बागानों के लोकगीत का इस्तेमाल किया वहीं इसी फिल्म के एक गीत- दिल तड़प तड़प के कह रहा है…में उन्होंने हंगरी के फॉक ट्यून का प्रयोग किया.

सलिल दा का संगीत रूह तक उतर जाने वाला है. इसमें ठहराव है, मस्ती है, चुलबुलापन है, नई-नई अलबेली धुनें हैं. मन्ना डे की आवाज में काबुलीवाला फिल्म का गीत- ऐ मेरे प्यारे वतन, भला कौन भूल सकता है. इसके संगीत में जो दर्द है वो आंसू तक ला देता है.

दिलीप कुमार और वैजयंती माला अभिनीत मधुमती (1958) का संगीत भी लाजवाब है. इस फिल्म के संगीत में सलिल दा ने काफी नए प्रयोग किए हैं. चढ़ गयो पापी बिछुआ  इसका सुंदर उदाहरण है. इस फिल्म के संगीत के लिए सलिल दा को पुरस्कार मिला और ये 1958 की सबसे हिट फिल्मों में से एक थी.

1971 में ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित फिल्म आनंद के संगीत को भला कौन भूल सकता है. कहीं दूर जब दिन ढल जाए, मैंने तेरे लिए ही, जिंदगी कैसी है पहेली, मौत तू एक कविता है और ना जिया लागे ना जैसे गीतों का संगीत जीवन के फलसफे की तरह जान पड़ता है और तेजी से मन में उतर जाता है.

1974 में मन्नू भंडारी की कहानी पर बासु चटर्जी ने रजनीगंधा फिल्म बनाई थी. इस फिल्म का संगीत भी सलिल दा ने दिया है. योगेश के बोल और मुकेश की आवाज में इस फिल्म के गीत- कई बार यूं ही देखा है – का संगीत कैसे कोई बिसरा सकता है.

इसी तरह 1976 में आई फिल्म छोटी सी बात का संगीत भी बेहतरीन है. इस फिल्म में एक बड़ा ही सुंदर गाना है- 

न जाने क्यूं, होता है ये ज़िंदगी के साथ
अचानक ये मन
किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद
छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यूं…

सलिल दा का संगीत, उनकी रचनाधर्मिता, सामाजिक मुद्दों को लेकर जागरूकता उन्हें अलग तरह के संगीतकारों की सूची में ला खड़ा करता है. उनके संगीत का प्रभाव इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी धुनों में आज भी ताजगी है, आज भी मस्ती का एहसास है, हंसी के फव्वारे हैं.

सलिल दा का संगीत जिंदादिल इंसान का संगीत है. जिसका प्रभाव उनके जाने के बरसों बाद भी बना हुआ है.

जरा आनंद फिल्म के इस गीत का संगीत याद कीजिए, भला कैसे सलिल दा याद न आएंगे…

ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय
कभी तो हंसाए, कभी ये रुलाये

कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे-पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाये सपनों से आगे कहां
ज़िन्दगी कैसी है पहेली…


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