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Friday, 22 November, 2024
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एलीट यूनिवर्सिटी के सवर्ण युवाओं के साथ एक दलित बुद्धिजीवी का एक दिन

जाति, आरक्षण और सामाजिक न्याय के बारे में देश के सवर्ण युवा क्या सोचते हैं, जानिए ऐसे युवाओं से संवाद करने वाले एक टीचर से

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हाल ही में मैं साल के आखिरी दिनों में हिमाचल प्रदेश की सुरम्य वादियों में स्थित एक नामी इंस्टीट्यूट में आयोजित किये गए ‘नई दिशाएं’ कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों से आये युवाओं से मिला. ये विद्यार्थी अशोका, जिंदल जैसी एलीट प्राइवेट यूनिवर्सिटीज़ और आईआईटी जैसे कई प्रतिष्ठित संस्थानों से आये थे. इनमें ज़्यादातर युवा अंग्रेज़ी भाषी सवर्ण वर्ग के थे, बहुत कम ही रिज़र्व कैटेगरी व अल्पसंख्यक समुदाय से आये थे. इनके मध्य मुझे ‘कास्ट एंड डेवलपमेंट’ पर बात करते हुए एक पूरा दिन बिताना था.

हमने उन विद्यार्थियों को समूहों में विभक्त करके समूह चर्चा के लिए चार सवाल दिए गये, जिन पर उनको चर्चा करके अपनी बात सबके सामने कहनी थी. सवाल इस प्रकार थे- 1. आप जाति के बारे में क्या जानते समझते हैं? 2. आपका जाति को लेकर क्या अनुभव है? 3. क्या जाति आपके जीवन को प्रभावित करती है? 4. अगर जाति आपकी नज़र में दिक्कत है, तो उसका समाधान क्या है?

समूह चर्चा के बाद हरेक सहभागी ने अपनी बात रखी. मैंने महसूस किया कि उक्त कार्यशाला में मौजूद हरेक युवा ने अपनी बात पूरी ईमानदारी से रखी. उन्होंने खुद को पूर्णतः खोल दिया, असली मन की बात कही, मस्तिष्क में जो जमा बातें थी, वो भी कही. कुछ वही स्टीरियोटाइप बातें भी सामने आई. किसी ने एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग की बात की, तो कईयों ने माना कि उनके घर पर दलितों के लिए अलग बर्तन रखे हैं. कुछ ने माना कि उनकी जाति उनके लिए बड़ी ताकत है, उन्हें प्रिविलेज्ड फील होता है. नार्थ ईस्ट से आई एक बंगाली भद्रलोक बालिका ने रिज़र्व कैटेगरी ( आदिवासी ) समुदाय से बने डॉक्टर्स, इंजीनियर्स व टीचर्स के ‘निकम्मेपन’ की बात रखी.

कुछ ने मेरिट तंत्र की बहस खड़ी करते हुए, कम अंक लेने के बावजूद रिज़र्व कटेगरी द्वारा मौके हड़प लेने और सवर्णों का हिस्सा कम हो जाने का बहुप्रचलित तर्क दिया, तो किसी ने यह भी कहा कि वह खुद भुगतभोगी है अंको के गणित का, पर अब वह यह सोचता है कि आखिर क्यों इस देश की इतनी बड़ी आबादी इतने कम स्कोर ला रही है या हमने इस परिस्थिति को बदलने के लिए क्या किया?

बातचीत के दौरान जल्द ही बर्फ पिघलने लगी, जाति को लेकर लोगों की समझ बदलने लगी थी. वे खुलकर बोल रहे थे, अपने दिल दिमाग की गांठों को खोल रहे थे.

दोपहर बाद हमने एक फ़िल्म देखी ‘शिट’, जिसमें मैनुअल स्क्वेनजिंग में लगे सफाईकर्मी समुदाय पर चर्चा हुई. फिर जाति पर लम्बी चर्चा हुई, सबने माना कि जाति है, उसका फायदा व नुकसान होता है. वह सर्वव्यापी है. देश, धर्म से ऊपर है. जातियों ने राष्ट्र राज्य की शक्ल अख्तियार कर ली. जाति वंचित समुदायों की पीड़ा की कारक है और देश के लिए हानिकारक है, उसका निदान ज़रूरी है.

बाद में योगेंद्र यादव का टेडएक्स टॉक दिखाया गया, जिसमें उन्होंने आरक्षण के पक्ष में बात रखी. अगले 2 घंटे से भी ज़्यादा समय तक हमने आरक्षण जैसे ज्वलन्त मुद्दे पर जमकर बात की. हमने सदियों से देश मे मौजूद जातिगत आरक्षण से बात शुरू करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग व हिंसक आंदोलनों पर भी बात की. इन सवर्ण इलीट युवाओं को भी ‘केवल 10 साल के लिए था आरक्षण’ जैसे ही मिथक बताए गए थे. उन्हें जब आरक्षण का इतिहास, वर्तमान और उसकी ज़रूरतों को समझाया गया तो वे अपनी अब तक की विचार प्रक्रिया को लेकर पुनर्विचार के मोड में आते दिखे.

 

शाम तक वहां का माहौल कुछ बदला हुआ था. सब लोग इस बात पर सहमत थे कि हमें संवाद करना चाहिए. हमें एक दूसरे को सुनना, समझना और जानना चाहिए. सवर्ण युवाओं के साथ संवाद की इस प्रक्रिया ने मुझे भी इन बरसों में बहुत कुछ सिखाया है.

कई बार मैं यह महसूस करता हूं कि हम बहुजन आंदोलन के ज़्यादातर साथी ऑलरेडी कन्विंस यानी पहले से सहमत लोगों को ही कन्विन्स करने में लगे रहते हैं. उस विरोधी विचार समूह से बात तक नहीं करते जो भविष्य के भारत में अपनी अहम भूमिका अदा करने वाले है. यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है. मेरा यह मानना है कि हमें बात करनी चाहिए.

कमोबेश यही स्थिति दूसरे तबके की भी है. वे भी एकालाप ही किये जाते है. वे भी इस देश के बहुसंख्यक लोगों और उनके सवालों से रूबरू नहीं होते है, जिसके चलते अविश्वास की खाई दिन प्रतिदिन गहराती जाती है.

कुछ बरसों से मैंने विभिन्न विवादित विषयों पर उन समूहों से संवाद की शुरुआत की, जो हमारी तरह नहीं सोचते. कई बार तो वे एकदम असहमत अथवा लगभग विरोधी विचार के होते हैं.

इस संवाद प्रक्रिया को जारी रखने के पीछे का मकसद यह जानना भी रहा है कि हमारे से भिन्न विचार समूहों की वैचारिकी क्या दिशा ले रही है? क्या उन्होंने नए तर्कों की निर्मिति की है या वे पुरानी स्टीरियो टाईप बातें ही किये जा रहे है? साथ ही साथ इसका एक मकसद यह भी रहता है कि हम अपनी बात कहने के स्पेस को कम न होने दें, उसे बढ़ाते जाएं.

मेरा प्रारम्भ से ही यह मानना रहा है कि हम सब इस देश के नागरिक है. हम सबको यहीं रहना है मिलकर, तो बात तो करनी ही पड़ेगी. बातें कड़वी हो तब भी, करनी पड़ेगी. कई बार, तर्क और तथ्य हमारे या उनके खिलाफ भी हो, तब भी सुनने होंगे. विभिन्न विषम विचारों के मध्य संवाद की एक स्वस्थ प्रक्रिया एक स्वस्थ लोकतंत्र बनाने में सहयोगी साबित हो सकती है.

संवाद की इस प्रक्रिया के तहत मैं देश के कई सवर्ण इलीट चरित्र की शिक्षण संस्थाओं में गया, इनमें से ज़्यादातर का प्रबंधन निजी क्षेत्र के हाथों में है. उनमें अध्ययनरत विद्यार्थियों का समाजशास्त्रीय सर्वेक्षण किया जाए तो वे समाज की ऊपरी जातियों के अमीर परिवारों से आते हैं. अधिकांश सफल कारोबारी परिवारों, अखिल भारतीय सेवाओं के बड़े अफसरानों अथवा प्रतिष्ठित राजनेताओं की संतानें इनमें पढ़ती है. ये लोग भावी भारत के, भविष्य के नेता के रूप में तैयार हो रहे होते हैं.

मैंने पाया कि वर्ल्ड क्लास कहे जाने का दावा करने वाले इन संस्थाओं में बच्चों की समझ बनाने के काम को जितना पाठ्यक्रम प्रभावित करते है, उससे कहीं ज़्यादा इन विद्यार्थियों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि भी काम करती है. कई बार वे वही सोच रहे होते हैं, जो उनके परिवारों या समुदाय की सोच होती है. उच्च शिक्षण के इदारे भी उनकी कंडीशनिंग को खत्म करते दिखाई नहीं पड़ते. लेकिन एक बात जो मैं नोटिस करता हूं, वह हरेक जगह मुझे कॉमन लगी कि ये सवर्ण इलीट वर्गीय विद्यार्थी सीखने में, प्रश्न करने में काफी एफर्ट लगाते हैं.

मैं देश के एक प्रतिष्ठित मानव अधिकार संगठन से जुड़ा हुआ हूं, जहां पर इंटर्नशिप के लिए उपरोक्त वर्ग के लॉ स्टूडेंट्स आते है. मुझे उनके मध्य देश के वंचित समूहों के सवालों पर बात करने के लिए जाना होता है. मैंने देखा कि वे लोग गंभीरता से सुनते हैं, समझने को उत्सुक रहते हैं. जब जब भी मैं बाबा साहेब डॉ बी. आर. अम्बेडकर की किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ पर बात करने गया, तो मैंने पाया कि सवर्ण उच्च और मध्यम वर्ग से आने वाले ये विद्यार्थी बाबा साहब अम्बेडकर की किताब को पढ़कर आते है. उठने वाले संदेहों व सवालों पर वो बात करते है, तीखे प्रश्न उठाते है. कई बार सेशन के बाद, व्यक्तिगत बातचीत में वे जाति के मुद्दे को लेकर अपनी राय बदलने की बात भी स्वीकारते नज़र आते हैं. इसका जीवंत उदाहरण मुझे सफाई कर्मचारी आंदोलन के साथ जुड़कर एक माह का समय गुज़ारने गये सवर्ण समुदाय के युवाओं में भी दिखा. जब वे गये, उनके विचार कुछ और थे. लेकिन जब वे लौट कर आये तो उनके विचार और व्यवहार में ज़मीन आसमान जितना फर्क था. उन्होंने कहा कि वे हज़ार पाठ पढ़कर भी जो नहीं सीख सकते थे, वह उन्होंने वाल्मीकि समाज के घरों में एक माह रहकर सीखा.

ऐसे संवाद जारी रहने चाहिए और इन्हें राष्ट्र निर्माण के कार्यक्रम का हिस्सा माना जाना चाहिए.

(लेखक शून्यकाल के संपादक हैं और मानवाधिकार आंदोलन से जुड़े हैं)

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