70 के दशक का बॉलीवुड अपने बेहतरीन फिल्मों और फैशन के नए तरीकों के कारण जाना जाता है. इस दशक में कई प्रसिद्ध चेहरे फिल्म इंडस्ट्री में आए. ज्यादातर लोग हीरो बनने के लिए इससे जुड़े. लेकिन इतने सारे लोगों में से एक स्टार निकल कर आया.
विनोद खन्ना ने अपने शुरुआती समय में विलेन की भूमिका निभाने का साहस उठाया. खन्ना को सिनेमा के साथ-साथ राजनीति में भी अहम स्थान मिलता गया. उनकी जयंती पर दिप्रिंट उनकी अभिनेता की जिंदगी, ओशो से जुड़ाव और उनकी राजनीति को याद कर रहा है.
विनोद खन्ना का जन्म 6 अक्टूबर 1946 को पेशावर के पंजाबी हिंदू परिवार में हुआ था. बंटवारे के बाद उनका परिवार भारत आ गया. इस बीच वो कुछ दिन मुंबई और दिल्ली में भी रहें. मुंबई के सिडेनहैम कॉलेज से उन्होंने कामर्स में स्नातक किया.
एक पार्टी के दौरान उन्हें सुनील दत्त मिले. उन्होंने खन्ना को फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव दिया. जिसके बाद सुनील दत्त के भाई सोम दत्त अभिनीत फिल्म मन का मीत (1968) में उन्हें बतौर खलनायक काम मिला.
1970 में आई आन मिलो सजना, 1971 में मेरा गांव मेरा देश में एक डकैत का अभिनय, 1973 में कच्चे धागे और 1982 में राजपूत में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया.
सिनेमा में लीड रोल मिलने से पहले कई सितारों की मौजूदगी वाली फिल्में विनोद खन्ना ने की. जिसमें अमर अकबर एंथोनी (1977), बर्निंग ट्रेन (1980), एक और एक ग्यारह (1981) और मुकद्दर का सिकंदर (1978) शामिल है.
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विनोद खन्ना ने अमिताभ बच्चन के साथ कई फिल्में की है. अमिताभ उस वक्त अपने कैरियर के शिखर पर थे. दोनों लोगों के बीच खटास की कई खबरें भी आई. लेकिन, खन्ना हमेशा कहते थे कि अमिताभ उनके अच्छे दोस्त हैं.
ओशो की पुकार
दशकों तक सिनेमा की दुनिया से जुड़े रहने के बाद खन्ना कुछ पाने के लिए अपने धार्मिक गुरू रजनीश (ओशो) के पास चले गए थे. खन्ना अमेरिका में ही रहने लगे थे. इस बारे में उनकी पत्नी गीतांजलि उनसे सहमत नहीं थी. ओशो के पास से 5 सालों के बाद विनोद खन्ना वापस लौटे. लेकिन, काफी समय बीत चुका था और जिसके बाद उनका गीतांजलि से तलाक हो गया.
काफी दिनों तक फिल्म इंडस्ट्री से दूर होने के बाद भी उनकी अदाकारी पर कोई फर्क नहीं पड़ा था. 5 सालों के बाद हुई वापसी के बाद उन्होंने दो हिट फिल्में दी. एक का नाम- इंसाफ और दूसरी फिल्म सत्यमेव जयते थी. 1987 में भारत लौटने के बाद ही ये दोनों फिल्में बनी थी.
एक सफल राजनेता
विनोद खन्ना 1997 में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए थे. गुरुदासपुर लोकसभा सीट से 1998 में वो संसद में चुन कर आए थे. 1999 में हुए चुनाव में खन्ना फिर से संसद में चुन कर आए और उन्हें 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय संस्कृति और पर्यटन मंत्री बना दिया गया. इसके छह महीने के बाद खन्ना विदेश मंत्रालय भी पहुंचे जहां उन्हें विदेश राज्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया. 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में खन्ना चुनाव हार गए थे. लेकिन 2014 में वो फिर से संसद में चुन कर आए. उनसे पहले कोई और बॉलीवुड नेता नहीं हुआ है जो चार बार संसद पहुंचा हो.
डीहाइड्रेशन की परेशानी के कारण 2017 में उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था. उसी साल उनकी मृत्यु हो गई थी. बाद में पता चला कि उन्हें ब्लेडर कैंसर था.
उनकी 73वें जन्मदिन पर आइए उनकी पांच बेहतरीन फिल्मों पर नज़र डाली जाए.
मेरे अपने (1971): इस फिल्म का निर्देशन गुलजार ने किया था. निर्देशक के तौर पर ये उनकी पहली फिल्म थी. इसमें अभिनेता के तौर पर उन्होंने विनोद खन्ना को लिया. बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे युवाओं के नेता के तौर पर खन्ना इस फिल्म में भूमिका निभा रहे थे. जिनका इस फिल्म में एक युवा लड़की से भी नज़दीकी रिश्ता था.
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अमर अकबर एंथोनी (1977): खन्ना और अमिताभ बच्चन की जुगलबंदी वाली ये फिल्म काफी चर्चित है. इस फिल्म में ऋृषि कपूर भी हैं जो खन्ना और अमिताभ बच्चन के भाई होते हैं.
मुकद्दर का सिकंदर (1978) : इस फिल्म में अमिताभ बच्चन के मुख्य भूमिका में रहने के बावजूद विनोद खन्ना ने अपनी अदाकारी से सबका ध्यान अपनी ओर खींचा. इस फिल्म में उन्होंने वकील की भूमिका निभाई थी जिसने सिकंदर(अमिताभ) की जान बचाई थी.
परवरिश (1977): इस फिल्म में भी अमिताभ और विनोद खन्ना का जोड़ी थी. इस फिल्म में दोनों भाई होते हैं. खन्ना इस फिल्म में एक विरोधी किरदार निभाते हैं जो ये मानता है कि उसे गोद लिया गया है. इसलिए वो अपराध की दुनिया में चला जाता है.
हाथ की सफाई (1975): इस फिल्म का निर्देशन प्रकाश झा ने किया है. विनोद खन्ना और रंधीर कपूर इस फिल्म में भाई होते हैं जो बचपन में ही बिछड़ जाते हैं. खन्ना ने इस फिल्म में अपराध की दुनिया के बादशाह का किरदार निभाया है.
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