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Friday, 22 November, 2024
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महाराष्ट्र के इस स्कूल के बच्चे अपने दोस्तों को चप्पल बनाकर करते हैं गिफ्ट

स्कूल में सभी बच्चों के पैरों में जूते या चप्पलें होने से हर एक के भीतर आत्मविश्वास झलकता है. इसके कारण लगभग सभी बच्चे नियमित स्कूल आ रहे हैं. पर, एक वर्ष पहले ऐसा नहीं था.

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गरीबी से ग्रस्त मज़दूरों के बच्चे अक्सर स्कूल नंगे पैर पैदल ही चल के आते थे. कंकड़-पत्थर और कांटों से चोटिल हो जाने के कारण वे कई की दिन स्कूल से दूर रहने के लिए मजबूर होते थे. पर अब ये सब बदल चुका है और बदलाव भी वे बच्चे स्वयं ही लाए हैं.

बात है महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले से लगभग 120 किलोमीटर दूर बरखेड़ी खुर्द गांव के ज़िला परिषद प्राथमिक स्कूल की. यहां के बच्चे अपनी फटी-पुरानी चप्पलों को कक्षा में एक जगह जमा करते हैं, फिर सप्ताह में एक दिन स्कूल के अंतिम सत्र में ऐसी चप्पलों की मरम्मत करके दोबारा पैरों में पहनने लायक बनाते हैं. यदि इसके बाद किसी सहपाठी को उस चप्पल की ज़रूरत पड़े तो वह चप्पल उसे गिफ्ट करते हैं. इससे आर्थिक तंगी के कारण अपने बच्चों के लिए चप्पल न खरीद पाने वाले परिवारों को मदद मिल जाती है.

सीख रहे जीने का मूल्य

यहां के प्रधानाध्यापक, शिक्षिकाओं और बच्चों से चर्चा में यह स्पष्ट होता है कि इन बच्चों में बंधुता और आपसी सहयोग की भावना का विकास सप्ताह में एक दिन लगाए जाने वाले एक विशेष सत्र के कारण संभव हो रहा है. इस सत्र के दौरान बच्चे खेल-खेल में संविधान के मूल्य तत्व यानि स्वतंत्रता, समता, न्याय और बंधुता से जुड़ी भावनाओं को आत्मसात कर रहे हैं.

बता दें कि करीब ढाई हज़ार की आबादी वाले बरखेड़ी खुर्द गांव में अधिकतर मज़दूर या निम्न-मध्यम श्रेणी के किसान रहते हैं. यहां मराठा के अलावा बड़ी संख्या में बौद्ध समुदाय के परिवार भी हैं. वहीं, 1959 में स्थापित मराठी माध्यम का यह स्कूल अपनी अन्य दो विशेषताओं के कारण भी आकर्षित करता है. एक तो बच्चों की संख्या के मुकाबले स्कूल का विशाल परिसर सबका ध्यान अपनी ओर खींचता है. दूसरा, यहां लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या काफी ज्यादा है.

इस स्कूल में एक प्रधानाध्यापक और दो शिक्षिकाएं हैं. यहां पहली से पांचवीं तक पढ़ने वाले कुल 53 बच्चों में 19  लड़के और 34 लड़कियां हैं. वहीं, इस स्कूल का परिसर करीब 25 हज़ार वर्ग फीट में फैला हुआ है. एक कार्यालय के अलावा हर कक्षा के लिए एक-एक कमरे के अलग-अलग भवन हैं. यहां जुलाई 2018 से मूल्यों को बढ़ावा देने वाले सत्रों का आयोजन हो रहा है.


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ऐसे बदली तस्वीर

प्रधानाध्यापक जीआर तेली बताते हैं कि आज हमारे स्कूल में सभी बच्चों के पैरों में जूते या चप्पलें होने से हर एक के भीतर आत्मविश्वास झलकता है. इसके कारण लगभग सभी बच्चे नियमित स्कूल आ रहे हैं. पर, एक वर्ष पहले ऐसा नहीं था.

वे कहते हैं, ‘तब हमारे स्कूल में पढ़ने वाले कई गरीब बच्चों के पास पैरों में पहनने के लिए चप्पलें तक नहीं थीं. इसलिए स्कूल आते-जाते समय उनके पैरों में कंकड़, कांटे या कांच गड़ जाते थे. वे जख्मी हो जाते थे. कई बार इस तरह की तकलीफ होने से वे स्कूल आना छोड़ देते थे. इससे उनमें हीन-भावना भी बनी रहती थी जिससे स्कूल में बच्चों की उपस्थिति पर फर्क पड़ता था और शत-प्रतिशत उपस्थिति नहीं रह पाती थी. लेकिन, फिर हमने मूल्यों की शिक्षा को बढ़ावा देने वाली कई गतिविधियां कीं. परिणाम यह हुआ कि इसके कारण बच्चे और अधिक संवेदनशील होते जा रहे हैं और अब वे समस्या का समाधान भी निकालने लगे हैं.’

ऐसे हुई शुरुआत

इस बारे में शिक्षिका पीबी कोली अपना अनुभव साझा करते हुए बच्चों की इस पहल की शुरुआत के बारे में बताती हैं. उनकी मानें तो इस सत्र में संविधान के बुनियादी मूल्यों पर आधारित कई गतिविधियां की जाती हैं. इसी में एक मूल्य है- बंधुता. स्कूल ने अपने बच्चों के माध्यम से विशेष तौर पर बंधुता से जुड़ी अध्ययन दक्षताओं पर काम किया. इससे स्कूल के बच्चों के मन में संवेदनशीलता का प्रभाव बढ़ता गया. मूल्यवर्धन के सत्रों में आयोजित गतिविधियों के कारण उन्होंने जाना कि उन्हें स्कूल में आने वाले छोटे बच्चों की मदद करनी चाहिए या फिर बड़े-बुजुर्गों का आदर करना चाहिए.

इसी बीच स्कूल में ऐसी घटना हुई कि बच्चों ने बंधुता की भावना को अपने व्यवहार में भी उतारा. पीबी कोली बताती हैं, ‘यह साल 2018 के अक्टूबर या नवंबर की बात है, चौथी की एक बच्ची चित्रा (परिवर्तित नाम) नंगे पैर स्कूल आती-जाती थी. एक दिन स्कूल आते समय उसके पैरों में कांटा चुभ गया. तब चौथी के ही उसके सहपाठियों ने उसके पैर से कांटा निकाला. फिर अगले दिन पुरानी चप्पलों को जोड़-तोड़कर उसके लिए पहनने लायक एक चप्पल तैयार की और वह चप्पल उस बच्ची को गिफ्ट किया. वह बहुत भावुक समय था. उसके बाद वह बच्ची भी रोज़ स्कूल आने-जाने लगी.’

उस दिन कई बच्चों के मन में यह बात घर कर गई कि उन्हें इसी तरह के अन्य बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए. इसके बाद, इस स्कूल के बच्चों ने ठाना है कि उनका कोई भी दोस्त नंगे पैर स्कूल नहीं आएगा. इस बारे में शिक्षिका बीएन टोके बताती हैं कि इस स्कूल में मज़दूर परिवारों के करीब एक दर्जन ऐसे बच्चे हैं, जिनके अभिभावक पैसों के अभाव में अपने बच्चों के लिए चप्पल तक नहीं दिला सकते हैं. ऐसे में हमारे स्कूल के ही बच्चों ने अपने-अपने घरों से टूटी और पुरानी चप्पले कक्षा में जमा करना और फटी जींस के पैंट से पतले-पतले बेल्ट काटकर उन्हें चप्पलों के तले से फिट करना शुरू किया. बच्चे जब अनुपयोगी चप्पलों से दोबारा उपयोग करने लायक चप्पल बनाते हैं तो कई बार शिक्षक या शिक्षिकाएं चप्पल की सिलाई करने में बच्चों की मदद भी करते हैं.

5वीं के छात्र दर्शन सोनवणे ने बताया कि अपने दोस्तों के लिए चप्पलें तैयार करने के कारण उसके बर्ताव में परिवर्तन आया है. वह कहता है, ‘इससे मेरे जैसे बच्चों में शिष्टाचार बढ़ा है. सभी बच्चे जूते-मोजे, या चप्पल पहनकर आ रहे हैं, इसलिए वे स्कूल की यूनिफॉर्म भी पहनकर आ रहे हैं.’

चौथी का छात्र प्रथमेश भोर का कहना है कि सभी बच्चे अपने जूते और चप्पल अच्छी तरह से उपयोग करते हैं और उन्हें संभालकर रखते हैं. तीसरी के आदित्य डोभाल की सुनें तो स्कूल में हर बच्चे के पास चप्पल या जूता होना ही चाहिए. पूछने पर वह कहते हैं, ‘इससे पढ़ाई भी अच्छी होती है. चप्पल ही नहीं, हर बच्चे के पास बस्ता, सभी किताबें और पढ़ाई का पूरा सामान भी होना चाहिए.’


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बच्चे अन्य कामों में भी बने मददगार

जीआर तेली के अनुसार, स्कूल द्वारा किए गए कुछ व्यावहारिक प्रयासों के कारण बच्चों में बंधुता की भावना आई है. इसलिए वे स्कूल के हर काम में मदद कर रहे हैं. जैसे, कुछ महीने पहले स्कूल के मुख्य गेट के सामने एक बहुत बड़ा गड्ढा था. इस वर्ष (2019)  बरसात के दिनों में गड्ढे में जब पानी भर गया तो स्कूल आने-जाने वाले कई बच्चे या तो उसमें गिर जाते थे, या उसे पार करते समय उनके कपड़े गंदे पानी और कीचड़ लगने से खराब हो जाते थे. इसलिए,  सभी ने मिलकर मिट्टी से गड्ढा भरने का निर्णय लिया. उन्होंने स्कूल परिसर के बाहर से मिट्टी ला-लाकर वह गड्ढा भर दिया और उस जगह को समतल बना दिया.

यह स्कूल आगे क्या परिवर्तन लाना चाहता है? इस प्रश्न के उत्तर में जीआर तेली कहते हैं, ‘जिस तरह से हमने बच्चों के व्यवहार को बदला है, हम चाहते हैं कि गांव वालों में भी स्कूल के प्रति उसी तरह से बंधुता की भावना विकसित हो,  ताकि वे अभावग्रस्त बच्चों की शिक्षा के लिए काम आने वाली सभी चीजों को उपलब्ध कराने में हमारी मदद करें.’

(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं.)

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