scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होमसमाज-संस्कृतिसुभाष घई की ऊंची दुकान का फीका पकवान है ‘36 फार्म हाउस’

सुभाष घई की ऊंची दुकान का फीका पकवान है ‘36 फार्म हाउस’

जी-5 पर रिलीज हुई इस फिल्म के गाने बहुत कमजोर लिखे गए और उनकी धुनें भी उतनी ही कमजोर बनाई गईं. सच तो यह है कि सुभाष घई ने यह फिल्म बना कर खुद अपने ही नाम पर बट्टा लगाया है.

Text Size:

एक अर्से बाद सुभाष घई के बैनर से कोई फिल्म आई है. खास बात यह है कि सुभाष घई ने इस फिल्म ‘36 फार्म हाउस’ की कहानी लिखने के साथ-साथ इसके गाने भी लिखे हैं और पहली बार बतौर संगीतकार उन गानों की धुनें भी तैयार की हैं. किसी जमाने में ‘हीरो’, ‘खलनायक’, ‘राम लखन’, ‘परदेस’, ‘ताल’ जैसी सुपरहिट फिल्में देकर शो-मैन कहे जाने वाले शख्स ने इतनी सारी रचनात्मकता दिखाई है तो जाहिर है कि फिल्म भी धांसू ही बनी होगी? आइए देखते हैं.

मई, 2020 का समय. लॉकडाउन लगा हुआ है. मुंबई के बाहर कहीं 36 नंबर के किसी फार्म हाउस में रह रहे रौनक सिंह से मिलने उनके भाइयों का वकील आता है और गायब हो जाता है. सबको यही लगता है कि रौनक ने उसे मार डाला. विवाद का विषय है यही 36 नंबर का फार्म हाउस जो रौनक की मां ने उसके नाम कर डाला है. घर में कई सारे नौकर हैं. बाहर से भी कुछ लोग यहां आ जाते हैं-कोई सच बोल कर तो कोई झूठ बोल कर. पुलिस भी यहां अक्सर आती-जाती रहती है. अंत में जो सच सामने आता है वह इस फिल्म की टैगलाइन ‘कुछ लोग जरूरत के चलते चोरी करते हैं और कुछ लालच के कारण’ पर फिट बैठता है.

अगर इस फिल्म की कहानी सचमुच सुभाष घई ने लिखी है तो फिर इस फिल्म के घटिया, थर्ड क्लास होने का सारा श्रेय भी उन्हें ही लेना चाहिए. न वह बीज डालते, न यह कैक्टस पैदा होता. 2020 में जब पहली बार लॉकडाउन लगा था तो कभी पानी तक न उबाल सकने वाले लोग भी रोजाना नए-नए पकवान बना कर अपने हाथ की खुजली मिटा रहे थे. इस फिल्म को देख कर ऐसा लगता है कि घई ने भी बरसों से कुछ न लिखने, बनाने की अपनी खुजली मिटाई है. इस कदर लचर कहानी लिखने के बाद उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट भी उतनी ही लचर बनवाई है. फिल्म में मर्डर हो और दहशत न फैले, मिस्ट्री हो और रोमांच न जगे, कॉमेडी हो और हंसी न आए, फैमिली ड्रामा हो और देखने वाले को छुअन तक न हो तो समझिए कि बनाने वालों ने फिल्म नहीं बनाई, उल्लू बनाया है-दर्शकों का.


यह भी पढ़ें : सनी लियोन के लिए ‘मधुबन में राधिका नाचे’ ने बढ़ाई मुश्किलें, विरोध के बाद अब गाने में होंगे बदलाव


राम रमेश शर्मा का निर्देशन पैदल है. लगता है कि निर्माता सुभाष घई ने उन्हें न तो पूरा बजट दिया न ही छूट. ऊपर से एक-दो को छोड़ कर सारे कलाकार भी ऐसे लिए गए हैं जैसे फिल्म नहीं, नौटंकी बना रहे हों. संजय मिश्रा जैसे सीनियर अदाकार ने इधर कहीं कहा कि उन्होंने इस फिल्म के संवाद याद करने की बजाय सैट पर अपनी मर्जी से डायलॉग बोले. फिल्म देखते हुए उनकी (और बाकियों की भी) ये मनमर्जियां साफ महसूस होती हैं. जिसका जो मन कर रहा है, वह किए जा रहा है. विजय राज हर समय मुंह फुलाए दिखे, हालांकि प्रभावी रहे. बरखा सिंह, अमोल पराशर, राहुल सिंह, अश्विनी कलसेकर आदि सभी हल्के रहे. बंगले की मालकिन बनीं माधुरी भाटिया जरूर कहीं-कहीं असरदार रहीं. फ्लोरा सैनी जब भी दिखीं, खूबसूरत लगीं.

जी-5 पर रिलीज हुई इस फिल्म के गाने बहुत कमजोर लिखे गए और उनकी धुनें भी उतनी ही कमजोर बनाई गईं. सच तो यह है कि सुभाष घई ने यह फिल्म बना कर खुद अपने ही नाम पर बट्टा लगाया है. शेर को समय रहते रिटायर हो जाना चाहिए. घास खाकर वह अपना ही नाम बदनाम करता है.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)

share & View comments