उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के तुरंत बाद से ही देवेंद्र फडणवीस के मोबाइल फोन पर एस.एम.एस. और व्हाट्सएप संदेशों की बाढ़ आ गई. ऑपरेशन लोटस की कामयाबी के बाद सभी ये मानकर चल रहे थे कि फडणवीस के दोबारा मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया है. पत्रकार और पार्टी के नेतागण उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे, लेकिन फडणवीस ने किसी भी संदेश का जवाब नहीं दिया. आमतौर पर वे चुनिंदा पत्रकारों के संदेश का तुरंत जवाब देते हैं, लेकिन उनके संदेशों का भी इस बार जवाब नहीं दिया. ए.बी.पी. न्यूज संवाददाता रौनक कुकड़े ने ये जानने के लिए उन्हें फोन किया कि वे सरकार बनाने का दावा करने कब जा रहे हैं और शपथविधि किस तारीख को होगी? फडणवीस ने तब रौनक को बताया, “अभी रुको! तुम्हारे लिए सरप्राइज है. बहुत खबरें मिलनेवाली हैं तुमको.”
रौनक सोच में पड़ गया कि फडणवीस किस ‘सरप्राइज’ की बात कर रहे हैं. सस्पेंस का खुलासा अगले दिन यानी 30 जून की शाम साढ़े 4 बजे हो गया, जब फडणवीस ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान किया और कहा कि वे सरकार से बाहर रहेंगे, लेकिन जो फडणवीस एक दिन पहले रौनक को सरप्राइज देने की बात कह रहे थे, खुद उन्हें नहीं पता था कि उनकी पार्टी भी उन्हें एक सरप्राइज देनेवाली है. यह सरप्राइज उन्हें मिला करीब साढ़े 6 बजे, जब पार्टी की ओर से उन्हें उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेने को कहा गया. पार्टी के इस फैसले ने उन्हें असहज कर दिया, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के समझाने के बाद वे शपथ लेने के लिए तैयार हो गए.
चाणक्य के विचारों के मुरीद अमित शाह को लंबे वक्त से जानने वाले लोग बताते हैं कि गोपनीयता उनकी काम करने की शैली का हिस्सा है. वे संगठन में हर किसी को ‘नीड टू नो बेसिस’ पर जानकारी देते हैं, यानी जिसके लिए जिस वक्त जितना जानना जरूरी है, उसे उस वक्त उतना ही बताया जाएगा. एक कदम के बाद अगला कदम क्या होगा, इसकी जानकारी तभी दी जाती है, जब अगला कदम उठाने का समय आ चुका हो. उनके निर्देश पर काम करनेवाले अकसर इस सस्पेंस में रहते हैं कि किसी अमुक निर्देश पर अमल करने से क्या हासिल होनेवाला है. बीजेपी के अंदरखाने यही माना जा रहा था कि फडणवीस के भविष्य को लेकर भी शाह ने जरूर कुछ सोच रखा होगा, लेकिन उसका खुलासा तब ही होगा, जब खुद शाह चाहेंगे.
बीजेपी की ओर से लिये गए हर बड़े फैसले के पीछे अमित शाह की भूमिका मानी जाती है. साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उसके बाद अमित शाह को बीजेपी अध्यक्ष बनाया गया. मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी से ही शाह उनके खास आदमी रहे. उनकी कैबिनेट में शाह गृहराज्यमंत्री थे. राज्य में अंडरवर्ल्ड के खिलाफ चलाई गई आक्रामक मुहिम के लिए शाह को श्रेय दिया जाता है, हालाँकि उस मुहिम के दौरान वे गंभीर विवादों में भी फँसे और उनपर आपराधिक मामले भी दर्ज हुए.
अदालती आदेश के कारण उन्हें काफी वक्त तक गुजरात के बाहर रहना पड़ा. शाह को न केवल मोदी का संकटमोचक कहा जाता है, बल्कि मोदी के राजनीतिक प्रवास को सफल बनाने में उनका अहम योगदान रहा है. पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद शाह ने अपना ध्यान पार्टी के विस्तार पर केंद्रित करना शुरू किया और एक के बाद तमाम राज्यों में बीजेपी की सरकारें आनी शुरू हो गईं, उन राज्यों में भी जहाँ चुनाव नतीजों में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर नहीं उभरी थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी उनके नेतृत्व में 2014 के मुकाबले ज्यादा मजबूत होकर उभरी. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उन्हें गृहमंत्री बनाया गया. बतौर गृहमंत्री अमित शाह ने कई बड़े फैसले लिये, जिनमें सबसे बड़ा फैसला था जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 का हटाया जाना और उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया जाना.
जनवरी 2020 में शाह की जगह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा बन गए, लेकिन इसके बावजूद शाह पार्टी के मुख्य रणनीतिकार बने रहे. महाराष्ट्र में बीजेपी की सत्ता स्थापना की रणनीति भी उन्हीं ने बनाई थी.
उस शाम अपने सरकारी निवास से तैयार होकर एकनाथ शिंदे जब राजभवन की ओर शपथ लेने के लिए निकलने लगे तो उन्हें अमित शाह का फोन आया. शाह ने उन्हें बधाई दी और कहा, ‘शिंदेजी, हम लोग तो पुराने मित्र हैं. शिवसेना-भाजपा का गठबंधन तो पहले से है. आप चिंता मत करो. आपके पीछे हम चट्टान की तरह खड़े हैं.’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उन्हें फोन करके बधाई दी
‘एकनाथजी, अच्छा काम करो. इस राज्य को प्रगति पथ पर ले जाओ. आपको किसी भी चीज की कमी हम होने नहीं देंगे.’
शपथ समारोह के बाद सियासी गलियारों में सभी उस शाम मिले. दोनों ‘सरप्राइज’ के पीछे की कहानी ढूँढ़ने में लग गए.
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शिंदे को क्यों मिला मुख्यमंत्री पद?
महज 50 विधायक साथ होने के बावजूद 106 विधायकोंवाली बीजेपी ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री पद क्यों दिया? इस सवाल का जवाब हासिल करने के लिए हाल के वक्त में महाराष्ट्र के बाहर अपनाई गई बीजेपी की रणनीति पर गौर करना होगा. ज्यादातर बीजेपी शासित राज्यों में बीजेपी की रणनीति रही है कि उस राज्य की सबसे ज्यादा प्रभुत्ववाली जातियों में से ही निकले किसी शख्स को मुख्यमंत्री या पार्टी की राज्य इकाई का प्रमुख बनाया जाए.
गुजरात में सितंबर 2021 में जब विजय रूपाणी को हटाकर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया तो उसके पीछे पार्टी की यही नीति मानी गई. रूपाणी गुजरात के पहले जैन मुख्यमंत्री थे, लेकिन राज्य में वर्चस्व पाटीदार समुदाय का था. पांच साल पहले तक बीजेपी राज्यों के मुख्यमंत्री नियुक्त करते वक्त उनकी जाति पर ध्यान नहीं देती थी, लेकिन बाद में रणनीति बदल गई. रूपाणी राज्य में कोविड-19 महामारी का सामना कर पाने में कमजोर नजर आए. 2022 के आखिर में गुजरात विधानसभा के चुनाव होने थे. ऐसे में बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के गृहराज्य में जोखिम नहीं उठा सकती थी. इसलिए रूपाणी को हटाकर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बना दिया गया, जो कि पाटीदार समुदाय से आते हैं.
कर्नाटक में भी बीजेपी लिंगायतों की नाराजगी वहन नहीं कर सकती. इसलिए जब पार्टी ने बुजुर्ग हो चुके बी.एस. येदियुरप्पा, जो कि लिंगायत समुदाय से आते हैं, उन्हें पद छोड़ने को कहा तो उनकी जगह एक दूसरे लिंगायत नेता बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया. इसी तरह से उत्तराखंड में वर्चस्व रखनेवाली राजपूत जाति के पुष्कर सिंह धामी को बीजेपी ने मुख्यमंत्री बनाया.
महाराष्ट्र में मराठा समुदाय का वर्चस्व रहा है. राज्य के ज्यादातर मुख्यमंत्री मराठा जाति से ही आए हैं. साल 2014 में जब बीजेपी की महाराष्ट्र में सरकार बनी तब पार्टी ने देवेंद्र फडणवीस के रूप में एक ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाकर सबको चौंका दिया. फडणवीस के कार्यकाल के दौरान मराठा आरक्षण की माँग को लेकर हिंसक आंदोलन हुए और कुछ लोगों की जान गई. ऐसे में ये तय हुआ कि बीजेपी अब राज्य में किसी मराठा को ही मुख्यमंत्री बनाएगी. एकनाथ शिंदे मराठा जाति से आते हैं और राज्य के कई हिस्सों में उनका प्रभाव है.
ऐसा नहीं है कि बीजेपी के पास मराठा चेहरे नहीं हैं. चंद्रकांत पाटिल, आशीष शेलार और विनोद तावड़े जैसे मराठा नेता बीजेपी के पास जरूर हैं, लेकिन पार्टी के आला नेतृत्व की नजर में इनका प्रभाव सीमित है और ये शिंदे जैसे बड़े जनाधारवाले नेता नहीं हैं. शिंदे के पास जाति भी है, पैसा लाने की क्षमता भी है और जनाधार भी है. सियासी हलकों में ये भी संभावनाएँ जताई जाने लगीं कि आगे चलकर शिंदे बीजेपी में भी शामिल हो सकते हैं.
फडणवीस उपमुख्यमंत्री क्यों?
एकनाथ शिंदे को बीजेपी ने मुख्यमंत्री तो बना दिया, लेकिन सभी के मन में सवाल था कि फडणवीस जैसे कद्दावर नेता उनके नीचे उपमुख्यमंत्री क्यों बना दिए गए? इसके पीछे पार्टी की ये रणनीति थी कि भले ही शिंदे मुख्यमंत्री रहेंगे, लेकिन सरकार की कमान फडणवीस के हाथों में होगी. फडणवीस के पास सरकार चलाने का पाँच साल का अनुभव है और ब्यूरोक्रेसी पर उनकी अच्छी पकड़ है.
महाराष्ट्र में कई ऐसे मौके आए हैं, जब समझा गया कि मुख्यमंत्री पद पर कोई विराजमान होता है और सत्ता कोई दूसरा शख्स चलाता है. 1995 में मुख्यमंत्री मनोहर जोशी थे, लेकिन सरकार बालासाहेब ठाकरे की मर्जी से चलती थी. 1999 में नारायण राणे मुख्यमंत्री बने, लेकिन सत्ता का रिमोट बालासाहेब ठाकरे के हाथों में रहा. इसी तरह से जब 2019 में महाविकास अघाड़ी की सरकार बनी तो सियासी हलकों में यही चर्चा होती कि सरकार शरद पवार चला रहे थे.
जहां तक देवेंद्र फडणवीस के ‘डिमोशन’ का सवाल है तो महाराष्ट्र में कई ऐसे मौके आए हैं जब मुख्यमंत्री के पद पर रहे शख्स को बाद में किसी अन्य मुख्यमंत्री के अधीन काम करना पड़ा हो, जैसे नारायण राणे और अशोक चव्हाण.
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एक तीर से कई निशाने
शिवसेना में बगावत करवाकर और शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने एक तीर से कई निशाने लगाए हैं. बीजेपी के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि ये रही कि वो फिर एक बार सत्ता में आ गई. दूसरी उपलब्धि ये रही कि उसने महाराष्ट्र की एक बड़ी पार्टी शिवसेना को दो फाड़ कर दिया. इसके अलावा शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर जनता के बीच ये संदेश भी दे दिया कि पार्टी को पद का लालच नहीं है, लेकिन सबसे बड़ी बात कि बीजेपी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में सफलता पाने के लिए इस बगावत के जरिए पहला कदम उठाया.
उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें, यानी 48 महाराष्ट्र से ही आती हैं. ऐसे में केंद्र में बीजेपी सरकार की वापसी के लिए महाराष्ट्र में मजबूत रहना जरूरी है. बीजेपी का टारगेट है कि 2024 के चुनाव में उसे 48 में से कम-से-कम 40 सीटें हासिल हों.
शिवसेना को दो फाड़ करके बीजेपी को कितना फायदा मिलता है, इसका ट्रेलर 2022 के आखिर में होने जा रहे मुंबई महानगरपालिका के चुनाव में भी देखने को मिलेगा. मुंबई महानगरपालिका देश की सबसे बड़ी महानगरपालिका है, जिसका बजट कई छोटे राज्यों के बजट से भी बड़ा होता है. 3 दशकों से इस महानगरपालिका पर शिवसेना की सत्ता रही है, जिसमें कई साल बीजेपी भी उसकी पार्टनर रही. साल 2017 में दोनों पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. नतीजों के आने पर बीजेपी सिर्फ 2 सीटें ही पीछे थी. बीजेपी एम.एन.एस. के सात विधायकों के समर्थन से अपने मेयर बना सकती थी, लेकिन साल 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव शिवसेना के साथ गठबंधन करके लड़ने हैं, ये सोचकर देवेंद्र फडणवीस ने मेयर की कुरसी शिवसेना के लिए छोड़ दी.
महाविकास अघाड़ी सरकार को गिरवाकर बीजेपी ने गैर-बीजेपी पार्टियों के एक साथ आने के पैटर्न को भी असफल करार दे दिया. महाराष्ट्र में अघाड़ी सरकार बनने के बाद चर्चा थी कि ऐसे ही पैटर्न पर दूसरे राज्यों और केंद्रीय स्तर पर भी बीजेपी विरोधी मोर्चा बनाया जा सकता है.
यह शरद पवार की उस छवि पर भी हमला था कि वे देश के सबसे तीक्ष्ण बुद्धि के राजनेता हैं. समझा जाता है कि अस्सी साल की उम्र में भी उनका दिमाग 25 साल के नौजवान जैसा चलता है. सियासी दाँवपेच में उन्हें मात देना आसान नहीं समझा जाता और उनके बारे में ये मशहूर है कि वे हर हाल में अपने आप को या अपनी पार्टी को सत्तासीन रखने में कामयाब होते हैं.
बीजेपी का प्लान बी–एन.सी.पी. के साथ सरकार?
अगर एकनाथ शिंदे की बगावत असफल हो जाती तो महाराष्ट्र में सत्ता स्थापना के लिए एक प्लान बी भी तैयार था, ऐसी जानकारी कुछ राजनीतिक पत्रकारों के कान में पड़ी. ये प्लान बी था एन.सी.पी. के साथ सरकार बनाने का. शिंदे के साथ बात न बनने पर 15 जुलाई तक एन.सी.पी. के समर्थन से सरकार बनाने की तैयारी भी थी. बताया जाता है कि इसके लिए एन.सी.पी. का राज्य स्तर का एक दिग्गज नेता और एक सांसद बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के संपर्क में थे. जिस रात शिंदे बागी विधायकों को साथ लेकर सूरत पहुंच रहे थे, उस रात इन दोनों लोगों की बातचीत बीजेपी के एक बड़े नेता से हो रही थी. चूँकि सरकार शिंदे-फडणवीस की बन गई और एन.सी.पी. और बीजेपी के बीच कथित बातचीत की किसी भी पक्ष ने आधिकारिक पुष्टि नहीं की, इसलिए इसे अफवाह ही माना गया.
वैसे 2014 से 2022 के बीच महाराष्ट्र में इतना कुछ अजब-गजब हो चुका है कि किसी की कल्पना की कोई भी उड़ान कभी भी सच साबित हो सकती है. विचारधारा, तर्क, आम धारणा, निष्ठा इत्यादि जैसे शब्दों के लिए अब राज्य की सियासत में जगह नहीं बची है.
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