प्यार की फुहार के इस वसंती मौसम में आइए डालें एक नजर 21वीं सदी के पहले 20 बरसों की 20 रोमांटिक फिल्मों पर, जिन्हें आप अपने साथी, पति, पत्नी, प्रेमी, प्रेमिका, दोस्त, सखी के साथ देखना पसंद करेंगे.
दिल चाहता है (2001): इस फिल्म ने प्यार करने और उसे जताने के सलीके की एक अलग ही तस्वीर दिखाई. तीन दोस्तों की अलग-अलग तीन प्रेम-कहानियां. आमिर खान वाली कहानी खासतौर से पसंद की गई थी जिसमें नायक का फलसफा है-जाने क्यूं लोग प्यार करते हैं…
देवदास (2002): बचपन के दोस्त देव और पारो की दोस्ती प्यार में तो बदली लेकिन जब इनके मिलने का समय आया तो सामाजिक रूढ़ियां और अमीरी-गरीबी की दीवारें आड़े आ गईं. अंत में देव ने वादा निभाया और पारो की चौखट पर दम तोड़ा. दो दोस्तों के प्रेमियों में बदलने और फिर उस प्रेम की लाज रखने की अद्भुत कहानी है यह.
कल हो न हो (2003): प्यार के मायने समझाती और उसे दिलों की गहराई तक महसूस कराती यह फिल्म एक मर रहे इंसान की नजर से प्यार को देखती है. इस फिल्म ने बताया कि प्यार सिर्फ मनचाहे को पाने का ही नहीं, बल्कि उसे सही और सुरक्षित हाथों में सौंपने का भी नाम है.
वीर जारा (2004): पाकिस्तान से आई जारा से हुई वीर सिंह की दो दिन की दोस्ती एक ऐसे प्यार में बदल गई कि वीर ने इस रिश्ते की लाज रखने के लिए अपनी सारी जवानी जेल में काट दी. प्यार सिर्फ प्रियतम को हासिल करने का ही नहीं, उसके नाम को संबल बना कर जिंदगी जीने का भी नाम है.
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परिणीता (2005): बचपन के दो दोस्तों के अबूझ प्यार को दर्शाती, साहित्य के पन्नों से निकले नायक-नायिका का रुपहले पर्दे पर बेहद असरदार चित्रण दिखाती यह फिल्म बताती है कि प्यार में शर्तें नहीं हुआ करतीं.
विवाह (2006): दो अनजाने अजनबी, जिन्होंने एक-दूसरे को कभी देखा तक नहीं. अपने बड़ों के कहने पर ये मिले तो एक-दूसरे को अपना मान कर बेखुद हो गए. तेज रफ्तार समाज में ‘अरेंज्ड मैरिज’ की भारतीय परंपरा पर बल दिखाया इस फिल्म ने.
जब वी मेट (2007): जिंदगी को भरपूर जीने वाली नायिका और जिंदगी से निराश नायक. बिना वादों-इरादों के इस सहज प्यार की कहानी ने दिखाया कि कैसे कोई चुपके से आकर आपके दिल पर इस तरह से काबिज हो सकता है कि वहां पहले से बैठा शख्स भी बेगाना लगने लगता है.
जाने तू या जाने न (2008): किसी तीसरे के बीच में आने के बाद अपने दोस्त में अपने प्रियतम का अक्स दिखने की घिसी-पिटी कहानी को इसके प्रस्तुतिकरण ने उम्दा रूमानी फिल्मों में शुमार करवा दिया. नायक-नायिका की आपसी चुहलबाजी को युवाओं ने अपने काफी करीब पाया और इस फिल्म को सिर-माथे पर जगह दी.
अजब प्रेम की गजब कहानी (2009): नायक तो नायिका को चाहता है मगर नायिका के दिल में कोई और ही बसा हुआ है. नायिका को उसके प्रेमी से मिलवाने के लिए नायक पूरी दुनिया से टकराने को तैयार है.
गुजारिश (2010): मौत की बात करती यह फिल्म, जहां जीने की जबर्दस्त इच्छा जगाती है तो वहीं अव्यक्त प्यार का भी एक खूबसूरत अहसास इसमें साफ दिखाई देता है. रुपहले पर्दे पर उकेरी गई इस रूमानी कविता के गहरे अर्थों को समझा भले ही कम गया हो, सराहा काफी गया.
तनु वैड्स मनु (2011): प्यार का अर्थ त्याग भी है और प्रियतम की खुशी के लिए हर किसी से भिड़ जाने का जज्बा भी प्यार ही पैदा करता है.
जब तक है जान (2012): रूमानी फिल्मों के जादूगर यश चोपड़ा की इस आखिरी सौगात को दिल वालों ने दिल से चाहा और सराहा.
यह जवानी है दीवानी (2013): कबीर को आवारगी पसंद है और नैना है किताबी कीड़ा. कबीर की चाहत सफर है जबकि नैना थमना चाहती है. कबीर के सपनों के आड़े आने की बजाय वह उससे दूर जाना बेहतर समझती है. प्यार का यह एक अलग ही रूप है.
हंपटी शर्मा की दुल्हनियां (2014): दुल्हन को लहंगा अपनी पसंद का चाहिए, दूल्हा कैसा भी चलेगा. पर जब उसे अपनी पसंद का लड़का मिल गया तो वह सब भूल गई. लेकिन अब घर वालों को कौन समझाए. सबसे भाग कर शादी करने की बजाय लड़का सबका दिल जीतने में लग गया और आखिर में दिलों के साथ-साथ दुल्हनियां को भी जीत ले गया.
बाजीराव मस्तानी (2015): हिंदू राजा पेशवा बाजीराव ने मुस्लिम मस्तानी को अपनाया तो घर-समाज इसे बर्दाश्त नहीं कर पाया. लेकिन बाजीराव ने भी मस्तानी से मोहब्बत की थी, अय्याशी नहीं. इतिहास के पन्नों से निकली अमर-प्रेम की एक ऐसी रूमानी दास्तान जो अपने अंत तक आते-आते रूहानी अहसास देने लगती है.
की एंड का (2016): लड़‘की’ के सपने बड़े हैं. वह उन्हें पूरा करने में जुटी हुई है. लड़‘का’ अपनी मां की तरह घर संभालना चाहता है. इस फिल्म को अकेले नहीं, बल्कि अपने पार्टनर, पति, पत्नी, गर्लफ्रैंड वगैरह-वगैरह के साथ बैठ कर देखें, समझें और हो सके तो इससे कुछ हासिल करें.
टॉयलेट-एक प्रेम कथा (2017): अपनी पत्नी के प्रेम की खातिर समाज की दकियानूसी सोच से जा भिड़े नायक की इस कहानी में प्यार-इश्क-मोहब्बत वाली खुशबू भले न हो लेकिन अपनी पत्नी की देखभाल के साथ-साथ तमाम औरतों के स्वास्थ्य और उनकी गरिमा की बात यह फिल्म बखूबी बयां कर जाती है.
अक्टूबर (2018): यह फिल्म धीरे-धीरे आपको स्पर्श करती है, सहलाती है और हौले से आपके भीतर समाने लगती है. इस फिल्म को सब्र से देखना होगा. तेज रफ्तार और तीखे मसालों के आदी हो चुके लोगों के लिए इसे जज्ब करना मुश्किल होगा.
दे दे प्यार दे (2019): कम उम्र के आकर्षण, जल्दी शादी करने के चक्कर में पीछे छूट गए सपनों, तलाक के साइड-इफेक्ट्स जैसी बातों पर रोशनी डालती यह फिल्म ऐज-गैप को लांघने और लिव-इन में रहने की वकालत करती है तो वहीं रिश्तों, संस्कारों, परिवार आदि को भी संग लिए चलती है.
सर (2020): यह फिल्म कहीं से भी ‘फिल्मी’ नहीं होती. यह समाज के दो जुदा वर्गों से आए दो लोगों के करीब आने और एक-दूसरे का ख्याल रखने की प्यारी, मीठी, सुहानी कहानी दिखाती है जिसे देखते हुए मन होता है कि काश कुछ ‘फिल्मी’ हो ही जाए और ये दोनों मिल ही जाएं.
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