चुनाव नतीजे पर चर्चा में प्रायः हर कोई केवल भाजपा के ‘आंकड़े’ की बात कर रहा है, लेकिन क्या हो अगर हम समीकरण को उलट दें और यह सवाल करें कि हारने वाले का प्रदर्शन कैसा रहा?
‘लहर’ वाले चुनाव के दौरान मतदाताओं का उत्साह चरम पर होता है. एक बेहतर भविष्य की उम्मीदें रहती हैं, कभी-कभी प्रतिशोध का भाव भी रहता है. इन सबके मद्देनज़र 2024 का चुनाव अप्रत्याशित रूप से मुद्दा विहीन चुनाव नज़र आ रहा है.
इस बार हमारे राजनीतिक भूगोल के बड़े हिस्से में चुनावी मुक़ाबले का नतीजा भले साफ नजर आ रहा हो, मगर कुछ हिस्से में यह मुक़ाबला 2019 के मुक़ाबले से भी ज्यादा तीखा है
विपक्षी दलों को कड़ी चुनौती का एहसास तो है मगर उनके अंदर बातें यही होती हैं कि नरेंद्र मोदी की सीटें कहां-कहां से कम की जा सकती हैं, यह नहीं कि उन्हें सत्ता से कैसे बेदखल किया जा सकता है
‘प्रतिबद्ध न्यायपालिका’ के बारे में मोदी का ज़िक्र हमें 1970 वाले दशक में ले जाता है जब इंदिरा गांधी की सरकार ने मुख्य न्यायाधीश के पद पर वरिष्ठतम जज को नियुक्त करने की मान्य परंपरा का दो बार उल्लंघन किया था.
केजरीवाल और उनकी पार्टी जिस ‘आइडिया’ के बूते उभरी थी वह भ्रष्टाचार के खिलाफ बेरोकटोक लड़ाई का था. इसीलिए मोदी सरकार ने उन पर, उनकी पार्टी तथा सरकार पर भ्रष्टाचार की कालिख पोती है
भाजपा की सीएए वाली सियासी चाल बहुत कारगर नहीं रही क्योंकि इससे जिन लोगों को लाभ मिलता उन्हें पहले से मौजूद कानून के तहत भी आसानी से शामिल किया जा सकता है और नए प्रवासियों को अलग-थलग रखा जा सकता है.
‘माइलेज’ वाले नेता मानते हैं कि वे उम्र आदि की सीमाओं से ऊपर हैं, मसलन शी जिनपिंग, बाइडन, ट्रंप, एर्दोगन या पुतिन को ही देख लीजिए. तो फिर मोदी 75 की उम्र के बाद भी प्रधानमंत्री क्यों नहीं बने रह सकते?
खलील-उर-रहमान हक्कानी - जलालुद्दीन हक्कानी के भाई, उनके उत्तराधिकारी सिराजुद्दीन के चाचा, और अफगानिस्तान में 1,000 से अधिक आत्मघाती बम धमाकों के लिए जिम्मेदार नेटवर्क के एक प्रमुख सदस्य - इस्लामिक स्टेट द्वारा किए गए आत्मघाती हमले में मारे गए.