कोह-ए-नूर या कोहिनूर यानी रोशनी का पर्वत कहा जाने वाला बेशकीमती हीरा जो लगभग एक हजार साल पहले भारत की एक खदान से निकला और आज लंदन के एक संग्रहालय की शान बढ़ा रहा है. जरा सोचिए, कैसा रहा होगा इस हीरे का एक सैंकड़ों वर्ष लंबा सफर. इस दौरान इसे कई बार जीता गया, कई बार तोहफे में दिया गया, कभी यह किसी का बाजूबंद बना तो कभी किसी की पगड़ी की शान. और तो और एक बार इसे पेपरवेट की तरह भी इस्तेमाल में लाया गया. कोहिनूर से जुड़ी ढेरों दिलचस्प, जानी-अनजानी बातों से पर्दा उठाने का काम कर रही है डिस्कवरी प्लस ओ.टी.टी. ऐप पर रिलीज हुई डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘द सीक्रेट्स ऑफ कोह-ए-नूर’ जिसके सूत्रधार हैं काबिल अभिनेता मनोज वाजपेयी.
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दक्षिण भारत के गोलकुंडा की एक खदान से निकल कर आंध्र प्रदेश के भद्रकाली मंदिर में देवी की आंख में जड़े गए इस हीरे की यात्रा अलाउद्दीन खिलजी के सिपहसालार मलिक काफूर द्वारा लूट कर दिल्ली लाए जाने से शुरू हुई. यह फिल्म बताती है कि यह हीरा कभी भी खरीदा या बेचा नहीं गया बल्कि इसे हर बार या तो तलवार के दम पर हासिल किया गया या फिर तोहफे के तौर पर. लेकिन अपने अंतिम पड़ाव यानी ब्रिटिश हुकूमत ने इसे पंजाब के महाराजा दिलीप सिंह से छल से हासिल किया. इस हीरे के साथ मिथक जुड़ते चले गए कि यह जिस-जिस के के पास रहा, उसे बर्बाद कर गया. इन हजार सालों में यह कई बार लोगों और इतिहास की नजरों से ओझल भी हुआ और वह भी एक-दो नहीं बल्कि सौ, दो सौ वर्षों के लिए. इस हीरे को हमेशा प्रतिष्ठा के तौर पर देखा गया और कोई इसकी कीमत नहीं आंक सका. एक बार तो अफगानिस्तान में एक मौलाना ने इसे पेपर वेट की तरह भी इस्तेमाल किया. 793 कैरेट के शुरुआती वजन का यह हीरा सदियों के इस सफर में आज 105.6 कैरेट का होकर लंदन के एक संग्रहालय में रखा हुआ है और इस पर भारत के अलावा पाकिस्तान, ईरान और यहां तक कि अफगानिस्तान के तालिबान तक अपना हक जताते हैं.
‘ए वेडनसडे’, ‘स्पेशल 26’, ‘बेबी’ जैसी कई फिल्में बना चुके प्रख्यात निर्देशक नीरज पांडेय की बनाई यह डॉक्यूमेंट्री दर्शकों को कोहिनूर की रहस्यमयी, चमकीली, अद्भुत और अनोखी यात्रा पर ले जाती है जिसमें सारथी यानी सूत्रधार बने अभिनेता मनोज वाजपेयी 45-45 मिनट के दो एपिसोड में हमें अपने साथ रखते हुए इन 10 सदियों के इतिहास का दौरा भी करवाते हैं.
कोहिनूर के सफर की कोई वीडियो फुटेज या फोटो आदि उपलब्ध न होने के बावजूद नीरज पांडेय ने इस डॉक्यूमेंट्री को नीरस नहीं होने दिया है. हर जगह इतिहास के पन्ने दिखाने के लिए उन्नत किस्म के एनिमेशन का इस्तेमाल इसे दर्शनीय बनाता है और शानदार हिन्दी में अपनी अदाओं के साथ मनोज वाजपेयी का नैरेशन इसे रोचक. साथ ही बहुत सारे लोगों, इतिहासकारों के साक्षात्कार कोहिनूर की इस कहानी में दर्शक को बांधे रखते हैं. इतिहासकारों में के.के. मुहम्मद, फरहत नसरीन, मानवेंद्र के. पुंढीर, इरफान हबीब, बर्लिन के माइल्स टेलर, कनाडा की डेनियल किन्से, लेखिका एड्रियन म्यूनिख, सांसद शशि थरूर, राजदूत रहे नवतेज सरना, लेखक जे. साईं दीपक, इस हीरे को तराशने वाली कंपनी से जुड़ी पॉलिन विलेम्से आदि के इंटरव्यू इस पूरी डॉक्यूमेंट्री में कदम-कदम पर ज्ञान बढ़ाते हैं. अंत में मनोज का यह कहना दिलचस्प लगता है कि कोहिनूर की अब तक की कहानी भले ही खत्म हुई हो उसका सफर अभी खत्म नहीं हुआ है. यह फिल्म खत्म होते-होते यह सवाल भी छोड़ जाती है कि हम भारतीयों के लिए कोहिनूर के मायने क्या हैं-सदियों की विरासत, गौरवशाली इतिहास, भारत की पहचान, बेशकीमती रत्न, शापित हीरा या सिर्फ एक चमकता पत्थर?
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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