यहूदी पूजाघरों में बढ़ी सुरक्षा, सरकार से मिली सहायता और छाबड़ हाऊस के दोबारा खुलने से मुंबई में रहने वाले यहूदी एक बार फिर सुरक्षित महसूस करने लगे हैं।
क्या हम यह कह रहे हैं कि एक राष्ट्र के तौर पर हम अलग-अलग विचारों को नहीं संभाल सकते? कि हम असहमत होने के लिए बहुत कमज़ोर हैं? अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी के साथ समय और लहज़े के बारे में चेतावनी भी दी जाती है, तो क्या यह वाकई आज़ाद है?