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Wednesday, 25 December, 2024
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चमलियाल मेला : क्या इस बार मिलेगा पाकिस्तान को ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ का प्रसाद

सांप्रदायिक सोहार्द की अद्भुत मिसाल माने जाने वाली इस दरगाह पर हिन्दू व मुसलमान और भारतीय व पाकिस्तानी की समान रूप से गहरी आस्था है.

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भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में जारी कड़वाहट के बीच हर वर्ष लगने वाले बाबा चमलियाल के मेले (उर्स) के आयोजन का वक्त आ गया है. बड़ा सवाल है कि क्या इस बार पाकिस्तानी श्रद्धालुओं को बाबा दिलीप सिंह मन्हास की दरगाह का ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ का ‘प्रसाद’ मिल सकेगा? और क्या पाकिस्तान की ओर से दरगाह पर ‘चादर’ चढ़ाई जाएगी ?

लगभग, 321 वर्ष पुराने चमलियाल के मेले (उर्स) का आयोजन हर साल जून महीने के चौथे वीरवार को होता है, इस बार यह मेला वीरवार, 27 जून को संपन्न होने जा रहा है. जम्मू कश्मीर प्रशासन व सीमा सुरक्षा बल की तरफ से मेले के लिए तैयारिया की जा रही हैं पर अभी तक यह साफ नहीं है कि इस बार भी मेले में पाकिस्तान की शिरकत हो पाएगी या नही. जिला उपायुक्त विकास गुप्ता की देखरेख में मेले की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है और लगातार बैठकों का दौर जारी है.

लेकिन अभी तक स्थानीय स्तर पर किसी अधिकारी पाकिस्तान की शिरकत को लेकर कोई जानकारी नहीं है. हर बार मेले से पहले सीमा सुरक्षा बल और पाकिस्तानी रेंजर्स के बीच होने वाली ‘फ्लैग मीटिंग’ के बारे में भी अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है.

चमलियाल मेले का दृश्य । मनु श्रीवत्स

जम्मू से लगभग 50 किलोमीटर दूर सांबा जिले के रामगढ़ सेक्टर में चमलियाल में भारत-पाक अंतराष्ट्रीय सीमा पर लगभग जीरो लाईन पर ही बाबा दिलीप सिंह मन्हास की दरगाह स्थित है. यह दरगाह बाबा चमलियाल के नाम से मशहूर है. सांप्रदायिक सोहार्द की अद्भुत मिसाल माने जाने वाली इस दरगाह पर हिन्दू व मुसलमान और भारतीय व पाकिस्तानी की समान रूप से गहरी आस्था है.

गत वर्ष रद्द हो गया था मेले का आयोजन

गत वर्ष मेले से मात्र दस ही दिन पहले पाकिस्तान द्वारा रामगढ़ क्षेत्र में ही भारी गोलीबारी की गई थी. जिस कारण सीमा सुरक्षा बल के एक असिस्टेंट कमांडेट सहित चार जवान शहीद हो गए थे. इस घटना को देखते हुए सुरक्षा कारणों से चमलियाल मेले को रद्द कर दिया गया था. स्थानीय श्रद्धालुओं को भी दरगाह से दूर रखा गया और मेले को प्रतीकात्मक तौर पर मनाया ही गया था.


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यह 1947 के बाद पहला मौक़ा था जब चमलियाल मेले को रद्द किया गया था. पाकिस्तान की ओर से दरगाह पर चढ़ाई जाने वाली ‘चादर’ को भी पिछले साल चढ़ाने की इजाज़त नही दी गई थी और न ही पाकिस्तानी श्रद्धालुओं के लिए ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ सीमा पार भेजी गई थी.

क्या है ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ ?

मान्यता के अनुसार चमलियाल की दरगाह के कुएं के पानी को ‘शरबत’ कहा जाता है. जबकि दरगाह की मिट्टी की पहचान ‘शक्कर’ के रूप में है. ऐसा विश्वास है कि ‘शरबत’ व ‘शक्कर’  के इस्तेमाल से त्वचा के हर प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं. ‘शरबत’ व ‘शक्कर’  को ही दरगाह का ‘प्रसाद’ माना जाता है.

चमलियाल की दरगाह का इतिहास

कहा जाता है कि वर्षों पहले बाबा दिलीप सिंह मन्हास के एक शिष्य को एक बार ‘चम्बल’ नामक चर्म रोग हो गया था. बाबा ने अपने शिष्य को कुएं के ‘पानी’ तथा ‘मिट्टी’ का लेप शरीर पर लगाया. प्रचलित कथा के अनुसार बाबा द्वारा दिए गए ‘पानी’ व ‘मिट्टी’ के प्रयोग से बाबा का शिष्य जल्दी ही स्वस्थ हो गया.

इस घटना के बाद बाबा दिलीप सिंह मन्हास की आसपास के इलाकों में प्रसिद्धि बढ़ने लगी और लोग अपना इलाज करवाने बाबा के पास आने लगे. दंतकथा के अनुसार बाबा की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए गांव के एक व्यक्ति ने ईर्ष्यावश बाबा का गला काट कर उनकी हत्या कर दी.

कहा जाता है कि हत्या के बाद बाबा दिलीप सिंह मन्हास का शरीर सेदांवाली गांव (अब पाकिस्तान) में मिला जबकि कटा सिर चमलियाल से मिला. बाद में चमलियाल में उनकी समाधि (मज़ार) बनाई गई जो भारत-पाकिस्तान अंतराष्ट्रीय सीमा पर जीरो लाइन के करीब सीमा सुरक्षा बल की चौकी से सटी हुई है.

उधर, सेदांवाली गांव (अब पाकिस्तान) में जिस जगह से बाबा दिलीप सिंह मन्हास का शरीर मिला था, वहां भी हर साल बाबा के सम्मान में उर्स का आयोजन होता है.

जून महीने में लगने वाले सलाना मेले के अलावा देश भर से हर रोज़ लोग अपने चर्म रोगों का उपचार करवाने तथा मन्नत
मांगने के लिए भी चमलियाल आते रहते हैं.

अथाह आस्था है पाक नागरिकों को

एक-आध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो देश विभाजन से लेकर हर वर्ष भारत-पाक अंतराष्ट्रीय सीमा पर लगने वाले बाबा चमलियाल के मेले में पाकिस्तानी श्रद्धालुओं की ओर से ‘चादर’ चढ़ाई जाती रही है और बिना किसी रुकावट के भारत की तरफ से पाकिस्तानी श्रद्धालुओं के लिए ‘शरबत’ व ‘शक्कर’  का ‘प्रसाद’ सीमा पार भेजा जाता रहा है.

गौरतलब है कि 1971 से पहले तक पाकिस्तानी नागरिकों को बाबा चमलियाल की दरगाह तक आने दिया जाता था. मगर, 1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद से पाकिस्तानी नागरिकों को मेले में आने की इजाज़त नहीं दी जाती है. अलबत्ता पाकिस्तानी श्रद्धालुओं की भावनाओं को देखते हुए भारत की ओर से पाकिस्तानी रेंजर्स को मज़ार पर ‘चादर’ चढ़ाए जाने की इजाज़त दी जाती रही है.

फाइल फोटो : पाकिस्तानी रेंजर्स हाथ हिलाकर अभिवादन करते हुए.

अब पाकिस्तानी रेंजर्स द्वारा ही पाकिस्तानी श्रद्धालुओं की ओर से बाबा की मज़ार पर चादर चढ़ाई जाती है. ‘चादर’ चढ़ाए जाने के बाद सीमा सुरक्षा बल द्वारा पाकिस्तानी श्रद्धालुओं के लिए पाकिस्तानी रेंजर्स को ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ का प्रसाद उपलब्ध करवाया जाता है, जिसे अपने क्षेत्र में लौटने पर पाकिस्तानी रेंजर्स अपने नागरिकों में बांट देते हैं.

पाकिस्तानी रेंजर्स अपने साथ ट्रेक्टर ट्रालियों को लेकर आते हैं. जिनमें भरकर ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ को पाकिस्तान के श्रद्धालुओं के  लिए सीमा पार ले जाया जाता है. पाकिस्तान के श्रद्धालुओं की मांग के मुताबिक ही उन्हें ‘प्रसाद’ की आपूर्ति की जाती है.

सीमा पार पाकिस्तान के सेदांवाली गांव में लोग तीन दिन तक मेले का आयोजन करते हैं और भारत की ओर से आने वाली ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ का उस पार बेसब्री से इन्तजार रहता हैं. पाकिस्तान रेंजर्स द्वारा भारत से बाबा की दरगाह से लाई गई ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ के पाकिस्तानी श्रद्धालुओं में वितरित होने के बाद ही पाकिस्तान में मेले को सपंन्न माना जाता है.

सीमा पार से पाकिस्तानी श्रद्धालु सेदांवाली गांव से ही बाबा की मज़ार के दीदार कर दुआ पढ़ते हैं. सीमा पार उत्साहित पाक श्रद्धालुओं को भारतीय सीमा की ओर बढ़ने से रोकने के लिए कईं बार पाक रेजंर्स के जवानों को बेहद कठिनाई का सामना भी करना पड़ता है.

साझी विरासत है बाबा चमलियाल की दरगाह

भारत व पाकिस्तान सीमा पर चाहे शांति हो या फिर तनाव, सबके बीच हर वर्ष जून के चौथे वीरवार को चमलियाल मेले के लिए सीमा के दोनों ओर लोगों का एकत्रित होना साफ दर्शाता है कि किस तरह से दोनों मुल्कों के लोगों के लिए इस साझी विरासत का आज भी गहरा अर्थ व महत्व है. चमलियाल मेले को लेकर आज भी दोनों तरफ के लोग बेहद संवेदनशील व भावुक हैं. लेखक भारत भूषण शर्मा कहते हैं कि चमलियाल मेला हमारी साझा संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है.

दरगाह का दृश्य । मनु श्रीवत्स

हर वर्ष लगने वाले बाबा चमलियाल मेले को सरहद के दोनों ओर के लोग बड़ी श्रद्धा व जोश के साथ वर्षों से मनाते आ रहे हैं और इस दौरान सरहद पूरी तरह से ‘एक’ हो जाती है, कुछ देर के लिए सीमा के सभी बंधन टूट भी जाते हैं.

सीमा के दोनों ओर से बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की आस्था व भक्ति में कभी कोई कमी आती दिखाई नहीं दी है. रामगढ निवासी 70 वर्षीय प्रेम लाल बताते हैं कि उन्होंने हर साल दरगाह पर श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ते ही देखी है.

कईं वर्षों से दरगाह पर हाजिरी लगाते आ रहे प्रेम लाल का कहना है कि सीमा पार भी श्रद्दालुओं की श्रद्धा में कोई कमी उन्हें देखने को नही मिली है. सीमा सुरक्षा बल के अधिकारियों का भी कहना है कि पाकिस्तान की ओर से भी ‘शरबत’ व ‘शक्कर’ की मांग गत कुछ वर्षों से बढ़ी है.


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हर साल लगभग दो लाख भारतीय श्रद्धालु बाबा की मज़ार पर शीश नवाते हैं. लगभग इतनी ही संख्या में श्रद्धालु सीमा पर पाकिस्तानी क्षेत्र में भी इक्टठा होते हैं.

बाबा चमलियाल की दरगाह को लेकर दोनों देशों के श्रद्धालुओं की भक्ति व विश्वास में कोई अंतर नही है. फ़र्क मात्र ‘दरगाह’ और ‘मज़ार’ का है या फिर इतना भर अंतर है कि भारतीय श्रद्धालु बाबा की दरगाह पर होने वाले आयोजन को ‘मेला’ कहते हैं जबकि सीमा पार, पाकिस्तान में इसे ‘उर्स’ कहा जाता है.

(लेखक जम्मू कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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