हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था तथा पाठशालाएं अंग्रेजों ने प्रारंभ कीं, ऐसा कहा जाता है. अंग्रेजों के आने के पहले देश में शिक्षा के मामले में अंधकार ही था, ऐसा भी बताया जाता है, किंतु सत्य परिस्थिति क्या थी? अंग्रेजों और मुस्लिम आक्रांताओं के आने के पहले भारत में जो शिक्षा पद्धति थी, उसका मुकाबला संसार में कही भी नहीं था. अत्यंत व्यवस्थित पद्धति से रची गई भारतीय शिक्षा व्यवस्था, सभी आवश्यक क्षेत्रों में ज्ञान एवं प्रशिक्षण प्रदान करती थी.
विश्व का पहला विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी) तक्षशिला भारत में प्रारंभ हुआ. उन दिनों भारत में ‘अनपढ़’ जैसा कोई शब्द प्रचलन में नहीं था. आज हमारे बच्चे पढ़ाई करने विभिन्न देशों में जाते हैं. उस समय विभिन्न देशों के बच्चे पढ़ने के लिए भारत में आते थे. एक भी भारतीय युवा उन दिनों पढ़ने के लिए विदेश में नहीं जाता था.
एक परिपूर्ण शिक्षा पद्धति भारत में काम कर रही थी. लड़के/लड़कियों को साधारण आठ वर्ष की आयु तक घर पर ही शिक्षा दी जाती थी. आठवें वर्ष में लड़कों का उपनयन संस्कार करके उन्हें गुरु के पास अथवा गुरुकुल में भेजने की परंपरा थी. ‘गुरु’ शब्द का अर्थ केवल ‘संस्कृत भाषा की शिक्षा देनेवाले ऋषि’ नहीं होता था. ‘गुरु’ अपने किसी विशिष्ट क्षेत्र का दिग्गज होता था.
समुद्र किनारे रहनेवाले परिवारों के बच्चे जहाज निर्माण करनेवाले अपने ‘गुरु’ के पास रहकर जहाज निर्माण की प्रत्यक्ष शिक्षा ग्रहण करते थे. यही परंपरा भवन निर्माण, लुहारी, धनुर्विद्या, मल्लविद्या जैसी भिन्न–भिन्न कलाओं को सीखने के बारे में भी लागू थी. अगले 8–10 वर्षों तक गुरु के यहाँ शिक्षा ग्रहण करने के बाद इनमें से कुछ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों में जाते थे. इन विश्वविद्यालयों में विभिन्न शास्त्रों और कलाओं को सिखाने की व्यवस्था थी.
स्त्रियों को भी उच्च शिक्षा देने की पद्धति और परंपरा थी. ऋग्वेद में स्त्री शिक्षा के बारे में कई उल्लेख मिलते हैं. प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करनेवाली बालिकाओं को ‘ऋषिका’ और उच्च शिक्षित स्त्रियों को ‘ब्रह्मवादिनी’ कहा जाता था. पाणिनि ने अपने ग्रंथ में लड़कियों की शिक्षा के बारे में लिखा है. छात्राओं के लिए छात्रावास (हॉस्टल) भी बनाए जाते थे. इसके लिए पाणिनि ने ‘छत्रिशाला’ शब्द का उपयोग किया है.
विश्वविद्यालयों में शिक्षा–सत्र प्रारंभ होने तथा सत्र समाप्त होने के समय बड़ा उत्सव होता था. सत्रारंभ उत्सव को ‘उपकर्णमन’ तथा सत्र समाप्ति पर होनेवाले उत्सव को ‘उत्सर्ग’ कहा जाता था. उपाधि (डिग्री) प्रदान किए जानेवाले उत्सव को ‘समवर्तना’ कहा जाता था.
‘हारून-अल-रशीद’ नाम का अरबी कथाओं का नायक (वर्ष 754 से 849) बगदाद में राज करता था. इस हारून-अल-रशीद ने और अरबी सुलतान अल मंसूर ने भारतीय विश्वविद्यालयों से प्रतिभाशाली युवाओं को लाने के लिए अपने विशेष दूत भेजे थे. यह था विश्व का पहला ‘कैंपस इंटरव्यू’, 1200 वर्ष पहले! किंतु लगभग नौ सौ वर्ष पहले, जब मुसलिम आक्रांताओं का आक्रमण होता गया, तब परिस्थिति बदली. बख्तियार खिलजी जैसे अनपढ़ और खूँखार सरदार ने नालंदा समेत अधिकतर विश्वविद्यालय नष्ट कर दिए. हमारी ज्ञान-परंपरा खंडित हो गई तो हमने समझा हमारी सारी शिक्षा व्यवस्था ठप्प हो गई.
किंतु ऐसा नही था. मुसलिम आक्रांताओं ने हमारे बड़े, छोटे विश्वविद्यालय ध्वस्त किए. अनेक गुरुकुल जला दिए, लेकिन उनके पास कोई शिक्षा का समानांतर मॉडल थोड़े ही था. उनके पास तो शिक्षा का ही मॉडल नही था. वे खैबर के दर्रे के उत्तर–पश्चिम में स्थित अनेक कबाइलियों में से थे.
ये कबाइली अनपढ़, गँवार, खूँखार, लेकिन अपने धर्म के प्रति अत्यधिक कट्टर थे. कट्टरता के इसी जुनून ने उन्हें भारत में सत्ता दिलाई, लेकिन इस विशाल देश में प्रशासन चलाने का कोई विशेष ज्ञान या कोई व्यवस्था उनके पास नही थी. आज जिसे हम मुगल आर्ट और मुगल स्थापत्य कहते हैं, वह मूलतः भारतीय स्थापत्य ही है, जो इसलामी राजाओं के लिए या इसलामी व्यवस्था के लिए बनाया गया है. यदि यह वास्तुकला इन आक्रांताओं के पास होती, तो इस शैली के अनेक वास्तु हमें भारत के बाहर, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, किरगिस्तान, उज्बेकिस्तान आदि में मिलते, किंतु ऐसा नही है.
इसलिए बड़े विश्वविद्यालय न सही, किंतु प्राथमिक/माध्यमिक स्तर की शालाओं का जाल सारे देश में था. जहाँ हिंदू राजा मांडलीक के रूप में थे, वहाँ उन्होंने शालाएँ बनवाई और चलवाईं.
अंग्रेज जब भारत में हुकूमत करने की स्थिति में आए, तो उन्होंने सबसे पहले भारत की शिक्षा प्रणाली का सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षण की रिपोर्ट इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और कुछ अंशों में भारत में भी उपलब्ध है. ये सारी रिपोर्ट सनसनीखेज हैं. हमारी सारी मान्यताओं को और हमें आज तक पढ़ाए गए इतिहास को झुठलाने वाली ये सब रिपोर्ट्स हैं.
सन् 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का बंगाल पर कब्जा हो गया, जब उन्होंने अपना प्रशासन तंत्र अमल में लाने का प्रयास किया तो उन्हें पता चला कि पूरे बंगाल में कर वसूली लायक भूभाग में से 34 प्रतिशत जमीन से कोई कर वसूली नहीं होती है. इसका कारण है, कि ये सारी जमीन पाठशालाओं के लिए है. इसको देखते हुए अंग्रेजों ने (अर्थात् ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने) उनका शासन जहाँ था, ऐसे क्षेत्रों में शिक्षा का सर्वेक्षण करने की योजना बनाई.
(‘विनाशपर्व अंग्रेजो का भारत पर राज’ प्रभात प्रकाशन से छपी ये किताब पेपर बैक में 250₹ की है.)
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