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Wednesday, 20 November, 2024
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मुंशी प्रेमचंद के रचे पांच ऐसे असरदार किरदार जो आज भी प्रासंगिक हैं

प्रेमचंद की लेखनी में तो आकर्षक तत्व हैं हीं लेकिन उन रचनाओं के किरदार भी कम अपनी तरफ नहीं खींचते हैं और हमें उस हकीकत के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जो हूबहू उनकी कहानियों की तरह हमारे भी दैनिक जीवन से होकर गुजरती हैं.

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समाज को देखने के कई तरीके होते हैं. या तो इसे आर्थिक नज़रिए से या भौगोलिक परिदृश्य से या उसके राजनीतिक झुकाव के मद्देनज़र समझ सकते हैं. लेकिन इससे इतर जाकर जब हम समाज को देखने की कोशिश करते हैं- तो वो सफर मुंशी प्रेमचंद की कहानियों, उपन्यासों और उसके किरदारों से होकर गुज़रता है जिसके केंद्र में होती है- मानवीय संवेदना और उसका परिवेश.

प्रेमचंद की रचनाओं में उनके गढ़े गए किरदारों के जरिए हम अपने आसपास होती हलचल को महसूस कर सकते हैं. समाज को देखने का एक नज़रिया जो प्रेमचंद अपनी रचनाओं से दे गए हैं- वे न जाने कितने ही बेआवाज़ लोगों की आवाज के तौर पर संकलित होकर, हमारे सामने भयावह और मर्मदर्शी हकीकतें पेश करती हैं.

समाज के इन बेआवाज़ों को प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में बखूबी जगह दी है, जिनमें किसान, दलित, महिलाएं, इन सभी से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल हैं. जो वर्तमान में एक अलग विषय बन चुके हैं लेकिन उस समय प्रेमचंद ने इन्हें समग्रता में देखा था.

उनकी रचनाओं की जो एक और खूबसूरती है वो ये है कि हिंदी-उर्दू का कोई भी पाठक जिसका रुझान साहित्य और समाज की तरफ बढ़ रहा है- वो अक्सर सबसे पहले उन्हीं की रचनाओं से बाबस्ता होता है. इसे सच्चाई मान सकते हैं या इत्तेफाक या उनकी लेखनी का चुंबकीय आकर्षण जो सरलता के साथ खींचती जाती है.

प्रेमचंद की समुचित लेखनी में तो आकर्षक तत्व हैं ही लेकिन उन रचनाओं के किरदार भी कम अपनी तरफ नहीं खींचते और हमें उस हकीकत के सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जो हूबहू उनकी कहानियों की तरह हमारे भी दैनिक जीवन से होकर गुजरती हैं. ठीक वैसे ही जैसे नमक का दारोगा  में वंशीधर और पंडित अलोपीदीन का किरदार, पूस की रात में हल्कू और जबरा, कफन  में घीसू और माधव, गोदान में होरी…

तभी तो हिंदी आलोचना के श्लाका पुरुष कहे जाने वाले नामवर सिंह ने प्रेमचंद की रचनाओं के बारे में कहा था- ‘उन्होंने हिंदी साहित्य से मध्यमवर्ग का ध्यान हटाकर आम आदमी, गरीब, देहाती और किसानों को उपन्यासों और कहानियों का विषय बनाय जो अपने आप में क्रांतिकारी कदम था.’

भले ही प्रेमचंद के किरदार तकरीबन सौ बरस पहले गढ़े गए हों लेकिन इस दौरान ये बिल्कुल भी फीके और कमज़ोर नहीं पड़े हैं बल्कि और भी सशक्त होकर हमसे सवाल करते हैं- आखिर इतने बरसों में क्या बदला?

बनारस के नज़दीक लमही गांव में 31 जुलाई 1880 को धनपत राय श्रीवास्तव का जन्म हुआ था जिन्हें बाद में मुंशी प्रेमचंद के नाम से जाना जाने लगा.

प्रेमचंद की 140वीं जयंती  के मौके पर उनकी रचनाओं के कुछ असरदार किरदारों पर नज़र डालना जरूरी हो जाता है.


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वंशीधर और पंडित अलोपीदीन

नमक का दारोगा  कहानी के दो मुख्य किरदार हैं- वंशीधर और पंडित अलोपीदीन. इस कहानी में वैसे तो एक किरदार खुद नमक भी है जिसका बीते दिनों लेखक चंदन पाण्डेय ने विस्तार से विश्लेषण किया है.

इस कहानी की शुरुआत प्रेमचंद जिस तरह से करते हैं, उससे ही इसकी आगे की तस्वीर थोड़ी-थोड़ी साफ होने लगती है. वो लिखते हैं- ‘जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे.’ यानि नमक का गलत ढंग से व्यापार करने लगे.

इसके बाद प्रेमचंद एक ऐसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ किरदार वंशीधर को रचते हैं जो गलत के खिलाफ सशक्त होकर आवाज़ उठाता है और पंडित अलोपीदीन को नमक के कालाबजारी के आरोप में गिरफ्तार कर लेता है. अलोपीदीन को अपने धन पर अटूट विश्वास होता है तभी तो वे कहते हैं- ‘न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं ‘.

अलोपीदीन अपने धन की ताकत और रसूख के दम पर अदालत से छूट जाता है और उल्टे वंशीधर को दंड मिलता है.

अब प्रश्न ये है कि इतने सालों बाद भी धन और धर्म की लड़ाई में किसकी जीत होती है? उत्तर बताने की शायद ही जरूरत हो.


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हल्कू और जबरा

पूस की रात  कहानी जितनी मार्मिक है उतनी ही अभाव में जीते करोड़ों किसानों की हकीकत भी है जो आज तक कमोबेश जस की तस बनी हुई है.

पूस की ठंडी रात है. हल्कू और जबरा ठिठुरती सर्दी में खेत में फसल की देखरेख करते हैं. हल्कू के पास ओढ़ने के लिए कुछ भी नहीं है. जो कुछ पैसे उसने कम्मल खरीदने के लिए जोड़े थे वो कर्ज अदायगी में चुक गए. अब उसके पास सर्दी में ठिठुरने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. गौरतलब है कि उसका कुत्ता जबरा भी हल्कू के साथ ठंड भरी रात में खेत की ओर चल पड़ता है.

ठंड पड़ने पर हल्कू कहता है- ‘क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहां क्या लेने आये थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूं? जानते थे, मै यहां हलुवा-पूरी खाने आ रहा हूं, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये. अब रोओ नानी के नाम को.’

नींद न आने पर हल्कू आसपास पड़ी पत्तियों को जमा कर अलाव जला लेता है जिस कारण आलस्य उसे दबा लेती है. उसे इतना भी होश नहीं रहता कि उसके फसलों को जंगली जानवर उजाड़ रहे हैं. सुबह उठने पर जब उसकी पत्नी मुन्नी कहती है- ‘अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी ‘ तो हल्कू हंसते हुए कहता है- ‘रात को ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा.’

आज भी कितने ही किसान खेती से हो रहे नुकसान के बाद मजदूरी करने पर मजबूर हैं. यहां तक कि आत्महत्या भी कर रहे हैं. क्या स्थिति बदली है? जरा सोचिए!


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घीसू और माधव

माधव और घीसू के किरदारों के जरिए निर्धनता और लालची प्रवृत्ति को प्रेमचंद ने अपनी कहानी कफ़न  में गढ़ा है.

कहानी में माधव की पत्नी बुधिया दर्द-ए-जह से पछाड़े खाती है लेकिन उसके इलाज के लिए पैसे नहीं होते. भुने हुए आलू खाने के लिए माधव और उसके पिता घीसू मजबूर हैं.

अगली सुबह बुधिया के मर जाने के बाद उसके कफन के लिए वे दोनों गांव में दर-दर भटकते हैं और कुछेक पांच रुपए जमा होते हैं. उन पैसों से कफ़न न लेकर वे मयखाने जाकर शराब और बोटियों का मजा लेने लगते हैं. तभी प्रेमचंद उन किरदारों के जरिए समाज की नंगी हकीकत को लाकर रख देते हैं.

माधव अपने पिता घीसू को कहता है- ‘कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथड़ा न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए.’ और फिर से दोनों मौज उड़ाने लगते हैं. लेकिन माधव घीसू से पूछता है कि रुपए तो चट कर गए, कफन कैसे मिलेगा.

तो घीसू कहता है- ‘वही लोग देंगे जिन्होंने अब के दिया. हां वो रुपये हमारे हाथ न आएंगे और अगर किसी तरह आ जाएं तो फिर हम इस तरह बैठे पिएंगे और कफ़न तीसरी बार लेगा.’

क्या भारत में ऐसी गरीबी और लालच खत्म हो गई जिसे प्रेमचंद बरसों पहले सामने ला रहे थे?


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सवा सेर गेहूं

सवा सेर गेहूं  कहानी प्रेमचंद ने 1910 में लिखी थी. इस कहानी के बाकी किरदारों से इतर गेहूं का किरदार ज्यादा अहम है.

इस कहानी में शंकर नाम का एक किसान घर पर अतिथि के आ जाने पर गांव के पंडित से सवा सेर गेहूं मांग कर लाता है. लेकिन हर बरस फसल के समय वो पंडित को अनाज दे देता है. तभी एक दिन पंडित उससे कहता है कि वो घर आ कर अपना हिसाब कर जाए. ये सुनकर शंकर हतप्रभ रह जाता है.

हिसाब करने के बाद पता चलता है कि सात बरस पहले लिए गए सवा सेर गेहूं का कर्ज सूद समेत कई मन अनाज पहुंच गया है जिसे अब उसे चुकाना है. शंकर कहता है कि वो हर साल अनाज उसे देता तो था लेकिन पंडित उसे दक्षिणा बताता है. इस तरह एक संपन्न और ठीक-ठाक गुज़र बसर करने वाला किसान कर्ज के चंगुल में फंस जाता है और पंडित के खेतों में बंधुआ होने पर मजबूर हो जाता है.

ये कहानी शोषक समाज के शोषण को उकेरती है. क्या इतने बरस बीत जाने के बाद भी हम दावे के साथ ये कह सकते हैं कि किसानों के साथ अब ऐसा न होता होगा?


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होरी

प्रेमचंद का आखिरी उपन्यास गोदान  ग्रामीण जीवन और समय के साथ बदलते परिदृश्य को साफगोई से बताती है. जिसमें उन्होंने होरी जैसे साधारण व्यक्ति को अपनी रचना का नायक बनाया है. होरी की साधारणता को प्रेमचंद ने जिस तरह असाधारण बनाया है और उसे केंद्र में रखकर यथार्थवादी लकीर खींची है वो आज भी प्रासंगिक है.

प्रेमचंद ने होरी को एक प्रतीक के तौर पर अपनी रचना में गढ़ा है. होरी जीवन भर संघर्ष करता है लेकिन उसकी आकांक्षाएं पूरी नहीं हो पाती. महती एक गाय की इच्छा भी अधूरी ही रह जाती है.

ये उपन्यास सामंती समाज के टूटने और उसी बीच पूंजीवादी समाज के उभरने की भी कथा है, जिसे प्रेमचंद ने गांव और शहर की घटनाओं के जरिए बखूबी उभारा है.

समाज में प्रेमचंद की प्रासंगिकता क्यों और कितनी है ये तो एक लंबी चर्चा का विषय है लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि किसानों, गरीबों, दलितों, महिलाओं के जरूरी मुद्दों का जब तक हल नहीं निकलता, तब तक उन्हें लेकर होने वाली चर्चा में मुंशी प्रेमचंद अपने किरदारों के जरिए एक नज़ीर बनते रहेंगे.

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2 टिप्पणी

  1. जिहाद के श्यामा और खजांचन्द्र का नाम इसमें सर्वोपरि है

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