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Saturday, 16 November, 2024
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आनंदीबेन जोशी जिसने अपने 14 दिन के बच्चे की मौत के बाद ठाना की वह देश में किसी को असमय नहीं मरने देंगी

समाज में बढ़ते विरोध के बाद आनंदी ने कहा मैं सिर्फ डॉक्टरी की शिक्षा के लिए अमेरिका जा रही हूं, मेरी इच्छा नौकरी करने की नहीं बल्कि लोगों की जान बचाने की है.

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नई दिल्ली: पढ़ना लिखना तो महिलाओं के लिए भारत में कभी आसान नहीं था. हां अपनी रूचि के अनुसार राजा-महाराजा और बड़े परिवार वाले बेटियों को अस्त्र-शस्त्र का ज्ञान दिया करते थे. लेकिन आज हम बताएंगे कि उस जमाने में जब महिलाओं को बचपन में ही ब्याह दिया जाता था आनंदीबेन जोशी को कैसे गर्व प्राप्त हुआ देश की पहली महिला डॉक्टर बनने का और कैसे वह अपनी पढ़ाई को पूरा करने सात समंदर पार भी पहुंची. और उनके इस सपने में साथ था भारतीय समाज.

आज महिलाओं की गिनती आधी आबादी के रूप में की जाती है…पर्दे और घर की चारदिवारी से बाहर निकलकर महिलाएं अंतरिक्ष तक पहुंच चुकी हैं..विज्ञान का क्षेत्र हो या शासन का महिलाएं हर जगह अपना परचम लहरा रही हैं. वैसे आंकड़े जो भी कहते हों लेकिन भारत में महिलाओं की स्थिति पहले से बेहतर हो चुकी है. महिलाएं अपनी आवाज बुलंद कर रही हैं लेकिन 18 वीं शताब्दी में शायद ही महिलाएं घर से बाहर निकलती थीं, या शिक्षा थी भी तो कुछ गिने चुने परिवारों तक ही सिमित थी. आठ और नौ साल की बच्चियों की शादी कर दी जाती थी. ऐसी परिस्थिति में इक्का दुक्का ही नाम सामने आता है जिसने न केवल देश में पढ़ाई की हो बल्कि विदेश जाकर भी पढ़ाई की हो. ऐसी ही एक भारतीय महिला हैं आनंदीबाई गोपाल जोशी. 14 साल की उम्र में अपने नवजात को खो चुकी इस किशोरी बाला ने तय किया था कि वह डॉक्टर बनेगी और वह सात समंदर पार जाकर डॉक्टर बनी लेकिन 22 साल की उम्र में ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

आनंदीबाई जोशी का जन्म 31 मार्च 1865 को पुणे में हुआ था. फिलहाल पुणे का वो हिस्सा कल्याण महाराष्ट्र के थाणे का हिस्सा है. जमींदार परिवार में जन्मीं आनंदी का मायके का नाम यमुना था. उनका परिवार एक रुढ़िवादी परिवार था जो सिर्फ संस्कृत पढ़ना जानता था. बताते हैं कि ब्रिटिश शासकों ने महाराष्ट्र में जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी जिसके बाद उनके परिवार की स्थिति खराब होती चली गई, परिवार का गुजर-बसर भी मुश्किल हो गया. परिवार को वित्तीय संकट से गुजरना पड़ रहा था. इसी दौरान महज़ नौ साल की उम्र में यमुना (आनंदी ) की शादी अपने से 20 साल बड़े गोपालराव जोशी से हुई. गोपालराव की आयु उस समय 30 वर्ष थी और उनकी पत्नी की मौत हो चुकी थी. पहले जमाने में जब महिला की शादी हो जाती थी तो उनका सिर्फ सरनेम ही नहीं बल्कि उनका नाम भी बदल दिया जाता था अब यमुना आनंदी बेन गोपालराव जोशी हो चुकी थीं.

14 साल की उम्र में मां बनीं

किशोरी उम्र में आनंदी जब मां बनीं तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा लेकिन महज 14 दिनों में उनकी खुशियां छिन गईं. उन्होंने बेटे को जन्म दिया था लेकिन किसी बीमारी से ग्रसित होने की वजह से उनका बच्चा दस दिनों के भीतर ही मर गया. बच्चे की मौत से उन्हें गहरा सदमा लगा और यही उनके जीवन का टर्निंग प्वाइंट था. बच्चे की मौत से भीतर ही भीतर टूट टुकी आनंदी असल में मजबूत हो चुकी थीं और उन्होंने यह तय किया था कि अब वह किसी भी बच्चे को इलाज के अभाव में मरने नहीं देंगी. उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने पति को बताई.. पति गोपालराव ने उनकी इस इच्छा का साथ दिया और उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए उनका साथ दिया और जब उन्होंने डॉक्टर बनने का निश्चय लिया तब भारत में एलोपैथिक डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं होती थी इसलिए गोपालराव जोशी ने उन्हें पढ़ने के लिए विदेश जाने की तैयारी शुरू कर दी.

विरोध के बीच पहुंची अमेरिका

आनंदी की पढ़ाई के लिए गए फैसले पर परिवार से लेकर समाज तक में खूब चूं-चूं हुई लेकिन दोनों पती-पत्नी के दृढ़ निश्चय के आगे एक न चली. समाज मानने को तैयार नहीं था कि एक हिंदू शादी-शुदा महिला विदेश जाकर पढ़ाई करे. आनंदी के जीवनकाल और संघर्ष को दूरदर्शन और जी स्टूडियो ने भी फिल्म का आकार दिया है. समाज में बढ़ते विरोध के बाद आनंदी ने कहा मैं सिर्फ डॉक्टरी की शिक्षा के लिए अमेरिका जा रही हूं, मेरी इच्छा नौकरी करने की नहीं बल्कि लोगों की जान बचाने की है. मेरा मकसद भारत की सेवा करना और भारतीयों को असमय हो रही मौत से बचाना है.
आनंदी के भाषण का उनके समाज पर बहुत बड़ा असर हुआ और फिर पूरा समाज एकजुट होकर आनंदी को पढ़ाई में मदद करने के लिए आगे आया.

संघर्ष और देश की पहली भारतीय महिला डॉक्टर

आनंदी जोशी कोलकाता से पानी की जहाज के माध्यम से न्यूयॉर्क की यात्रा की थी. न्योयॉर्क में थियोडिसिया काप्रेंटर ने उनकी जून 1883 में आगवानी की. आनंदी ने पेंसिल्वेनिया की वूमन मेडिकल कॉलेज से डॉक्टरी की पढ़ाई की. अपनी पढ़ाई के लिए आनंदी ने केवल अपने सारे गहने बेच दिए बल्कि उन्हें समाज ने भी सहायता दी. इसमें वाइसराय भी शामिल हैं जिन्होंने 200 रुपये की सहायता राशि दी.

नया शहर-नई दुनिया

आनंदी तीक्ष्ण बुद्धि वाली महिला थीं और वह देश की रूढिवादी परंपरा के बीच अमेरिका पहुंची थीं इसे देखते हुए कॉलेज के सुपरीटेंडेंट और सेक्रेटरी एस बात से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने तीन साल की पढ़ाई के लिए 600 डॉलर की स्कॉलरशिप भी मंजूर की. लेकिन आनंदी की परेशानी सिर्फ अपने समाज से लड़ना नहीं था बल्कि अजनबी शहर में खुद को स्थापित करना भी था. भाषा रहन-सहन और खान पान…वह सभी से जूझती रहीं इसमें उनकी मदद दी कॉलेज के डीन की पत्नी मिसेज कारपेंटर ने.

ठंडे देश में आनंदी की मुश्किलें बढ़ती गईं. महाराष्ट्रियन साड़ी पहनने वाली की तबियन बिगड़ी और उन्हें तपेदिक (टीवी ) हो गया था फिर भी उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और 1885 में एमडी से स्नातक किया. उन्होंने अपने थीसिस का चयन किया ‘आर्यन हिंदुओं के बीच प्रसूती.’ आनंदी को रानी विक्टोरिया ने भी उनकी पढ़ाई के लिए बधाई दी. 1886 के अंत में आनंदी डॉ. आनंदी बन कर भारत लौटीं जहां उनका भव्य स्वागत हुआ. कोल्हापुर की रियासत ने उन्हें स्थानीय अल्बर्ड एडवर्ड अस्पताल में महिला वार्ड की चिकित्सक प्रभारी का प्रभार सौंपा. लेकिन देश की पहली महिला एकबार फिर तपेदिक की शिकार हुईं और महज 22 साल की उम्र में उसने दुनिया को अलविदा कह दिया. जिस दिन उन्होंने दुनिया को विदा कहा वह दिन था 26 फरवरी 1887 .

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