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Saturday, 21 December, 2024
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377 एब नॉर्मल: कैसे देखते हैं ‘नॉर्मल’ लोग एलजीबीटी समुदाय को

अब इसी मुद्दे पर एक डेढ़ घंटे की फिल्म रिलीज़ हुई है. नाम है ‘377 एब नॉर्मल.’ यह सिनेमाघरों की जगह एक वेब प्लेटफार्म पर रिलीज हो रही है.

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नई दिल्ली: 6 सितम्बर 2018. यह केवल तारीख नहीं है. एलजीबीटी यानी लेस्बियन, गे, ट्रांसजेंडर और बाईसेक्सुअल समुदाय के लिए कभी नहीं भूलने वाला दिन है. इस दिन सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए दो वयस्क लोगों के बीच अपनी इच्छा से बनाए गए समलैंगिक संबंध को अपराध बताने वाली धारा 377 को खत्म कर दिया था. एलजीबीटी समुदाय को अपने हक की लड़ाई जीतने के लिए करीब दो दशकों का संघर्ष करना पड़ा. इसमें कई अधिवक्ताओं, याचिकाकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपना बहुमूल्य योगदान दिया.

अब इसी मुद्दे पर एक डेढ़ घंटे की फिल्म हाल ही में रिलीज़ हुई है. मूवी का नाम है ‘377 एब नॉर्मल.’ यह फिल्म सिनेमाघरों की जगह जी5 नामक एक वेब प्लेटफार्म पर रिलीज़ हो रही है.


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फिल्म में है क्या

‘377 एब नॉर्मल’ एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों को लेकर संघर्ष करने वाले याचिकाकर्ताओं की कहानी है. यह फिल्म मुख्य रूप से 5 किरदारों की सच्ची कहानी है. मूवी में मानवी गागरू ने एक लेस्बियन बेटी का किरदार निभाया है. जिसे एक दिन गिरफ्तार कर लिया जाता है. कई सारे सोशल ग्रुप चलाने वाली उनकी मां (तनवी आज़मी) अपनी बेटी के लिए याचिका दायर करती हैं कि किस कानून के आधार पर उन्हें गिरफ्तार किया गया. क्यों किसी का केवल सेक्सुअल ओरियंटेशन उसकी गिरफ्तारी का आधार बनता है. इसके अलावा जीशान अयूब लखनऊ में ‘भरोसा ट्रस्ट’ चलाने वाले एक एनजीओ वर्कर आरिफ जाफर से प्रभावित हैं. वो भारत के पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें धारा 377 के तहत बिना किसी एफआईआर, ट्रायल और बिना किसी चार्जशीट के लखनऊ सेंट्रल जेल में काफी दिनों तक बंद किया गया था.

उन्हीं की कहानी ने इस पूरे आंदोलन की नींव डाली थी. जब ‘हमसफर’ ट्रस्ट और ‘नाज़’ फाउंडेशन ने साथ में आकर 2001 में एक याचिका दायर की थी. सिड मैकर ने समलैंगिकता को अपराध बताने वाली याचिका दायर करने वाले केशव सूरी की भूमिका निभाई है. फिल्म में शशांक अरोड़ा ने पल्लव पटंकर का किरदार निभाया है जिसके ज़रिए हेट्रोसेक्सुअल समुदाय को एलजीबीटी समुदाय की फीलिंग का दर्शाया गया है.

दिप्रिंट से बातचीत में फिल्म के निर्देशक फारूक कबीर बताते हैं, ’इस फिल्म को हमने देश की 99 फीसदी हेट्रोसेक्सुअल आबादी के नज़रिए से बनाई है. वह इंसान जो कि इस समुदाय से नहीं है वो इनको लेकर क्या सोचता है. किस तरीके से उनकी समस्याओं को लेता है. क्योंकि हमें संदेश उसी तबके को पहुंचाना है जो इस पीड़ा से नहीं गुज़र रहे हैं.’

वैसे तो इस आंदोलन में कई सारे याचिकाकर्ता और समाजसेवी संगठन से जुड़े लोग थे, लेकिन केवल 5 लोगों की कहानी ही कैसी चुनी. फारूक कबीर बताते हैं, ‘हां, इससे बहुत सारे लोग जुड़े हैं, लेकिन उन सभी के योगदान को डेढ़ घंटे की फिल्म में नहीं दिखाया जा सकता है. इसमें हमने केवल उन्हीं किरदारों को लिया जिनके योगदान के बिना सब कुछ अधूरा रहता. ये वो लोग हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी में काफी कुछ झेला है.’

फिल्म बनाने का आइडिया कब आया

पिछले सितंबर में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद एलजीबीटी समुदाय में एक खुशी की लहर दौड़ गई थी. सालों से चले आ रहे जंग को उन्होंने जीत लिया था. लोग तरह-तरह से अपनी खुशियां जता रहे थे. देशभर में जगह-जगह क्वीर परेड निकाले जा रहे थे. फिल्म के निर्देशक फारूक इन सब को टीवी पर देख रहे थे. एक समुदाय को इतने सालों बाद मिले उसके अस्तित्व की पहचान ने फारूक को अपनी ओर आकर्षित किया.

फारूक बताते हैं, ‘कोर्ट का जब फैसला आया और लोगों की खुशी मैने देखी तो मुझे लगा ये कौन लोग हैं जिनकी बदौलत यह संघर्ष अंजाम तक पहुंचा है. मैं रिसर्च में जुट गया. मुझे रिसर्च करते करते यह एहसास हुआ कि इस पूरे मूवमेंट को लोगों तक पंहुचाना चाहिए. और तीन-चार महीने की रिसर्च के बाद फाइनली 2 फरवरी को मैने इसका पहला शॉट लिया.’

किरदारों को मनाने में कितना समय लगा

बकौल फारूक जब उन्होंने जीशान या मानवी से इस फिल्म की स्क्रिप्ट को लेकर बात की तो उन लोगों को ये काफी पसंद आई और वे इसमें काम करने के लिए तुरंत मान गए.

18 सालों की जर्नी को 18 दिनों में बना डाला

इस फिल्म में लीड रोल निभा रही मानवी गागरू जो कि खुद एक लेस्बियन भी हैं, दिप्रिंट से बातचीत में बताती हैं, ‘जब कोर्ट का फैसला आया तो हमें विश्वास नहीं हो रहा था कि क्या सचमुच हम जीत गए हैं. इसके बाद जब मैंने फिल्म में काम करना शुरू किया तो मुझे बहुत सारी बातें अपने समाज के बारे में पता चलनी शुरू हुई. जो कि मेरे लिए नई भी थीं. मुझे काम करके कभी भी किसी तरह का तनाव महसूस नहीं हुआ. फिल्म की स्क्रिप्ट, डायरेक्टर का साथ और अपने कोस्टार का सहयोग ने इस फिल्म से मुझे जोड़े रखा.’

वहीं निर्देशक फारूक ने कहा, ‘हमारे पास बजट भी ज़्यादा नहीं था. और हमें लोगों के दिलों को छू जाना था इसलिए हमने इस पर रिसर्च काफी की थी जिसका फायदा हमें फिल्म बनाने के दौरान मिला और हमने लगभग 18 सालों की जर्नी को 18 दिनों की शूटिंग में निपटा दिया.’


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इस फिल्म में क्या नहीं है

फिल्म में एलजीबीटी समुदाय के पिछले 18 साल के संघर्षों को दिखाया गया है. उनकी इस लड़ाई में 6 सितंबर 2018 के अलावा 15 अप्रैल 2014 भी बहुत महत्वपूर्ण है. इस दिन नाल्सा जजमेंट आया था जिसके तहत पहली बार ट्रांसजेंडर समुदाय को तीसरे जेंडर के रूप में पहचान मिली थी. लेकिन उस पूरे आंदोलन का इस फिल्म में कहीं भी ज़िक्र नहीं किया गया है. इस पर फारूक बताते हैं, ’नाल्सा जजमेंट की पूरी जर्नी अपने आप में इतनी बड़ी है कि उस पर एक अलग से फिल्म बनानी होगी. वह टॉपिक इतना बड़ा है कि जब तक आप केवल उसी विषय पर फिल्म नहीं बनाएंगे, तब तक आप उसकी गहराई में नहीं जा सकेंगे.’ वे आगे कहते हैं कि फिल्म बनाने का मतलब केवल जानकारी देना नहीं होता है, हम दर्शकों के दिलों में उतरना चाहते हैं जिससे हमारी बात को वे कनेक्ट कर सकें.’

अगर निर्देशक फारूक की मानें तो यह फिल्म मुख्य तौर पर हेट्रोसेक्शुअल समाज के लिए बनाई गई है जहां समलैंगिकों को लेकर एक अलग तरह का माहौल (डर) बना हुआ है. शायद हमारा समाज उनको लेकर बहुत ज़्यादा सहज नहीं है. अब यह देखनी वाली बात होगी कि वे अपनी इस फिल्म से उस डर को कितना कम कर पाते हैं.

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