मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं ~मीर तक़ी मीर
अमेज़न प्राइम पर हाल ही में आई सीरीज़ दहाड़ को देखते हुए सबसे पहले जो बात अपनी ओर खींचती है, वो है उसका क्राफ्ट. इसकी मिस्ट्री सुरेंद्र मोहन पाठक या वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों की तरह या फिर ओवर द टॉप (ओटीटी) पर मौजूद दूसरी क्राइम सीरीज़ की तरह अंत में जाकर नहीं खुलती, बल्कि बिलकुल शुरू से ही एंटागोनिस्ट सामने रहता है और दर्शक सबूत की तलाश का सफर सीरीज़ के किरदार के साथ-साथ तय करते हैं.
यह कनेक्ट आद्यंत बना रहता है. उदाहरण के लिए जब आरती का पात्र अंजलि भाटी को गुमराह कर रहा होता है तब दर्शक एक बेबसी महसूस करते हैं और उसकी हत्या के बाद भाटी जब कहती है कि उसका झूठ वो नहीं पकड़ पाई, तो किरदार और दर्शक का फासला घटने लगता है. वह बेबसी एकाकार हो जाती है.
इस सीरीज़ में कलाकारों के उम्दा अभिनय के बारे में बात करते हुए हम कुछ नया नहीं जोड़ रहे होंगे. विजय वर्मा हो या सोनाक्षी सिन्हा या फिर गुलशन देवैया—सबने अपनी-अपनी व्यापक रेंज दिखाई है, पर एक किरदार जिसने सबसे अधिक ध्यान खींचा है वो है कैलाश पार्घी. जहां एक तरफ आनंद स्वर्णकार का चरित्र साइकोपैथ सीरियल किलर के खास पैटर्न का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे विजय वर्मा ने आत्मसात् करते हुए जीवंत किया है, वहीं अंजलि भाटी का किरदार भी भारतीय समाज में जाति मूलक एवं लिंग आधारित पूर्वाग्रहों तथा दुर्भावनाओं के विरुद्ध चुनौती की तरह खड़ा किया गया है, जिसे सोनाक्षी ने बिना लाउड हुए (जिसका खतरा ऐसे रेबेल किरदारों के साथ अक्सर होता है) बखूबी निभाया है.
ये दोनों किरदार सशक्त होते हुए भी वर्गीकृत एवं प्रतिनिधिमूलक चरित्र हैं. वहीं पार्घी का किरदार पूरी सीरीज़ में निखरता है. सीरीज़ की शुरुआत में जो वह होता है, अंत तक वही नहीं रह जाता. दर्शक उसके किरदार में खुद को ढूंढ पाते हैं.
पार्घी को जब अपने होने वाले बच्चे के बारे में पता चलता है तो उसका रिएक्शन बहुत से लोगों को ओवर ड्रामाटिक लग सकता है, लेकिन अत्यंत तनावयुक्त जॉब प्रोफाइल वाले लोग यह सहज ही समझ सकते हैं कि प्रोफेशनल स्पेस में घटित होने वाली चीजें कैसे पर्सनल स्पेस पर हावी होने लगती हैं और जिन पेशों में प्रोडक्ट्स की जगह ज़िंदगियों से डील करना पड़े, वहां प्रोफेशनल और पर्सनल का यह द्वंद्व वैसे भी कम होता रहता है.
सीरीज़ की शुरुआत में ईर्ष्या, कुंठा और लालच जैसे भावों का प्रतिनिधि चरित्र प्रतीत होने वाले पार्घी परिस्थितिजन्य चुनौतियों के समक्ष टूटने की जगह मज़बूत बनकर उभरता है. अल्ताफ को पुलिस कस्टडी से भगाने में अपने सहकर्मी एसएचओ देवीलाल सिंह और एसआई भाटी की भूमिका पता चलने के बाद अब तक प्रमोशन की लालच में रहने वाला पार्घी जब स्कूटर पर एसपी से मिलने निकलता है, तो वह सफर उसके किरदार के परिवर्तन का सफर है. यह बदलाव प्रेमचंद के किरदारों का हृदय परिवर्तन सरीखा नहीं है. बदलाव सूक्ष्म स्तर पर पहले से घटित हो रहा था. बस उसका उद्घाटन निर्णय की घड़ी में हो रहा है.
रेत के टीले पर बैठकर उसका ज़ार-ज़ार रोना मेरी नज़र में पूरी सीरीज़ का सबसे ख़ूबसूरत और मज़बूत दृश्य है. यह रोना उसके किरदार को मानवीय बनाता है.
आनंद स्वर्णकार और अंजलि भाटी की तरह कैलाश पार्घी का चरित्र बिल्कुल ब्लैक अथवा व्हाइट की श्रेणी में नहीं है, बल्कि चलायमान है, इसलिए हमारे बीच का है और उसका बदलाव नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग है. ऐसे सूक्ष्म पात्र को निभा ले जाना और दर्शकों तक उस बारीकी का रेशा-रेशा पहुंच जाना, सोहम शाह के अभिनय की सफलता है.
रीमा कागती और ज़ोया अख़्तर को साइकोसोशल स्पेस में एक सशक्त सीरीज़ बनाने के लिए साधुवाद.
(राहुल कुमार बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी हैं, जो वर्तमान में जीविका के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी के रूप में कार्यरत हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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