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Friday, 19 April, 2024
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किशोर उम्र की हरकतों और अनुभूतियों को झलकाती है फिल्म ‘चिड़ियाखाना’

अपने अतरंगी किरदारों के लिए भी यह फिल्म दर्शनीय हो उठती है. इन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों का अभिनय असरदार है.

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पहले कहानी जान लीजिए. हाल ही में अपनी मां के साथ मुंबई के एक निम्नवर्गीय इलाके में रहने आया बिहारी किशोर सूरज फुटबॉल का दीवाना है. लेकिन उसे न तो अपने सरकारी स्कूल के साथी खुल कर स्वीकार रहे हैं और न ही टीम का दबंग कैप्टन बाबू. वैसे भी एक बड़े नेता की नजर उनके इस मैदान पर है. स्कूल के प्रिंसीपल की दौड़-भाग से यह तय होता है कि अगर इस स्कूल के बच्चे एक नामी स्कूल की टीम को फुटबॉल में हरा दें तो यह मैदान बच सकता है. जाहिर है कि मुकाबला तगड़ा है. उस तरफ चीते जैसे तेज-तर्रार खिलाड़ी हैं तो इस तरफ किस्म-किस्म के जानवरों का चिड़ियाखाना.

निर्देशक मनीष तिवारी अपनी फिल्मों के दरम्यां लंबा फासला रखते आए हैं. 2007 में नसीरुद्दीन शाह के बेटे इमाद को लेकर ‘दिल दोस्ती एट्सैट्रा’ देने के छह साल बाद उन्होंने 2013 में प्रतीक बब्बर वाली ‘इस्सक’ दी थी. अब करीब दस साल बाद आई उनकी यह फिल्म राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम ने बनाई है.

फिल्म उन्होंने और पद्मजा ठाकुर ने मिल कर लिखी है. किसी निचले या कमजोर वर्ग के लोगों की अपने से ऊंचे या साधन संपन्न वर्ग पर विजय प्राप्त करने की ‘अंडरडॉग’ कहानियां पूरे विश्व में पसंद की जाती हैं. अपने यहां भी ऐसी बहुतेरी फिल्में बनी हैं. फिर किसी जगह को बचाने की खातिर कुछ कमजोर समझे जाने वाले लोगों के जुट कर जूझने की कहानी भी कोई नई नहीं है. ऐसे में यह फिल्म अगर देखे जाने लायक बनती है तो इसका कारण है इसका ट्रीटमैंट जो इसे अधिकांश समय यथार्थ से जोड़े रखता है.

इस कहानी की यही खासियत है कि यह जिस माहौल में घटित होती है वहां की विशेषताओं और किरदारों को नहीं छोड़ती. चाहे मुंबई का निम्नवर्गीय इलाका हो, सरकारी स्कूल का माहौल, नेताओं की दबंगई, छुटभैये गुडों की हरकतें या फिर बड़े स्कूल के बच्चों का बर्ताव, कुछ भी ‘फिल्मी’ नहीं लगता. दूसरे प्रदेश से आकर महानगरों में बसने वालों के साथ होने वाले सौतेले व्यवहार और उन्हें धीरे-धीरे अपनाने की शहरी प्रवृति पर भी यह बात करती है.

हां, कुछ खास नया न दे पाने की कमी भी इसमें झलकती है और बीच-बीच में बैकग्राउंड से आता नैरेशन भी इस ओर इशारा करता है कि लेखक अपनी कल्पनाओं को ऊंचा नहीं उड़ा पाया. संवाद कहीं हल्के तो कहीं बहुत अच्छे हैं. सूरज को अपने आसपास के लोगों में किस्म-किस्म के जानवरों की झलक दिखती है, इस बात को थोड़ा और खुल कर समझाया जाना चाहिए था. सूरज और उसकी मां की बैक-स्टोरी भी थोड़ी और गाढ़ी होनी चाहिए थी. स्क्रिप्ट को थोड़ा और निखारा जाता तो ये कमियां दूर हो सकती थीं.

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अपने अतरंगी किरदारों के लिए भी यह फिल्म दर्शनीय हो उठती है. इन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों का अभिनय असरदार है. ऋत्विक सहोर को ‘फरारी की सवारी’ और ‘दंगल’ में देखा जा चुका है. वह सूरज की भूमिका को प्रभावी ढंग से निभाते हैं. राजेश्वरी सचदेव, प्रशांत नारायण, गोविंद नामदेव, अंजन श्रीवास्तव, नागेश भोंसले, अवनीत कौर और दो सीन में आए रवि किशन जंचते हैं. बैकग्राउंड म्यूजिक कई जगह दृश्यों के असर को चरम पर ले जाता है. लोकेशन और कैमरा मिल कर फिल्म को यथार्थ रूप देते हैं.

बस्ती के बच्चों का मिल कर एक नामी स्कूल से भिड़ना और जी-जान लगा देना प्रेरणादायक है. साथ ही किशोर उम्र की हरकतों और अनुभूतियों को भी यह फिल्म प्रभावी तरीके से महसूर करवा पाने में कामयाब रही है.


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