नई दिल्ली: देश में जब-जब 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की बात होगी और इस युद्ध के जीत का जिक्र किया जाएगा, तो बिना सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ उर्फ़ ‘सैम बहादुर’ का नाम लिए बिना ये कहानी अधूरी ही रह जाएगी.
सैम मानेकशॉ को अगर 1971 के भारत पाकिस्तान के युद्ध का हीरो माना जाता है. उनके व्यक्तित्व, वीरता, सेना में जोश भरने का तरीका और बात करने के अंदाज़ के बारे में जब भी हम पढ़ते या सुनते हैं, तो यह सारी कहानियां, किस्से उनके बारे में थोड़ा और जानने की इच्छा जगा देती है.
भारत के सबसे फेमस युद्ध जनरल और फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की बायोपिक सैम बहादुर 1 दिसंबर से उनसे जीवन से जुड़ी कहानियां हमें पहली बार बड़े पर्दे पर दिखाई देंगी. यह फिल्म सेना नायक मानेकशॉ के जीवन के शुरुआत से लेकर उनके रिटायरमेंट तक की कहानी को पिरोता है.
सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में हुआ था. सैम के पिता होर्मुसजी मानेकशॉ डॉक्टर थे. सैम अपने ने पिता के खिलाफ जाकर जुलाई 1932 में भारतीय सैन्य अकादमी को ज्वाइन किया और दो साल बाद 4/12 फ्रंटियर फोर्स रेजीमेंट में भर्ती हुए.
मानेकशॉ और इंदिरा गांधी से जुड़े कई दिलचस्प किस्से किताबों या फिर इंटरव्यू में भी सुनाए गए हैं और इसी की बहुत दिलचस्प झलक हमें फिल्म में भी देखने को मिलती है. सैम की पत्नी सिलू मानेकशॉ का इंदिरा गांधी और सैम की बढ़ती बातचीत को लेकर उनके जलन को दिखाया गया है. सिलू का सैम से से इंदिरा से साथ उनकी पहली मुलाकात के बारे में पूछने का अन्ताज़ कि “कैसी दिखती है”, और सैम का उत्तर देना कि “शी ड्रेस्ड वेल” इस जलन को थोड़ा और दिलचस्प बना देता है.
सैम को 8 गोरखा राइफल्स के सैनिकों द्वारा ‘सैम बहादुर’ नाम दिया गया था.
मानेकशॉ को 59 साल की उम्र में फील्ड मार्शल की उपाधि से नवाजा गया था. 1972 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया, जिसके एक साल बाद 1973 में वह सेना प्रमुख के पद से रिटायर हो गए थे. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने अपने रहने के लिए तमिलनाडु को चुना और अपने आखिरी दिन उन्होंने वेलिंग्टन में ही बिताया, जिसके बाद वर्ष 2008 में उनका निधन हो गया.
सैम का मज़ाकिया अंदाज़ और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर सभी को प्यार से स्वीटी बुलाने की उनकी आदत आपको फिल्म के बीच बीच में गुदगुदाती जरूर रहेगी लेकिन आप खुलकर हंसने की वज़ह नहीं ढूंढ पाएंगे.
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कहां कमज़ोर पड़ी फिल्म
फिल्म में मुख्य किरदार में सैम की पत्नी सिलू मानेकशॉ के रूप में अभिनेत्री सान्या मल्होत्रा, इंदिरा गांधी के रूप में फातिमा सना शेख, जवाहरलाल नेहरू के रूप में नीरज काबी, सरदार वल्लभ भाई पटेल के रूप में गोविंद नामदेव याह्या खान के रूप में मोहम्मद जीशान अय्यूब नज़र आते हैं.
मेघना गुलज़ार निर्देशित इस फिल्म में विक्की कौशल ने मानेकशॉ का रोल प्ले किया. जिसमें उनके बात करने, चलने और आंखों को देखकर आपको एक पल के लिए लगेगा कि आप असली सैम को ही पर्दे पर देख रहे हैं. जिसके बाद आप इस फिल्म को और गहराई से देखना चाहेंगे, सैम के बारे में, उनके मिशन, उनके पर्स्नल लाइफ के बारे में और जानना चाहेंगे, लेकिन फिल्म आपको ये सब परोसने में कही न कही चूक जाती है. विक्की कौशल के लुक, सैम के अंदाज़ को अपनाना डायरेक्टर अच्छे से इस्तेमाल नहीं कर पाए. ऐसा लगता है डायरेक्टर के पास सभी सामग्री तो उपलब्ध थी, लेकिन फिर भी वो एक अच्छी डिश सर्व नहीं कर पाए. इंदिरा गांधी के रूप में फातिमा सना शेख का रोल दर्शकों को आकर्शित करने में पूरी तरह से विफल रहा है.
1962 में सैम मानेकशॉ के खिलाफ कई फर्जी आरोपों की जांच के लिए एक कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी शुरू की गई थी. उस समय सैम मेजर जनरल के पद पर वेलिंगटन में डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज के कमांडेंट के रूप में कार्यरत थे.
कई सेवारत सेना अधिकारियों ने उस पूछताछ में गवाही दी और अधिकांश ने सैम के पक्ष में बात की, जिसके बाद लेफ्टिनेंट जनरल दौलेट सिंह ने सैम को सभी आरोपों से मुक्त कर दिया.
फिल्म में सैम मानेकशॉ और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति याह्या खान की दोस्ती, फौज में एक साथ काम करना और फिर पाकिस्तान-भारत के बंटवारे के बाद दोनों का अलग होना भी दिखाया गया. उनके एक बहुत ही दिलचस्प और फेमस किस्से को फिल्म में दिखाया गया है किस तरह देश का बंटवारा हुआ तो याह्या खान पाकिस्तान फौज में चले गए. वहीं, मानेकशॉ भारत में रहे. लेकिन याह्या खान ने जाते-जाते मानेकशॉ से ली हुई उनकी मोटरसाइकिल के 1000 रुपए में नहीं चुकाए. जिसका जिक्र पाकिस्तान से जंग जीतने के बाद सैम करते है.
फिल्म में जहा एक तरफ मेघना गुलज़ार के डायरेक्शन की कमी लगी तो वही दूसरी और बजट का कम होना भी साफ़ नज़र आया. किसी भी सेना से जुड़े व्यक्ति या फिर भारतीय सेना पर कोई फिल्म बनती है तो उसका मेन एलिमेंट युद्ध या फिर हमारी सेना की बहादुरी को दिखाना होता हैं, जिसकी इस फिल्म में पूरी कमी नज़र आई. ‘सैमबहादुर’ में सेना से जुड़े सीन्स को शूट ही नहीं किया गया, इसके बजाय 1971 युद्ध के पुराने क्लिप्स जोड़े गए है. जिसे बड़े पर्दे पर इस तरह किसी बायोपिक में देखना थोड़ा निराशाजनक होता है.
फिल्म की शुरुआत और अंत की बात करें तो फिल्म सैम के पालने के सीन से शुरू होती है और रिटायरमेंट पर ख़त्म. लेकिन इस बीच उनके जिस सफर को दर्शक देखना या फिर यूं कहे कि थोड़ा गहराई और तस्सल्ली से देखना चाहते थे उसे नहीं देख पाए. दर्शक फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के बारे में थोड़ा और जानना चाहते थे, जो शायद नहीं जान पाए. देश के फील्ड मार्शल के रूप में विक्की कौशल दर्शकों में इस बार जोश भरने में विफल रहे.
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